।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ सपा और विपक्षी बसपा के बीच ढेरों तल्खियों के बावजूद एक अघोषित समझौता दिखता है : प्रदेश की राजनीति को हर हाल में जातिगत अस्मिताओं की धुरी पर ही गोल-गोल घुमाने का. इसका ताजा उदाहरण मायाराज में सरकारी खजाने से 42.77 अरब रुपये खर्च करके बनवाये गये दलित महापुरुषों के स्मारकों से जुड़ा है. लोकायुक्त एनके मेहरोत्र ने पिछले दिनों अपनी जांच में पाया कि इन पर खर्च धनराशि के 34 प्रतिशत से ज्यादा यानी 14.88 अरब रुपयों का घोटाला हुआ है, जिसके लिए मायावती के दो मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी व बाबू सिंह कुशवाहा समेत सरकारी अमले के 199 लोग जिम्मेदार हैं. लोकायुक्त की सिफारिश है कि घोटाले की 30-30 फीसदी धनराशि उक्त मंत्रियों, 15-15 फीसदी राजकीय निर्माण निगम के एमडी सीपी सिंह व पत्थरों के दाम तय करनेवाले इंजीनियरों और पांच-पांच फीसदी खनन के संयुक्त निदेशक एसए फारूकी व लेखाकारों से वसूली जाये.
मुख्यमंत्री अखिलेश को सिफारिश मिले एक पखवारा बीत चुका है, लेकिन उन्होंने उस पर किसी कार्रवाई के संकेत नहीं दिये हैं. अलबत्ता, स्मारकों के रखरखाव के भारी खर्च का ‘बोझ’ महसूस करके उन्हें शादियों वगैरह के लिए किराये पर देने का ऐलान कर दिया है. उद्देश्य वही कि बसपा को फिर से दलित अस्मिताओं पर हमले की गुहार लगाने का मौका मिले और उसकी प्रतिक्रिया का लाभ सपा के खाते में आये.
दलित अस्मिताओं को लेकर बसपा बहुत ‘सतर्क’ रहती है. मायावती के लखनऊ स्थित बंगले के पास फ्लाइओवर बनाने के बजट प्रस्ताव पर ‘गंभीरतम प्रतिक्रिया’ के चक्कर में उसने अखिलेश द्वारा पेश प्रदेश के बजट के जनविरोधी प्रावधानों को बख्श दिया था.
इधर खराब कानून-व्यवस्था व भीषण विद्युत संकट को लेकर सरकार को घेरने का अपना दायित्व भी वह नहीं निभा रही. लेकिन स्मारकों में शादियों को लेकर उसको गंभीर नतीजे की चेतावनी तो दे ही रही है, राज्यपाल को प्रतिवेदन में दलील भी दे आयी है कि यह राजनीतिक मर्यादाओं की अनदेखी और सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश की अवज्ञा है जो उसने स्मारकों का निर्माण रुकवाने के लिए दायर याचिकाओं पर दिये थे.
अस्मिताजन्य घृणाओं का एक ऐसा भी समय था, जब मुलायम सिंह इन स्मारकों को पत्थरों से ज्यादा महत्व नहीं देते थे. कहते थे कि सत्ता में आने पर उन्हें बुलडोज करा देंगे. आजम खान को तो राजकोष का दुरुपयोग करके बनवाये जाने के कारण इन स्मारकों से इतनी घृणा थी कि वे इसी दुरुपयोग की बिना पर मुहब्बत की निशानी ताजमहल को भी तोड़ने की बात कहते थे. लेकिन बाद में सपा ने वादा किया कि उसकी सरकार बनी तो इनमें अस्पताल व कॉलेज वगैरह खोले जायेंगे.
अखिलेश ने मुख्यमंत्री बनने के बाद मामले को ठंडे बस्ते में डाले रखा तो उम्मीद थी कि वे इस बाबत संयत रहेंगे. लेकिन अब लगता है कि अस्मिताओं के खेल वैसे ही चलेंगे.
फिलहाल, किसी निष्पक्ष प्रेक्षक को स्मारकों में शादियों के फैसले में कोई राजनीतिक समझदारी नहीं दिखती.
सवाल उठने लगा है कि क्या प्रदेश के सारे स्मारकों के लिए यही नीति अपनायी जायेगी? समाजवादियों के भी स्मारक हैं और उन पर भी धन खर्च होता है. केवल दलित स्मारकों को लक्ष्य बनाकर उसे नियमों के समक्ष समानता के सिद्घांत पर आधारित व भेदभाव से परे कैसे ठहराया जायेगा? मायावती इन स्मारकों को दलितों के लिए प्रेरणास्थल कहती हैं. नीयत साफ होती तो मुख्यमंत्री ऐसा ऐलान भी कर सकते थे कि उनमें गरीबों, दलितों, वंचितों या जाति व धर्म के बंधन तोड़ने वालों के ही फेरे कराये जायेंगे. लेकिन अभी सिर्फ यही होगा कि प्रभुत्वशाली तबका विलासितापूर्ण शादियों के लिए इन स्मारकों की भव्यता को इस्तेमाल करेगा.
कहा जा रहा है कि इनमें सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे, लेकिन राज्य की कोई सुविचारित संस्कृति नीति ही नहीं है. फिर यह फैसला कैसे होगा कि इन्हें किन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए दिया जाये? ‘विरोधी’ संस्कृति वाले कार्यक्रम होने शुरू हुए तो भी अस्मिताओं के प्रश्न ही खड़े होंगे! हालांकि माना जा रहा है कि यह फैसला और उसका विरोध दोनों इन दोनों दलों के स्टंट हैं जिनकी मार्फत वे अपने मतदाताओं पर इमोशनल अत्याचार कर रहे हैं.
इस ‘अत्याचारी’ कार्रवाई के तहत अखिलेश सरकार लखनऊ में मायावती की मूर्ति तोड़ने वालों पर से मुकदमा वापस लेने जा रही है. उसे पता है, बसपा इसे सहन नहीं करेगी और दूसरे मुद्दों पर जवाबदेही से बचने में उसकी मदद करेगी.