एक बार फिर पर्यावरण दिवस आया है. इस मौके पर गोष्ठियों-समारोहों के आयोजन फिर होंगे. बुद्धिजीवी अपने विचार रखेंगे. मीडिया में खबरें छपेंगी और पिछले सालों की तरह इस बार भी यह दिन यूं ही निकल जायेगा, पर पर्यावरण संकट का घनत्व और आयतन कम नहीं होगा. ऐसे आयोजनों के अपेक्षित परिणाम हम हासिल नहीं कर पा रहे. वजह यह है कि एक तो हमने इस संकट को इतना बड़ा कर लिया है कि इसे संवाद से हल करना आसान नहीं रह गया है.
दूसरा कि बुनियादी तौर पर हम इस संकट को दूर करने या कम करने के प्रति खुद में बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं. लिहाजा, कई प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं और लुप्त होने की स्थिति में हैं. समुद्री जीवों का अस्तित्व भी संकट में है. हम सब यह जानते हैं. अगर हम महज प्लास्टिक और पॉलीथिन से परहेज करने का संकल्प लें और उसे अपनी आदत का हिस्सा बना लें, तो हम अच्छे कल का निर्माण कर सकते हैं.
डॉ शिल्पा जैन सुराणा, वारंगल, तेलंगाना