सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
इस समय देश में दो ही विचारधाराएं इंडिया के नंबर वन कहे जानेवाले परफ्यूम बॉडी स्प्रे की तरह धड़ल्ले से चल रही हैं, जिनमें से एक संघी विचारधारा है, तो दूसरी मार्क्सवादी. आप चाहें तो, और न चाहें तो भी, या तो संघी हो सकते हैं या फिर मार्क्सवादी. हालांकि दोनों में से कुछ भी होने के लिए आपको कुछ भी होने की जरूरत नहीं है.
अगर आप संघी नहीं हैं, तो आप स्वत: मार्क्सवादी ठहरा दिये जाते हैं और मार्क्सवादी नहीं हैं, तो संघी घोषित कर दिये जाते हैं. कई बार तो आपको पता भी नहीं चलता कि आप क्या हो चुके हैं, फेसबुक पर ही पता चलता है कि आप क्या हैं.
आप रोज न सही, पर कुछ दिनों के लिए संघी ठहराये जा सकते हैं, तो कुछ दिनों के लिए मार्क्सवादी. यह भी हो सकता है कि संघी आपको मार्क्सवादी समझें और मार्क्सवादी कहें कि आप संघी हैं, और आपकी हालत ठीक उस शायर की तरह हो जाये, जिसने लिखा था- जाहिद-ए-तंग-नजर ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं!
कुछ बुद्धिमान बुद्धिजीवी, जिन्हें देखकर यह एहसास हुए बिना नहीं रहता कि बुद्धिमान होना और बुद्धिजीवी होना दो भिन्न बातें हैं और उन जैसे कुछ ही लोगों में ये दोनों गुण मणिकांचन संयोग की तरह संयोग से ही मौजूद हो पाते हैं, साफ घोषित कर देते हैं कि वे न संघी हैं, न वामी यानी मार्क्सवादी, न कांग्रेसी, न समाजवादी, न ये, न वो. ऐसा कहकर वे अपने आपको मुक्त घोषित करना चाहते हैं, जो कि वे होते भी हैं, मौका मिलते ही इनमें से किसी के भी साथ हो जाने के लिए.
वैसे न तो संघियों को पता है कि संघी विचारधारा असल में क्या है और न मार्क्सवादियों को कि मार्क्सवाद किस चिड़िया का नाम है. संघी आम तौर पर मार्क्सवादियों की नकल नहीं करते, जबकि मार्क्सवादी अक्सर संघी तौर-तरीके अपनाते दिख जाते हैं.
अस्सी के दशक में राजस्थान विवि, जयपुर में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे एक प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक से मेरी मित्रता थी. मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में उन्हें उनके गृहनगर इटावा के होने के कारण कानपुर विवि का कुलपति बना दिया गया. मैं भी तब तक स्थानांतरित होकर दिल्ली हो हुआ कानपुर पहुंच चुका था.
विवि में आयोजित एक साहित्यिक गोष्ठी में उन्होंने मुझे भी बुलाया. मैंने देखा कि वहां सब एक-दूसरे को ‘पंडिज्जी-पंडिज्जी’ कहकर संबोधित कर रहे थे. मैंने पूछा, मार्क्सवादियों की बैठक में भी ‘पंडिज्जी?’ तो झेंपकर वे बोले, कि अरे यार, क्या करें, आदत पड़ गयी है!
लेकिन सच्चे मार्क्सवादी अगर कोई हैं, तो हमारे देश में स्कूल जानेवाले बच्चों के माता-पिता हैं. वे सभी अपने बच्चों से उनके यूनिट-टेस्टों से लेकर फाइनल एग्जाम तक सभी परीक्षाओं में ज्यादा-से-ज्यादा मार्क्स लाने की अपेक्षा रखते हैं. इसी का नतीजा है कि बच्चों को शत-प्रतिशत मार्क्स लाने पड़ रहे हैं और जो नहीं ला पाते, वे इस नव-मार्क्सवाद की बलिवेदी पर अपनी जान दे देते हैं!