इस महीने उत्तर भारत के अनेक राज्यों में आंधी-तूफान से हुए जानो-माल की खबरें आती रही हैं. दो-तीन मई को पांच राज्यों में 134 लोगों की मौत हुई थी और 400 से अधिक लोग घायल हुए थे. मई के अंत में एक बार फिर से बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के कई इलाके चपेट में आये. सरकारी आकलनों में कम-से-कम 39 लोगों के मरने की खबर है.
राहत और बचाव के भरसक उपाय भी किये जा रहे हैं, लेकिन क्षतिपूर्ति के कदमों को जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या का समाधान नहीं माना जा सकता है. मौसम के बदलाव की गति इतनी तेज है कि पूर्वानुमान और सतर्कता के संदेश खास कारगर नहीं हो पा रहे हैं. इस संदर्भ में कर्नाटक और शिमला के उदाहरण लिये जा सकते हैं.
कर्नाटक के कुछ शहरों में राहत और बचाव के लिए राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) के दस्तों को तैनात करने की नौबत आन पड़ी है. वहां मॉनसून से पहले की बारिश से शहरों में बाढ़ के हालात पैदा हो गये हैं. ऐसी दशा का अनुमान मौसम विभाग समय रहते नहीं लगा पाया था. इसके उलट स्थिति शिमला में है.
अपने सुहावने मौसम के कारण अंग्रेजी शासन के दौर में ‘ग्रीष्मकालीन राजधानी’ का दर्जा हासिल था इस शहर को, लेकिन उसी शिमला में तापमान अबकी बार रिकाॅर्ड ऊंचाई छू रहा है और वहां कई दिनों से पानी की भारी किल्लत हो गयी है. स्थानीय नागरिक सैलानियों से शिमला नहीं आने का आग्रह कर रहे हैं. शिमला में पानी की किल्लत कोई अचानक नहीं पैदा हुई है.
स्थानीय स्वयंसेवी संगठन पारिस्थितिकी के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील माने जानेवाले इस राज्य में हो रहे बड़े निर्माण-कार्यों को लेकर चेताते रहे हैं, परंतु पर्यटन सेवा और बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर हिमाचल के जल-संसाधनों की बेकद्री लगातार जारी है. प्राकृतिक जल-स्रोतों का सूखते चले जाने की समस्या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है.
कई रिपोर्टों में लगातार ध्यान दिलाया गया है कि भारत के कई इलाकों में महाराष्ट्र के लातूर जैसी नौबत आ सकती है. दो साल पहले लातूर में सूखा इतना भयानक था कि वहां लोगों की जान बचाने के लिए विशेष रेलगाड़ियों के जरिये पानी पहुंचाना पड़ा था.
एक शोध का आकलन है कि 2050 तक भारत के एक-तिहाई शहर जल-संकट की चपेट में होंगे. धरती के औसत तापमान में वृद्धि से सीधा रिश्ता है जलवायु परिवर्तन का तथा धरती के औसत तापमान में वृद्धि का संबंध जीवाश्म ईंधन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन पर टिकी हमारी जीवन शैली से है.
आंधी-तूफान, बिन मौसम बरसात, जंगली आग, ओलावृष्टि, बाढ़ तथा सूखे जैसी आपदाएं हमें आगाह कर रही हैं कि प्रकृति के गैरजिम्मेदाराना दोहन पर टिके विकास की हमारी समझ पर पुनर्विचार बहुत जरूरी है. प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन पर आधारित मानव जीवन ही जलवायु-परिवर्तन की समस्याओं से हमारा बचाव कर सकती है.