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तेल उफान पर
पेट्रोल-डीजल की कीमतें रिकाॅर्ड ऊंचाई पर हैं. पांच साल (2013) पहले दिल्ली में 76.24 और मुंबई में 84.07 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल बिका था, पर अब यह रिकॉर्ड टूट चुका है. देश के अन्य हिस्सों में भी यही हाल है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें चढ़ रही हैं, लेकिन 2013 […]
पेट्रोल-डीजल की कीमतें रिकाॅर्ड ऊंचाई पर हैं. पांच साल (2013) पहले दिल्ली में 76.24 और मुंबई में 84.07 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल बिका था, पर अब यह रिकॉर्ड टूट चुका है. देश के अन्य हिस्सों में भी यही हाल है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें चढ़ रही हैं, लेकिन 2013 के मुकाबले दाम अब भी कम हैं. यह कीमत फिलहाल 80 डॉलर प्रति बैरल (एक बैरल में 159 लीटर) से ज्यादा नहीं है.
पांच साल पहले यह कीमत 91 डॉलर प्रति बैरल थी और देश ने 2009 से 2010 के बीच का एक वक्त वह भी देखा है, जब दाम 140 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर हो रहा था. लेकिन, तब देश में डीजल-पेट्रोल की बिक्री इतने महंगे दामों पर नहीं हुई थी. तेल महंगा होने का असर सीधे तौर पर रोजमर्रा की चीजों की कीमतों के साथ वित्त बाजार पर भी होता है.
एक वित्तीय एजेंसी ने आशंका जतायी है कि भारतीय रिजर्व बैंक अगस्त में होनेवाली मौद्रिक नीति समीक्षा में नीतिगत दर में मजबूरन 0.25 फीसदी की बढ़ोतरी कर सकता है, जबकि मानकर चला जा रहा था कि ऐसी वृद्धि 2019 की पहली तिमाही से पहले नहीं होगी.
अगर ऐसा होता है, तो बैंक के कर्जे महंगे हो सकते हैं. सरकार के लिए यह स्थिति चिंता का सबब है. जीवाश्म ईंधन की खपत के मामले में दुनिया के शीर्ष के देशों में शुमार भारत कच्चे तेल पर हाल-फिलहाल अपनी निर्भरता कम नहीं कर सकता है.
तेल की आसमान छूती कीमतों की बढ़ती के बरक्स एक तो सरकार को राजस्व घाटा संभालना होगा और दूसरी तरफ महंगाई को काबू में रखने की जुगत लगानी होगी. देश में 86 फीसदी माल की ढुलाई ट्रकों के जरिये होती है और तेल का खर्च बढ़ने से ढुलाई महंगी होगी. एक सच यह भी है कि लोकसभा के चुनावी दुंदुभि बजने में अब देर नहीं है. ऐसे वक्त में कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि वह महंगाई का खतरा मोल ले.
लेकिन, सरकार के पास विकल्प भी सीमित हैं. सरकार पेट्रोलियम पर सब्सिडी की निर्धारित सीमा बढ़ाकर तेल कंपनियों को घाटे की भरपायी कर सकती है. दूसरा विकल्प है कि तेल कंपनियां खुद ही पहले की तरह सरकार के साथ तेल की चढ़ती कीमतों का बोझ वहन करें और एक हद तक घाटा उठाने के लिए तैयार रहें.
तीसरा विकल्प है कि केंद्र सरकार राज्यों पर बोझ डालने की जगह खुद ही पहल करे और तेल पर आयद शुल्क में कटौती करे. एक आकलन के मुताबिक, तेल पर उत्पाद शुल्क में इजाफे के कारण केंद्र सरकार को 2.42 लाख करोड़ रुपये के राजस्व की आमद हुई, जबकि 2014-15 में यह आंकड़ा 99 हजार करोड़ का ही था.
संतोष की बात है कि सरकार ने कीमतों में कमी के लिए प्रयास तेज कर दिये हैं. पेट्रोलियम मंत्रालय और तेल कंपनियों के साथ बैठक से कुछ राहत की उम्मीद तो है, लेकिन कच्चे तेल की कीमतें अभी लंबे समय तक अस्थिर रह सकती हैं. ऐसे में तात्कालिक उपायों के साथ दामों पर नियंत्रण के लिए दीर्घकालिक रणनीति की जरूरत भी है
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