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ऑफलाइन जिंदगी में आफतें
आलोक पुराणिक वरिष्ठ व्यंग्यकार अमेरिकन कंपनी वालमार्ट ने भारतीय आॅनलाइन कंपनी फ्लिपकार्ट को टेकओवर कर लिया है. इस अवसर पर क्रिएटिव विवि ने ऑनलाइन शापिंग विषय पर लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया. इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार विजेता लेख इस प्रकार है- खरीदारी का हमारी जिंदगी में बहुत ही महत्व है. हम जीते क्यों हैं, […]
आलोक पुराणिक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
अमेरिकन कंपनी वालमार्ट ने भारतीय आॅनलाइन कंपनी फ्लिपकार्ट को टेकओवर कर लिया है. इस अवसर पर क्रिएटिव विवि ने ऑनलाइन शापिंग विषय पर लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया. इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार विजेता लेख इस प्रकार है-
खरीदारी का हमारी जिंदगी में बहुत ही महत्व है. हम जीते क्यों हैं, खरीदारी के लिए, हम मरते भी खरीदारी के चक्कर में ही हैं. एपल का फोन खरीदना है, बड़ी कार खरीदनी है.
इनकी इएमआइ देने में ही जिंदगी निकल जाती है. औसत वेतनभोगी अपने लिए नहीं एपल फोन कंपनी या किसी कार कंपनी के लिए ही कमाता है. बची-खुची रकम उस शाॅपिंग माल में स्थापित सिनेमा हाॅल का पापकाॅर्न वाला ले जाता है, जो एक कप पापकाॅर्न के इतने पैसे ले जाता है, जितने में दादीजी की शादी में बारातियों को खिलाने का खर्च निकल जाता था.
आज बंदा इतना सामान खरीद लाता है कि घर में रखने की जगह नहीं बचती. इएमआइ के भुगतान के टेंशन में बंदे को बीपी से लेकर डायबिटीज हो लेती है. मर लेता है आदमी. और अगर मरता नहीं है, तो दवाइयां खरीदने लगता है.
ज्यादा चिंतित हो जाये, तो तमाम इंश्योरेंस कंपनियां तरह-तरह की इंश्योरेंस पाॅलिसियां उसे बेच जाती हैं. बंदे का जन्म जॉनसन एंड जॉनसन के डाइपर की खरीद के साथ हो सकता है और दि एंड किसी ब्रांडेड कफन की खरीदारी के साथ हो सकता है.
अब तो कफन तक ब्रांडेड आ गये हैं. कई जगह तो बंदे की हैसियत का अंदाजा इस बात से होता है कि उसके जाने के बाद उसके बच्चों ने चालू सा कफन ओढ़ा दिया था या कोई ब्रांडेड कफन लगाया गया था. बंदा जब जीता ब्रांडों में है, तो मौत भी ब्रांडशुदा होनी चाहिए!
पुराने वक्त में बंदा बाजार जाया करता था. इस प्रविधि से कई बार खरीदारी को टालने में मदद मिलती थी. मतलब जैसे पुराने लोग अपनी मां से कहते थे कि एक स्कूल बैग दिलाओ. मां बताती थी- मेन शहर में स्थित स्कूल बैग के शोरूम में जब जायेंगे, तब ले आयेंगे बैग.
बच्चा धैर्य करके बैठ जाता था. अब बच्चा आॅनलाइन मोबाइल पर एक हजार बैग तलाश कर बता देता है कि ये ले शोरूम यहीं आ लिये. आॅनलाइन शापिंग के चक्कर में पेरेंट्स के लिए यह झूठ बोलना तक मुश्किल हो गया है कि पता किया था शोरूम पर सारे बैग खत्म हैं. नये बैग अगले महीने आयेंगे, तब खरीदेंगे. आॅनलाइन ने झूठ बोलने में बाधाएं खड़ी कर दी हैं. झूठ न बोलने से बंदा परेशान हो जाता है, यह सामाजिक सत्य लगभग सभी जानते हैं.
पहले बंदा झूठ बोल लेता था कि पैसे नहीं हैं. अब तो मोबाइल पर हर बैंक ने ऐसी सुविधा दे दी है कि एक मिनट में बैलेंस चेक कर लो. आप कह रहे हैं कि पैसे नहीं है? बच्चे मोबाइल पर चेक करके दिखा रहे हैं, आपको तो पता ही नहीं है कि आपके बैंक में इतना बैलेंस है. चलो ये सारे पैसे हमारे. इस तरह से हम कह सकते हैं कि आॅनलाइन ने हमारी आॅफलाइन जिंदगी में कई आफतें मचा दी हैं.
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