देश में सबसे बड़ा व ऐतिहासिक, 16वीं लोकसभा का चुनाव संपन्न हो गया है. विभिन्न पार्टियों ने अपने मंच से महिला सशक्तीकरण और उनके उत्थान को लेकर कई वादे किये, लेकिन जिस तरीके से सभी पार्टियों ने महिलाओं को टिकट देने से गुरेज किया, इसे देख कर एक बात तो स्पष्ट लगती है कि हमारे देश में महिलाओं के प्रति आदर्श विचारधारा कहीं खो सी गयी है.
दूसरी ओर, जिस तरह विज्ञापन के जरिये अश्लीलता हमारे घरों में प्रवेश कर रही है, वह बेहद शर्मनाक है. विज्ञापनदाता महिलाओं को मनोरंजन और आकर्षण की वस्तु बना कर पेश कर रहे हैं. किसी भी विज्ञापन में महिलाओं को गलत ढंग से पेश करना मानो इनकी मजबूरी हो गयी है. मेरा सवाल है कि क्या ऐसा करना जरूरी है? महिलाओं के विज्ञापन में न होने से क्या सामान नहीं बिकेंगे? फिल्म जगत का भी महिलाओं के प्रति रवैया विज्ञापनों जैसा ही है. जिन 35 प्रतिशत युवाओं की बदौलत हमारा देश युवाओं का देश कहलाता है, क्या आज हम उन्हीं युवाओं को गलत संदेश नहीं दे रहे?
क्या हमारा सूचना एवं प्रसारण विभाग युवाओं के भविष्य के प्रति यही नकारात्मक संदेश देना चाहता है? हमारे देश के सेंसर बोर्ड पर तो पहले से ही प्रश्नचिह्न् लगता रहा है, लेकिन इतने बड़े चुनाव में भी सभी पार्टियां इस मुद्दे पर मौन दिखीं. इसको लेकर महिला आयोग पर भी गंभीर प्रश्न उठते हैं, क्योंकि यह संस्था महिला प्रताड़ना के खिलाफ जम कर आवाज बुलंद करती है, मगर महिलाओं को ईलता से जोड़ने पर अपना मुंह बंद रखती है. एक बात तो तय है कि आज के बदलते सामाजिक परिवेश में हम जिस तरीके से पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं, वह हमारे सामाजिक तंत्र के लिए घातक साबित होगा. सैंकी गुप्ता, गोमो