।। पंकज श्रीवास्तव ।।
– श्याम रुद्र पाठक ने इधर अदालतों में भारतीय भाषाओं को अहमियत दिलाने की मुहिम छेड़ी है. ये उनकी नजर में भावुकता या भाषा को लेकर किसी अभिमान-स्वाभिमान का प्रश्न नहीं है. उनकी नजर में जनता को जनता की भाषा में न्याय मिले, यह जनतंत्र की बुनियादी शर्त है. लेकिन इसमें बाधा है संविधान का अनुच्छेद 348, जो कहता है कि देश के उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में अंगरेजी भाषा में ही कामकाज होगा. –
तारीख थी 17 अप्रैल. शाम के करीब साढ़े छह बज रहे थे. जगह थी 24 अकबर रोड यानी दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय. लोगों ने देखा कि दफ्तर के बाहर मौजूद, अधेड़ से दिख रहे दाढ़ीवाले एक शख्स ने अचानक नारेबाजी शुरू कर दी. साथ में तीन-चार लोग और थे. नारेबाजी से गेट पर पुलिसवालों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. दफ्तर में राहुल गांधी किसी बैठक में शामिल होने आये थे. लिहाजा पुलिसवाले तेजी से झपटे. दाढ़ीवाले सज्जन जल्द ही जमीन पर पड़े नजर आये. उनके सिर और बाकी बदन पर पुलिस के बूट निशान बन रहे थे. अंधेरा छा गया था. घटना का कोई निशान बाकी न रहा. न्यूज चैनलों और लगभग सारे अखबारों से भी ये खबर गायब थी.
ये दुर्व्यवहार जिनके साथ हुआ, उनका नाम है श्याम रुद्र पाठक. वे और उनके साथी जो नारा लगा रहे थे, वह था- ‘‘हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की इजाजत दो, ..संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन करो.’’ 50 साल के श्याम रुद्र पाठक इस मांग के साथ पिछले साल 4 दिसंबर से रोजाना 24 अकबर रोड पर धरना देते हैं. शाम को पुलिस उन्हें हिरासत में ले लेती है और रात तुगलक रोड थाने में बीतती है.
चूंकि 24 घंटे तक हिरासत में रखने पर मुल्जिम को अदालत में पेश करना जरूरी है, लिहाजा सुबह पुलिस उन्हें छोड़ देती है. वे फिर कांग्रेस मुख्यालय पहुंच जाते हैं. यह सिलसिला महीनों से जारी है. लेकिन सूचना विस्फोट के युग में सोशल मीडिया में चंद कोशिशों के अलावा इस अनोखे सत्याग्रह की कहीं कोई खबर नहीं है. कुछ किलोमीटर व्यास में मौजूद हिंदी के तमाम ग्रहों-नक्षत्रों के मठों में भी कोई चर्चा नहीं है.
श्याम रुद्र पाठक अपने इस अभियान में जैसा जज्बा दिखा रहे हैं, उसे खाये-अघाये लोग पागलपन कहेंगे. लेकिन समाज विज्ञान को समझनेवाले जानते हैं कि भारतीय भाषाओं की लड़ाई दरअसल जनतंत्र को उसकी मंजिल पर पहुंचाने की लड़ाई है. झारखंड के मशहूर नेतरहाट आवासीय विद्यालय के विद्यार्थी रहे श्याम रुद्र पाठक ने 1980 में आइआइटी प्रवेश परीक्षा पास की थी. तब वह 11वीं के छात्र थे. उनका प्रवेश आइआइटी, दिल्ली में हुआ. उन्हें यह बात हमेशा सालती थी कि आइआइटी में वही बच्चे प्रवेश पा सकते हैं जो अंगरेजी में पारंगत हों. इसकी वजह से गरीब घरों के बच्चे आइआइटी नहीं पहुंच पाते थे. उन दिनों देश के 92 फीसदी विद्यार्थी भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूली पढ़ाई करते थे और आइआइटी में 92 फीसदी प्रवेश अंगरेजी विद्यालयों के बच्चों का होता था.
यह परिदृश्य श्याम रुद्र पाठक को इस कदर परेशान कर रहा था कि विरोध जताने के लिए बीटेक के आखिरी साल उन्होंने अपनी अंतिम प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में लिखने का फैसला किया. जाहिर है, हंगामा मच गया. आइआइटी ने डिग्री देने से मना कर दिया. लेकिन श्याम जी झुकने को तैयार नहीं हुए. किसी तरह यह मुद्दा अखबारों तक पहुंच गया.
उन दिनों अखबारों की नजर में ऐसे मुद्दों की अहमियत थी. लिहाजा खबर फैली और मामला संसद में भी गूंजा. प्रतिक्रिया ऐसी हुई कि आखिरकार आइआइटी को उनका हिंदी में लिखा प्रोजेक्ट स्वीकार करना पड़ा. लेकिन इस सफलता ने इंजीनियर बन चुके श्याम रुद्र पाठक की दुनिया बदल दी. उन्होंने विदेश जाकर पैसा कमाना नहीं, देश की गाड़ी को भारतीय भाषाओं के इंजन से जोड़ना अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. 1985 में उन्होंने एमटेक प्रवेश परीक्षा में टॉप किया. इसके साथ ही भारतीय भाषाओं में आइआइटी की प्रवेश परीक्षा कराने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया. तमाम धरने-प्रदर्शन के बाद आखिरकार 1990 से आइआइटी की प्रवेश परीक्षा हिंदी में भी होने लगी.
श्याम रुद्र पाठक ने इधर अदालतों में भारतीय भाषाओं को अहमियत दिलाने की मुहिम छेड़ी है. ये उनकी नजर में भावुकता या भाषा को लेकर किसी अभिमान-स्वाभिमान का प्रश्न नहीं है. उनकी नजर में जनता को जनता की भाषा में न्याय मिले, यह जनतंत्र की बुनियादी शर्त है. लेकिन इसमें बाधा है संविधान का अनुच्छेद 348, जो कहता है कि देश के उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालयों में अंगरेजी में ही कामकाज होगा. यह बात किसी से छिपी नहीं कि देश की बमुश्किल तीन फीसदी आबादी ही अंगरेजी पढ़-लिख सकती है.
नतीजा यह है कि कानून के क्षेत्र में इसी अभिजात वर्ग का कब्जा है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकील बन पाना इन्हीं तीन फीसदी लोगों के बस की बात है. ये अपनी हैसियत का फायदा एक-एक पेशी के लिए लाखों की फीस वसूल कर उठाते हैं. आम तौर पर मुवक्किल समझ ही नहीं पाता कि वकील साहब अदालत में कैसी दलील दे रहे हैं. अंगरेजी की वजह से आम हिंदुस्तानी खुद अपना मुकदमा लड़ पाने के संवैधानिक अधिकार का भी इस्तेमाल नहीं कर पाता.
न्याय एवं विकास अभियान के संयोजक श्याम रुद्र पाठक की नजर में इस समस्या का समाधान संविधान संशोधन से हो सकता है. संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) के उपखंड (क) में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय और सभी उच्च न्यायालयों में सारी कार्यवाहियां अंगरेजी में होंगी. नतीजा यह है कि देश के 17 उच्च न्यायालयों में अंगरेजी का बोलबाला है. हालांकि इसी अनुच्छेद के खंड (2) में यह भी कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल, उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी या उस राज्य की राजभाषा के प्रयोग की अनुमति राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से दे सकता है. लेकिन आजादी के 65 बरस बाद सिर्फ चार राज्यों के उच्च न्यायालयों में ऐसा हो पाया है.
शुरुआत हुई थी राजस्थान से, जहां के उच्च न्यायालय में 1950 से हिंदी का प्रयोग हो रहा है. इसके बाद 1970 में उत्तर प्रदेश, 1971 में मध्यप्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालय में हिंदी को जगह मिली. लेकिन फिर जैसे भारतीय भाषाओं का मुद्दा ही भुला दिया गया. 21वीं सदी की शुरुआत में छत्तीसगढ़ में सुगबुगाहट हुई. 2002 में छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने उच्च न्यायालय में हिंदी के प्रयोग की अनुमति राष्ट्रपति से मांगी.
2010 में तमिलनाडु सरकार की ओर से हाइकोर्ट में तमिल और 2012 में गुजरात सरकार की ओर से गुजराती के प्रयोग की इजाजत राष्ट्रपति से मांगी गयी. लेकिन केंद्र (जिसकी राय से राष्ट्रपति फैसला करते हैं) ने मांग ठुकरा दी. गौरतलब है कि 2002 में एनडीए का शासन था और 2004 के बाद यूपीए का शासन है. यानी सत्तारूढ़ गंठबंधन की शक्ल बदली, लेकिन केंद्र की नीयत नहीं बदली. भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की गुहार करनेवाली राज्य सरकारों के लिए भी इसका प्रतीकात्मक महत्व ही रहा. वरना, वे इसे राजनीतिक मुद्दा भी बना सकती थीं.
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की मांग को व्यावहारिक जामा पहनाना बड़ा झंझटी काम होगा. संसाधनों का भी सवाल उठाया जाता है. लेकिन न्याय एवं विकास अभियान का कहना है कि जब संसद में अंगरेजी के अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज सभी भारतीय भाषाओं में बोलने का अधिकार है और उनके तत्क्षण अनुवाद की व्यवस्था है, तो अदालतों में भी ऐसा किया जा सकता है.
संविधान के अनुच्छेद 348 (1) में संशोधन करके यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंगरेजी के अलावा कम से कम एक भारतीय भाषा में होगी. इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंगरेजी के अलावा कम से कम तमिल, कर्नाटक में कम से कम कन्नड़ और छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्यों के उच्च न्यायालयों में अंगरेजी के अलावा कम से कम हिंदी की व्यवस्था होनी चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय में अंगरेजी के अलावा कम से कम हिंदी के प्रयोग की अनुमति होनी चाहिए. फिर सभी भारतीय भाषाओं की दिशा में भी उपाय करने चाहिए.
आंदोलनकारियों का कहना है कि संसाधनों का प्रश्न भी टालू रवैये की उपज है. निचली और जिला अदालतों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनमति है. ऐसे में जब वहां से कोई मुकदमा उच्च न्यायालयों में जाता है तो सभी दस्तावेजों और फैसलों का अंगरेजी अनुवाद किया जाता है. इसमें काफी श्रम, समय और धन का अपव्यय होता है.
अगर भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की अनुमति हो जायेगी तो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही अनुवाद की व्यवस्था करनी होगी, वह भी सिर्फ गैर हिंदी क्षेत्रों से आये मुकदमों के लिए. भारतीय भाषाओं में न्याय पाने का इंतजाम न होना संविधान के अनुच्छेद 39 (क) का भी उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि कानून का तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और किसी भी असमर्थता के कारण कोई नागरिक न्याय पाने के अवसर से वंचित न रह जाये.’’
जाहिर है, श्याम रुद्र पाठक और उनके साथी एक अहम मुद्दे को लेकर मोरचे पर हैं? लेकिन देश की 97 फीसदी जनता से वास्ता रखनेवाले इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक पार्टियों का रवैया चौंकानेवाला है. आंदोलनकारियों ने सोनिया गांधी को इस मुद्दे पर क ई पत्र लिखे. हुआ बस यह कि कांग्रेस सांसद आस्कर फर्नांडीज ने 25 सितंबर 2012 को तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का सिफारिशी पत्र लिख दिया.
उधर, लगातार कोशिशों के बावजूद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज ने साढ़े चार महीनों में मिलने का वक्त ही नहीं दिया. यह वही पार्टी है जो हिंदी का मुद्दा कभी अपने एजेंडे में काफी ऊपर रखती थी. वैसे आम तौर पर हिंदी या भारतीय भाषाओं के सवाल को ज्यादा अहमियत न देनेवाले वामपंथी दलों का सुर बदलता दिख रहा है.
आंदोलनकारियों का कहना है कि माकपा के वरिष्ठ नेता वासुदेव आचार्य से उन्हें भरपूर समर्थन मिल रहा है. साथ ही डीएमके सांसद आदिशंकर ने भी इस विचार का समर्थन किया है कि हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भारतीय भाषाओं को जगह मिले. आइएएस प्रवेश परीक्षा में जिस तरह पिछले दिनों अंगरेजी के खिलाफ भारतीय भाषाओं ने एकजुटता के साथ मोरचा खोला था, उसका असर दिख रहा है.
आखिर में, पाठकों को इस जिज्ञासा का जवाब कि श्याम रुद्र पाठक की पिटाई करनेवालों के खिलाफ क्या कोई कार्रवाई हुई. वह धरने का 135वां दिन था जब एएसआइ सतवीर और सिपाही ओमप्रकाश ने पाठकजी के साथ दुव्यर्वहार किया था. लेकिन रात में दोनों ने उनसे माफी मांग ली. तुगलक रोड थानाध्यक्ष अजय कुमार गुप्ता ने भी शर्मिंदगी जताते हुए माफी मांगी. चूंकि सतवीर के रिटायर होने में तीन-चार महीने का वक्त ही बाकी रह गया है और उसने माफी भी मांग ली, इसलिए आंदोलनकारियों ने एफआइआर का इरादा छोड़ दिया. लेकिन बात शायद सिर्फ इतनी ही नहीं थी. श्याम रुद्र पाठक की आंखों में झांक कर देखिए तो पता चलता है कि हिंदी समाज से मिल रही उपेक्षा उन्हें ज्यादा तकलीफ दे रही है. यह घाव कहीं गहरा है. इसके सामने पुलिस की पिटाई कुछ नहीं है.
(जनमत से साभार)