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वाह-वाह, रामजी!
सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार आंबेडकर जयंती आनेवाली है और सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा उसे धूमधाम से मनाने की सूचना देनेवाले पोस्टर दिखने लगे हैं. हालत यह हो गयी है कि उनका धूम यानी धुआं पूरे धरा-धाम पर छाने लगा है. प्रसंगवश, धुएं के अर्थ में ‘धूम्र’ का प्रयोग गलत है और असली शब्द है […]
सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
आंबेडकर जयंती आनेवाली है और सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा उसे धूमधाम से मनाने की सूचना देनेवाले पोस्टर दिखने लगे हैं. हालत यह हो गयी है कि उनका धूम यानी धुआं पूरे धरा-धाम पर छाने लगा है. प्रसंगवश, धुएं के अर्थ में ‘धूम्र’ का प्रयोग गलत है और असली शब्द है ‘धूम’, जो हरियाणवी जैसी भाषाओं में जाकर ‘धुम्मा’ ठा (उठा) रहा है.
ऐसे पोस्टरों में सबसे आकर्षक पोस्टर वे लगते हैं, जिनमें देश-प्रदेश के छोटे-बड़े नेताओं तक सबकी तस्वीर नजर आती है, नहीं आती तो बाबा साहब की ही. सोशल मीडिया पर घूम रहे एक पोस्टर के नीचे किसी दिलजले ने लिखा है कि इसमें आंबेडकर की तस्वीर ढूंढ़िए और 15 लाख रुपये का नकद पुरस्कार पाइए! और ये 15 लाख रुपये वही लगते हैं, जो हरेक को मिलनेवाले थे, पर शायद मिले सिर्फ इन्हीं को.
सत्ताधारी दल आंबेडकर की जयंती ही नहीं, निर्वाण-दिवस भी धूमधाम से मनाता है. बाबरी मस्जिद उसी दिन ढहाये जाने के बाद तो यह और पक्का हो गया. अब उनके नाम के बीच में रामजी को लाकर उसने जता दिया है कि वे किसी और के नहीं, साक्षात रामजी के पुत्र थे!
इससे उनकी भी महिमा बढ़ी और रामजी की भी. भक्तगण गा सकते हैं- वाह-वाह, रामजी!
इतना करने के बाद भी दलित उनसे भड़के हुए हैं. दुर्भाग्य से इसके लिए आंबेडकर ही जिम्मेदार हैं. अगर वे उन्हें ‘शिक्षित बनो, संगठित होओ और संघर्ष करो’ जैसी शिक्षा न देते, तो दलितों को यह सब सूझता तक नहीं. शिक्षा आदमी को खुराफाती बना देती है.
शिक्षित होते ही दलित को लगता है कि उसके साथ जो भी दूसरों द्वारा किया जा रहा है, वह जुल्म है, और अब तक वह जिस स्थिति को अपने कर्मों का फल समझकर सब्र करता आया है, उससे विद्रोह करने लगता है. शिक्षित होने पर वह नौकरी पाकर धन भी कमाने लगता है, जिससे उसके मन में दूसरे वर्गों के साथ बराबरी करने की चाह भी पैदा हो जाती है.
वह दूसरों का मैला साफ करने से मना कर देता है, अपनी शादी में बारात निकालना चाहता है, घोड़ी चढ़ना चाहता है. अरे भाई, शादी जैसी जिल्लत सवर्णों के लिए ही क्यों नहीं छोड़ देते? और अगर मन नहीं मानता शादी किये बिना, तो घोड़ी ही चढ़ने की जिद क्यों? कोई और जानवर ट्राई कर लेते!
शिक्षित होने का ही नतीजा है कि दलित लोग सरकार के फैसलों में उसकी मंशा ताड़कर आंदोलन करने पर उतारू हो जाते हैं. अब एससी-एसटी एक्ट में बदलाव जैसे मुद्दों पर भी आंदोलन होने लगे, तो भला, आंदोलन की उस गरिमा का क्या होगा, जो करणी सेना आदि ने बमुश्किल उसे प्रदान की है?
बाबा साहब ने दलितों को सिर ऊंचा कर जीने का मौका देने वाला संविधान बनाकर भी समाज की समरसता बिगाड़ी है और दलितों को दूसरों के समान बनाकर समाज में असमानता पैदा की है, इस बात को जब्त कर सरकार उनकी जयंती धूमधाम से मना रही है, यह क्या कोई कम बड़ी बात है?
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