।। जावेद इस्लाम।।
(प्रभात खबर, रांची)
‘‘पता नहीं क्यों आर्थिक मामलों के मंत्री को वित्त मंत्री कहने का रिवाज है? वित्त मंत्री को अर्थ मंत्री क्यों नहीं कहा जाता? हो सकता है, जिन लोगों ने वित्त मंत्री शब्द गढ़ा हो, वे ज्यादा दूरंदेश रहे हों! ताड़ लिया हो कि अर्थ मंत्री कहलाने से उसका मजाक उड़ाये जाने का खतरा हो सकता है. मसलन, अर्थव्यवस्था की दुर्गति होने पर लोगबाग अर्थ मंत्री को कहीं अनर्थ मंत्री न कहने लगें. जैसे आजकल के कई अर्थशास्त्रियों को लोग अनर्थशास्त्री कहते हैं. अर्थ मंत्री को जनता के ऐसे व्यंग्य बाणों से बचाने के लिए ही वित्त मंत्री शब्द गढ़ा गया.’’ श्रीराम चाचा ने लंबा वक्तव्य देकर मुझसे सवाल किया, ‘‘क्यों, यही सच है न?’’
मैं भला क्या जवाब देता? मेरा सामान्य ज्ञान तो श्रीराम चाचा और रहीम चाचा से भी कमतर है. मुङो चुप पाकर चाचा ही बोले-‘‘खैर जाने दो, शेक्सपीयर की ही बात सही मान लेते हैं कि नाम में क्या रखा है. आजकल एक वर्तमान और एक भूतपूर्व वित्त मंत्री की मीडिया में एक दूसरे की लुंगी-पतलून उतारने की प्रतियोगिता देख कर बड़ा मजा आ रहा है. यदि आज वित्त मंत्री को अर्थ मंत्री कहने का चलन होता, तो क्या ये दोनों महाशय अनर्थ मंत्री नहीं कहलाते? भले ये आज अपने आंकड़ों को उपलब्धि और दूसरे के आंकड़ों को फरजीवाड़ा बताने में मशगूल हों, पर क्या यह सच नहीं है कि दोनों महाशय अपने कार्यकाल में आम आदमी के साथ फरजीवाड़ा ही करते रहे? यकीन नहीं हो, तो आम आदमी की जिंदगी की परेशानियों को देख लो. जीडीपी बढ़ रहा है, हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बन गये हैं, पर आम आदमी तो आज भी रोटी-दाल के लिए मोहताज है.’’
चाचा अपनी रौ में थे- ‘‘एक बात अच्छी तरह से गांठ बांध लो भतीजे, आंकड़ों के ये शेर फरजी आंकड़ों से चाहे जितना खेल लें, मीडिया में चाहे जितनी फरजी मुठभेड़ कर लें, हैं सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे. इनके डर भी एक से हैं. तभी तो इस लोकसभा चुनाव में आम मतदाताओं के डर से दुम दबा कर भाग खड़े हुए. अपनी जगह अपने ‘सुपुत्रों’ को भेज दिया है, वोटरों के सामने. चलिए, कम से कम अपनी-अपनी पार्टी में वंशवाद को मजबूत करने में अपना योगदान तो दिया! अकेला गांधी परिवार ही मजबूत राजनीतिक घराना क्यों बना रहे! एक और पूर्व वित्त मंत्री हैं, जो पिछले दस सालों से प्रधानमंत्री की कुरसी पर जमे हैं.
हालांकि अब कुरसी से उखड़ने वाले हैं. उन्होंने वर्षो की राजनीतिक यात्र में कभी मतदाताओं का सीधा सामना न किया. जब अपने उत्कर्षकाल में नहीं कर पाये, तो अब विदाई काल में भला क्या खा कर करते!’’ फिर चाचा कुछ सोच कर बोले- ‘‘एक बात बताओ भतीजे, पूंजीपतियों के इतने चहेते रहे इन नव-उदारवादी शेरों को निरीह वोटरों से इतना डर क्यों लगता है?’’ अब आप ही बताइए कि मैं इस सवाल का उन्हें क्या जवाब दूं?