कभी-कभार कोई व्यक्ति सजा में नरमी की उम्मीद से गुनाह कबूल कर लेता है. करनी पर पछतावे की सूरत में भी अपराधी अपना दोष स्वीकार करता है. बहुधा ऐसा भी होता है कि अपराधी एकदम नाउम्मीद हो जाये, उसे कहीं से कोई सहायता मिलती न दिखे और वह मजबूरी में अपराध स्वीकार करे. नीरव मोदी की कथित चिट्ठी में ऐसी कोई स्थिति नहीं है.
उसमें स्वर चुनौती का है कि दोष उसका नहीं, बल्कि उसको दोषी ठहरानेवाली व्यवस्था का है. हर स्थिति में बिना सजा के बच निकलने के भरोसे के बगैर ऐसी चिट्ठी लिखना मुमकिन नहीं है. इस बात पर सोच-विचार किया जाना चाहिए कि वे कौन-सी ऐसी ताकतें होती हैं, जिनके बूते किसी अपराधी के भीतर व्यवस्था से ऊपर और हमेशा बगैर दंडित हुए रहने का भरोसा पैदा होता है.
डॉ हेमंत कुमार, इमेल से