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हवा बौराई सी लगती है!

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार कक्का कहते हैं कि जादू से कुछ भी नहीं होता. चीजें धीरे-धीरे बदलती हैं. जैसे डेढ़-दो महीने तक यह बौराई हवा बहेगी, तब जाकर गेहूं पर रंग सुनहरा छायेगा और वह अन्न के रूप में आंगन में उतरेगा. कक्का ठीक कहते हैं. हवा को गौर से देखिये. इन दिनों यह […]

मिथिलेश कु. राय

युवा रचनाकार

कक्का कहते हैं कि जादू से कुछ भी नहीं होता. चीजें धीरे-धीरे बदलती हैं. जैसे डेढ़-दो महीने तक यह बौराई हवा बहेगी, तब जाकर गेहूं पर रंग सुनहरा छायेगा और वह अन्न के रूप में आंगन में उतरेगा. कक्का ठीक कहते हैं. हवा को गौर से देखिये. इन दिनों यह कैसी-कैसी हरकतें कर रही है. सड़क पर धूल उड़ा रही है. वृक्षों की शाखों को डुला रही है. कभी पश्चिम से बहने लगती है. कुछ देर ठिठकती है.

फिर पूरब से बहने लगती है. जब पूरब से बहने लगती है, तो लगता है कि मेघ छाने लगे हैं. देह में आलस भर जाता है. माहौल ठंडा हो जाता है और धरती पर छांव पसर आती है. लेकिन, फिर हवा थम जाती है और जब पुनः शुरू होती है, लोग महसूसते हैं कि वह पश्चिम से बहने लगी है. क्षण में पासा पलट जाता है. आसमान में बादल का जो भ्रम तैर रहा था, वह छूमंतर हो जाता है और सूर्य ठठाकर हंसने लगता है.

सूर्य जब मुस्कुराता है, तब धूप मीठी लगती है. जब वह ठठाकर हंसता है, तब धूप की तासीर तीखी हो जाती है. लोग महसूस करते हैं कि हवा जो बह रही है, उसमें सूर्य का ही सब मिला हुआ है.

सूर्य के पास है भी क्या- सिवाय गर्म एहसास के. पछिया जब जोर-जोर से बहने लगती है, तो लोगों को लगता है कि उनके चेहरे तेजी से सूख रहे हैं. उन्हें ऐसा भी लगता है कि सूखने की क्रिया को पछिया सर्वत्र अंजाम दे रही है. लोग घर से निकलते हैं और ऐसा लगता है कि हवा उन्हें खदेड़ने के लिए उसके पीछे भागी चली आ रही है. हवा उसे आगे से भी घेरने की कोशिश कर रही है.

लोग तनिक ठहरकर या सिर को तौलिये में लपेटकर अपने आप को सुरक्षित करने का जतन करते हैं. लेकिन, तब भी हवा थोड़ी सी धूल उसकी देह पर डाल ही देती है. इसका वे बुरा नहीं मानते. फागुन है. हवा होली खेल रही है. लोग ऐसा सोचते हैं और आगे बढ़ जाते हैं कि अभी इस हवा की जरूरत है.

कक्का कह रहे थे कि प्रत्येक साल यह हवा अपने तय समय पर आ जाती है. यह कुछ काम को अंजाम देने आती है. सावन आने के बाद यह लौट जाती है. वे कह रहे थे कि जब यह आती है, तो लगता है कि फागुन आ गया है. फागुन आने का मतलब अन्न के पकने के समय का आना होता है. कक्का कह रहे थे कि होली के बाद चैत से गेहूं की कटाई शुरू हो जाती है.

चैत आते-आते गेहूं का रंग हरा से सुनहरा हो जाता है. यह रंग सुनहरा गेहूं को पछिया ही देती है. कक्का ने बताया कि जब होली के दिन नजदीक आते हैं पछिया खेतों में उतर जाती है और फसल को थिरकने के लिए एक ताल देती है. फसल ऐसे झूमती रहती है, जैसे सावन में मोर नाचता रहता है. इसी दृश्य को देखकर सूर्य की खुशी का ठिकाना नहीं रहता है और वे ठठाकर हसने लगते हैं. तब सूर्य और पछिया आपस में मिल जाते हैं और गेहूं पकाने के काम में लग जाता है.

दीवानी होकर बह रही पछिया को लोग महसूसते हुए अपने खेतों की ओर निहारते हैं और वहां फैल रहे रंग सुनहरे को देखकर मन ही मन हर्षित होते रहते हैं!

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