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चुनावी जुमलों में सिमटता जनतंत्र

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू हमें अपने बदलते समाज को समझने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम सचेत रह सकें. यह कहना कठिन है कि हम बदलाव की दिशा को कितना प्रभावित कर सकते हैं. लेकिन, यदि बदलाव का संज्ञान रहेगा, तो शायद हमारा जीवन बेहतर हो सकेगा. आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण […]

मनींद्र नाथ ठाकुर

एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू

हमें अपने बदलते समाज को समझने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम सचेत रह सकें. यह कहना कठिन है कि हम बदलाव की दिशा को कितना प्रभावित कर सकते हैं. लेकिन, यदि बदलाव का संज्ञान रहेगा, तो शायद हमारा जीवन बेहतर हो सकेगा. आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह हो रहा है कि जिसे हम पूंजीवाद कहा करते थे, उसकी जगह अब कोई और व्यवस्था उभर रही है. हालांकि, पूंजीवाद के पुरोधा चिंतकों ने इसकी कल्पना लोक कल्याण के लिए की थी.

जॉन लॉक का मानना है कि प्राकृतिक संपदा किसी की निजी संपत्ति नहीं है, उस पर हम सबका अधिकार है. लेकिन, उसे कुछ लोगों के निजी हाथों में देने से उसका विस्तार हो सकता है और यह जनहित में होगा. इसी तरह एडम स्मिथ ने भी कहा है कि बाजार व्यवस्था में लोग अपनी क्षमताओं का भरपूर उपयोग करेंगे और उन्हें उनकी उचित कीमत मिलेगी, इससे राष्ट्र की कुल आय में बहुत वृद्धि होगी. इन दोनों के अनुसार आय में वृद्धि का होना पूंजीवाद के लिए जन स्वीकृति का कारण भी था. इसी तरह समानता स्वतंत्रता और भ्रातृत्व को नये समाज का मूल मंत्र माना गया.

लेकिन, धीरे-धीरे व्यवस्था बदल रही है. पूंजीवाद के दार्शनिकों का मूलमंत्र कहीं खो गया है. अब पूंजी निरंकुश होता जा रहा है. जब-जब पूंजीवाद का संकट आया, उसकी बचाव के नाम पर उसके स्वभाव में परिवर्तन आया. 19वीं सदी के संकट में उपनिवेशवाद आया और हमें प्रथम विश्व युद्ध देखना पड़ा. 20वीं सदी के उत्तरार्ध में आये संकट ने पूंजी को युद्ध के लिए अस्त्र-शस्त्र के उत्पादनों में लगा दिया.

और फिर हमें दूसरे विश्व युद्ध का सामना करना पड़ा. अब पूंजी लगभग निरंकुश है, इन दार्शनिकों की कल्पना से परे है. 21वीं सदी के प्रारंभ में आये संकट ने तो मानव के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न कर दिया है. जनतंत्र को सीमित कर दिया गया है चुनावों तक. चुनावों को प्रबंधन का विषय बना दिया गया है. चुनाव के समय किसी एक मुद्दे को इस तरह प्रभावशाली कर दिया जाता है कि हम बाकी मुद्दों को भूल जाते हैं और चुनाव के बाद वह मुद्दा ही गौण हो जाता है. राज्य भी अब पूंजी के साथ लगभग मिल गया है. राज्य अब पूंजी के लिए काम करता है.

एक नये तरह का पूंजीवाद पैदा हो रहा है. हो सकता है कि उसे पूंजीवाद के बदले कुछ और कहना ठीक होगा- तकनीकी पूंजीवाद या फिर अधिनायक पूंजीवाद. क्योंकि, तकनीक का आज जिस तरह से विकास हो रहा है और पूंजी उसका जिस तरह से उपयोग करेगा, उससे नौकरियां तो घटेंगी ही, संभव है हमारी सामान्य गतिविधियों पर भी अंकुश लगाया जाये. अब यह तो तय है कि हमारी हर गतिविधि पर नजर रखी जा रही है. हम किस तरह का खाना खाते हैं, बाजार में क्या खरीदते हैं, इंटरनेट पर क्या देखते हैं, सोशल साइट्स पर क्या पसंद और नापसंद करते हैं, यह सब हमारे व्यवहार के बारे में उपलब्ध डाटा है.

और इसके विश्लेषण से हमारे व्यवहार को पूरी तरह से समझा जा सकता है. राज्य यदि हमारे खिलाफ कोई कदम उठाना चाहे, तो हमारे व्यक्तिगत जीवन की इन सभी सूचनाओं को एकत्रित करके उसका उपयोग कर सकता है. यदि आपके पास मोबाइल फोन है, तो आप संसार के किसी कोने में हों, आप उनकी नजर में हैं. आपके व्यक्तिगत जीवन की स्वतंत्रता लगभग खत्म हो गयी है. इसलिए जो जनतांत्रिक संस्थाएं बनायी गयी थीं लोगों की स्वतंत्रता और समानता की रक्षा के लिए, वे अब लगभग बेकार होती जा रही हैं. मानवाधिकार, जनाधिकार आदि अब जुमले होते जा रहे हैं, यदि पूंजी के हित में कुछ होना है, तो राज्य इन सबकी अवहेलना के लिए तर्क खोज लेता है. ऐसा लगता है कि अब आंदोलनों का युग समाप्त हो गया है.

बदलते पूंजीवाद (क्रोनी पूंजीवाद) और सिकुड़ते जनतंत्र के खिलाफ हाल ही में पूरी दुनिया में जनाक्रोश का दौर भी चला. दुनिया के कई देशों में लोग सड़क पर आ गये और अपनी मांगों को लेकर वहीं टिके रहे. उनका तर्क था कि आज की व्यवस्था केवल एक प्रतिशत लोगों के हित में है और 99वें प्रतिशत लोगों के खिलाफ है. लेकिन, इस आंदोलन का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि राज्य ने किसी व्यापक आंदोलन को कुचलने की अपनी तैयारी पूरी कर ली है.

जनतंत्र में डर का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. लोग अब खुलकर बोलने से डरने लगे हैं. मेरे बचपन के मित्रों का सोशल मीडिया ग्रुप है. हम उसमें हर तरह की बातें करते हैं. पहले राजनीतिक बहस भी करते थे. खुलकर करते थे.

न्यायाधीशों के प्रेस संबोधन पर बहस के बीच में वह डर दिखने लगा. खासकर जो सरकारी नौकरियों में हैं, उन्होंने कहा कि बेहतर हैं हम सोशल मीडिया पर इस तरह के बहस से बचें. यह डर हमारे अंदर समाने लगा है. अब शिक्षक कक्षा में बोलने में डरने लगे हैं.

अधिकारी कुछ निर्णय लेने में डरने लगे हैं. संपादक भी सोच-समझकर लिखने और छापने लगे हैं. आनेवाले समय में यह डर हमारे साथ रहेगा. यह एक नया भाव है, जो स्वतंत्रता और समानता के भाव के बदले स्थापित हो रहा है. यही है नये दौर का मूल भाव. और इसका विरोधी भाव भी उतना ही खतरनाक होगा, क्योंकि हम कहेंगे डर के आगे जीत है और एक तरह की हिंसा के जवाब में दूसरी तरह की हिंसा में लिप्त होंगे. तब जीवन हार और जीत होगा, जीवन नहीं रहेगा.

यदि कोई निरंकुश हुआ है, तो पूंजी और पूंजीपति. लाखों-करोड़ों रुपये बैंकों से लेकर ये देने का नाम नहीं लेते हैं. ऊपर से कहते हैं कि देना संभव नहीं है, उसमें उनका कोई दोष भी नहीं है.

बैंकों का भी एक नया स्वरूप आपके सामने आनेवाला है. अब हर मौके की खोज होगी, जहां आपसे कुछ और पैसे वसूल लिये जाएं. आप केवल देखते रह जायेंगे. जिस तरह पूंजी कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी है और अाज का मुख्य व्यापार ही मानव संहारक यंत्रों का हो रहा है, उसी तरह चुनावों और चुनावी जुमलों में जनतंत्र भी सिमट रहा है.

इसे बचा सकें, तो बचा लें. आंदोलनों का रास्ता बंद है.कोई और रास्ता खोजें. जैसे-जैसे पूंजी का हित जनहित से अलग होगा, राज्य का हिंसात्मक स्वरूप सामने आयेगा. आपकी आवाज मीडिया की ऊंची आवाज में खो जायेगी. यह बात केवल भारत की नहीं है, बल्कि दुनिया के हर हिस्से की बात है. उम्मीद सिर्फ इतनी है कि शायद एक दिन समय जरूर बदलेगा.

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