दिल्ली में बतौर घरेलू नौकर काम कर रही झारखंड की एक नाबालिग लड़की से अमानवीय व्यवहार का दिल दहलानेवाला एक और मामला सामने आया है. दिल्ली और अन्य महानगरों के मध्य एवं उच्चवर्गीय इलाकों से ऐसी वारदातों की नियमित खबरें आती रहती हैं. सरकारों, अदालतों और पुलिस के कानूनों, आदेशों और दावों के बावजूद ऊंचे अपार्टमेंटों और बड़ी कोठियों के बंद दरवाजों के पीछे चुप गुलामी के सिसकने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
यह कोई संयोग नहीं है कि पीड़क हमेशा शिक्षित और अच्छा-खासा कमानेवाले होते हैं तथा पीड़ित हमेशा देश के कुछ अत्यंत गरीब हिस्सों के वंचित. हमने भले ही बंधुआ मजदूरी को अवैध घोषित कर दिया है, पर समाज के संभ्रांत तबके के एक हिस्से में गुलामी कराने की मानसिकता बरकरार है. कई रिहायशी इलाकों में घरेलू और बाहरी कामगारों के आने-जाने के रास्ते और लिफ्ट अलग हैं. समय पर और सही तरीके से मजदूरी या वेतन नहीं दिया जाता है और छुट्टियों के बदले कमाई काटी जाती है. मार-पीट, गाली-गलौज और दैहिक शोषण भी खूब होता है. नौकरी का झांसा देकर एजेंसियां झारखंड, छत्तीससगढ़, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पूर्वोत्तर से लोगों को महानगरों में लाती हैं.
इनमें ज्यादातर नाबालिग बच्चे होते हैं. मोटी रकम के एवज में या तो इन्हें घरों में बेच दिया जाता है या उनके वेतन को एजेंसियां खुद ले लेती हैं और उसमें से कुछ ही रकम वापस करती हैं. कानून तो यह है कि ऐसी एजेंसियों का पंजीकरण जरूरी है, लेकिन दिल्ली पुलिस कई बार कह चुकी है कि अवैध एजेंसियों की संख्या हजारों में है. ऐसे में यह पूरा मामला मानव-तस्करी का बनता है. देश में अभी दो कानून- असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा कानून, 2008 और कार्यस्थल पर यौन शोषण रोकथाम कानून, 2013- घरेलू कामगारों को कुछ हद तक चिन्हित करते हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर दिल्ली सरकार ने नाबालिग घरेलू कामगारों के लिए कुछ निर्देश 2014 में दिया था.
लेकिन ये सब नाकाफी साबित हुए हैं और लंबे समय से एक राष्ट्रीय नीति की मांग की जा रही है. पिछले साल अक्तूबर में श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने ऐसी नीति के बारे में सलाह मांगी थी. इस नीति का उद्देश्य करीब 47.5 लाख घरेलू कामगारों की सुरक्षा है जिनमें 30 लाख महिलाएं हैं.
भारत ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के घरेलू कामगार कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किया है, पर अभी उसे लागू नहीं किया है. जिन राज्यों के कामगारों को मजबूरन महानगरों में यातना-प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है, उनकी सरकारें भी रस्मी बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं करती हैं. राष्ट्रीय मीडिया की दिलचस्पी भी कम ही रहती है. ऐसे में ठोस नीतिगत पहल के साथ सामाजिक स्तर पर जागरूकता और संवेदनशीलता की भी जरूरत है. ध्यान रहे, वंचितों के शोषण पर आधारित समाज प्रगति की राह पर बहुत आगे नहीं जा सकता है.