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रोजगार की आस में युवा
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार राजस्थान विधानसभा सचिवालय में चपरासी के 17 पदों के लिए 12,500 लोगों द्वारा आवेदन भेजना महत्वपूर्ण समाचार है. लेकिन, इसकी गंभीरता और बढ़ जाती है, जब यह पता चलता है कि चपरासी बनने के लिए कतार में खड़े उम्मीदवारों में 129 इंजीनियर हैं, 23 वकील हैं, एक चार्टर्ड एकाउंटेट हैं, 393 […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
राजस्थान विधानसभा सचिवालय में चपरासी के 17 पदों के लिए 12,500 लोगों द्वारा आवेदन भेजना महत्वपूर्ण समाचार है. लेकिन, इसकी गंभीरता और बढ़ जाती है, जब यह पता चलता है कि चपरासी बनने के लिए कतार में खड़े उम्मीदवारों में 129 इंजीनियर हैं, 23 वकील हैं, एक चार्टर्ड एकाउंटेट हैं, 393 स्नातकोत्तर हैं और 1,500 से अधिक स्नातक हैं.
जबकि इस पद के लिए मात्र पांचवीं पास होना पर्याप्त है. जहां ये आंकड़े देश में बेरोजगारी की भयानकता का संकेत दे रहे हैं, वहीं उच्च शिक्षा प्राप्त प्रार्थियों का इस तरह कतार में खड़ा होना हमारी शिक्षा प्रणाली और शिक्षा की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है.
यह समाचार छपा तो सही, पर ऐसे नहीं कि स्थिति की भयावहता का अहसास करा पाता. अखबारों ने इसे जरूरी महत्व नहीं दिया, तो चैनलों ने भी इसे शायद टीआरपी के लिए उपयोगी नहीं समझा. खबर सामने आयी भी, तो इस रूप में कि चपरासी की नौकरी पानेवालों में दसवीं पास एक व्यक्ति भी था, जो एक विधायक का बेटा था.
इसका मकसद यह बताना था कि विधायक ने अपने रुतबे पर बेटे को नौकरी दिलवा दी. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में देश में बेरोजगारी की दर 3.8 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में 5.0 प्रतिशत हो गयी. आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार देश में स्थायी रोजगार की जगह अस्थायी और अनुबंध वाले रोजगार को बढ़ावा मिला है. ऐसे में असुरक्षा का भाव देश के युवाओं में पनप रहा है. शायद इसी कारण उच्च शिक्षा प्राप्त युवा चपरासी बनने के लिए लालायित हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमान के अनुसार 2017-18 में भारत में रोजगार की स्थिति बेहतर होने के आसार नहीं हैं.
यह चिंता का विषय है. राजस्थान विधानसभा के सचिवालय में नौकरियों के लिए लंबी कतार अकेला उदाहरण नहीं है. हरियाणा में भी ऐसा ही एक दृश्य दिखा था. वहां हिसार में सत्र न्यायालय में सत्रह हजार चपरासियों की भर्ती के लिए उम्मीदवारों की संख्या लगभग 15 हजार थी.
वहां भी चपरासी बनने के लिए आतुर उम्मीदवारों में पीएचडी, एमएससी, बीसीए आदि डिग्रियों वाले शामिल थे. कुछ ही साल पहले लखनऊ में भी ऐसा ‘हादसा’ हुआ था. वहां तो प्रार्थियों की संख्या एक लाख से भी अधिक हो गयी थी.
हां, इस स्थिति को हादसा ही कहा जाना चाहिए. भयानक हादसा है यह. जो हुआ है, या हो रहा है, वह तो भयानक है ही, इसके परिणाम यहीं तक सीमित नहीं हैं. यह देश की युवा शक्ति की वर्तमान तस्वीर का एक पहलू ही नहीं दिखाता, आनेवाले समय में तस्वीर के और बदरंग हो जाने की आशंका भी जताता है. यह स्थितियां हताशा पैदा करने वाली हैं. बेरोजगारी की यह भयावह वास्तविकता वस्तुत: एक चेतावनी है हमारे देश और हमारे समाज के लिए. हताशा की स्थिति नकारात्मक ताकतों को बढ़ावा देने की जमीन तैयार करती है, इसलिए इस खतरे को समझना और उससे उबरने की कोशिशों को तेज करना जरूरी है.
हमारे देश की गणना युवा शक्ति वाले देश के रूप में होती है. हम अक्सर इस बात पर गर्व भी करते हैं कि देश की 65 प्रतिशत आबादी युवा है. इसी के आधार पर हमारे नेता सुनहरे भविष्य के सपने दिखाते हैं. आंकड़े गलत नहीं हैं. है हमारा देश युवा. लेकिन सवाल यह है कि इस युवा शक्ति का उपयोग हम किस तरह कर रहे हैं? जब चपरासी के के लिए 12,500 से अधिक युवाओं को कतार में लगा देखते हैं, तो आनेवाले कल की तस्वीर धुंधली ही नहीं, निराशाजनक भी दिखती है.
सवाल सिर्फ बेरोजगारी का ही नहीं है, सवाल उस शिक्षा प्रणाली का भी है, जो बेरोजगारों की फौज तैयार करती है. डिग्रियां बांटनेवाली हमारी शिक्षा प्रणाली में कहीं तो कुछ ऐसी कमी है, जो पढ़-लिख कर भी युवाओं को कमाने-खाने लायक नहीं बनने देती. आजाद होने से पहले भी शिक्षा को लेकर इस तरह के सवाल उठते थे. मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने लिखा था, ‘न पढ़ते तो सौ तरह खाते कमाकर/ मारे गये हाय तालीम पाकर/न जंगल में रेवड़ चराने के काबिल / न बाजार में माल ढोने के काबिल.’
तब शायद शिकायत यह थी कि पढ़ाई हमें शारीरिक श्रम के रोजगार करने लायक भी नहीं रखती. अब भी, कुल मिलाकर शिक्षा से यही शिकायत है कि वह रोजगार के लायक नहीं बनाती. डॉक्टरेट, एमबीए, इंजीनियरिंग, स्नातकोत्तर डिग्रियां जब रोजगार नहीं दिलवा पातीं, तो यह सोचना जरूरी हो जाता है कि आखिर ये डिग्रियां हैं किसलिये? यदि इन डिग्रियों का अवमूल्यन हुआ है, तो क्यों हुआ है? कौन है जिम्मेदार इस स्थिति के लिए?
ये सारे सवाल उन सबसे जवाब मांग रहे हैं, जिनके कंधों पर देश की बेहतरी का दायित्व है. दावे चाहे रोटी, कपड़ा और मकान के हों, या फिर सड़क, पानी और बिजली के, इस सबकी बुनियादी जरूरत यह है कि देश के युवा हाथों को उपयुक्त काम मिले. इसके लिए अपेक्षित योग्यता और क्षमता हासिल हो सके युवाओं को. नीतियां बनानेवाले यह सोचें कि सिर्फ आकर्षक नारों से बात नहीं बनती, बात बनती है समस्या को सही रूप में समझकर उसके समाधान की ईमानदार कोशिश करने से. चपरासी के पद के लिए लगी कतारों में खड़ा देश का पढ़ा-लिखा युवा उस ईमानदारी को देखने के लिए तरस रहा है.
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