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खबरों की अंतर्ध्वनियां
मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार नये साल में प्रयाग में माघ मेला शुरू हो गया है. ताजा खबर है कि संगम पर प्रदूषण देखकर डुबकी लगाने को गंगा तट पर आये दंडी संन्यासी इतना भड़क गये कि उन्होंने गंदे पानी से आचमन या उसमें स्नान के बहिष्कार की घोषणा कर डाली. संतों के कोप से मठाधीशनीत […]
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
नये साल में प्रयाग में माघ मेला शुरू हो गया है. ताजा खबर है कि संगम पर प्रदूषण देखकर डुबकी लगाने को गंगा तट पर आये दंडी संन्यासी इतना भड़क गये कि उन्होंने गंदे पानी से आचमन या उसमें स्नान के बहिष्कार की घोषणा कर डाली. संतों के कोप से मठाधीशनीत सरकार का इंद्रासन डोला और प्रशासन द्वारा रूठे संन्यासियों को मनाने की तमाम कोशिशें शुरू हुईं. धर्मप्रवण सरकार गंगाजल की सफाई को लेकर भरपूर वित्तीय आवंटन कर चुकी है, जिसके लिए केंद्र ने एक साध्वी सांसद को पुण्य कार्य का बीड़ा भी थमा दिया था.
इसके बावजूद कभी फंडिंग समय पर रिलीज नहीं हुई, कभी चुनाव आ जाने से काम ठप्प पड़ गया और पवित्र नदियों में हठीले इंडस्ट्रियल पतनाले गिरते रहने से राम की गंगा-सरयू मैली होती रहीं, और प्रशासन कभी वाराणसी तो कभी अयोध्या में आगबबूला साधुओं को मनाने को मजबूर होता रहा. विडंबना है कि कुछ ही दिन पहले आयी कैग की रपट ने 2017 के दौरान स्वच्छ गंगा अभियान के लिए आवंटित राशि से 2,500 करोड़ रुपये खर्च न किये जाने को लेकर क्षोभ जताया था.
स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार से खुद प्रधानमंत्री से लेकर बॉलीवुड के नायक-महानायक तक सब जुड़े, लेकिन जोर मीडिया प्रचार पर अधिक दिखा, जमीन पर सरकारी दस्तों से जनता का सीधा संपर्क और शौचालयों की समुचित देखभाल तथा प्रबंधन बहुत कम नजर आया. एक ताजा (सेंटर फाॅर डेवलपमेंट स्टडीज के लिए देवेश कपूर तथा आदित्य दासगुप्ता द्वारा) 426 ब्लाकों के मुआयने से निकली शोध रपट के अनुसार, बीडीओ के दफ्तरों में लगभग 48 फीसदी पद खाली हैं.
लिहाजा ग्राम स्तर पर विकास तथा सफाई अभियानों के लिए सघन संपर्क बनाने और सही जानकारी व संसाधन देने के लिए औसतन प्रति लाख की आबादी के लिए सिर्फ 24.5 सरकारीकर्मी हैं. और जो हैं भी, उनमें इस बाबत जानकारी, श्रम या दक्षता का स्तर बहुत उन्नत नहीं पाया गया.
एक तरफ बिजबिजाते शहर, महानदियां हैं, जिनकी सफाई के लिए आवंटित सरकारी पैसे का भरपूर भंडार भी है, दूसरी तरफ स्टाफ की कमी, योजनाओं के सघन केंद्रीकरण और लालफीताशाही के कारण हर कहींदेर से (31 मार्च, वित्तीय वर्ष के अंत तक) पहुंचे फंड का लगभग बड़ा हिस्सा अनखर्चा चला जाता है.
दफ्तरों में बाबुओं की कमी है, और थानों में गश्ती पुलिस की. वहीं हर जगह गहराते जातीय सांप्रदायिक विद्वेष के कारण भीड़ ने खून का स्वाद चख लिया है और वह सड़कों पर बात-बात में पथराव पर उतरकर बसें-दुकानें जला रही है.
प्रशासन के जो कुछ प्रतिनिधि हैं, वे खोजने पर अक्सर किन्हीं मान्य जनप्रतिनिधि जी या संन्यासियों की सेवा में तैनात किये गये होते हैं. ये सारी खबरें हास्यास्पद मानी जा सकती थीं, अगर यह राज-समाज की भीतरी और गंभीर खामियों को रेखांकित न करतीं. हिंदी मीडिया यथासंभव खामियां गिनाने से बचता दिख रहा है. पुणे में महार तथा मराठाओं के बीच हुई खूनी झड़पें और उससे कुछ दिन ही पहले गुजरात में पाटीदार आंदोलन तथा हरियाणा से दिल्ली तक जाटों के चक्का जाम की खबरें उपरोक्त बात का सीधा प्रमाण हैं.
नयी अर्थनीति की तहत सेवाक्षेत्र का जो विस्तार हुआ, उसने आरक्षण की पहली खेप के पिछड़ों को पहली बार खेती-बाड़ी से इतर उपक्रमों के आर्थिक सामाजिक फायदों और उच्च शिक्षा से परिचित कराया.
यह अच्छी बात थी, पर इसी बीच जब विकास की डोर कसकर सेवाक्षेत्र और औद्योगिक शहरी उपक्रमों से जोड़ी गयी, तो आरक्षित वर्ग के बच्चों को, जिनमें पिछड़ों के अलावा दलित भी शामिल थे, नयी तरह की नौकरियों के लिए आवश्यक हुनरकमाई का मौका भी मिलने लगा. उधर उनके खेतिहर मिल्कियत वाले पर अनारक्षित वर्गमित्र, मराठा, पटेल व जाट समुदाय भूस्वामी होते हुए भी महंगी खेती और घटती आमदनी का सामना करने पर मजबूर होते गये.
इस बढ़ती गैरबराबरी और दलितों में पहली बार झलकती संपन्नता ने तमाम पिछड़ी जातियों के युवाओं को आरक्षण की रेवड़ियों, यानी शहरी सुखद नौकरियों में अपना हिस्सा छीनने को प्रेरित किया है. इन समुदायों के कुछ लोगों ने अपने बच्चों की ग्रामीण शिक्षा की भरपाई को उनको निजी संस्थानों में भेजा भी, लेकिन प्रारंभिक शिक्षा में अंग्रेजी न सीख पाने से तकनीकी शिक्षा या निजी क्षेत्र में प्रबंधन या आईटी की मोटी नौकरियां व अनारक्षित होने से पक्की सरकारी नौकरियां दोनों ही आकाशकुसुम बनी रहीं.
गौरतलब है कि आजादी के बाद सैकड़ों सालों से भूमिहीन रहे दलितों ने आरक्षण पाने पर गांव त्यागने में कोई संकोच नहीं किया और पिछड़े समुदायों को लगता है कि दलित उनसे पहले शहर पहुंचकर आरक्षण की कृपा से दोहरे फायदे में रहे. अचरज नहीं कि लगातार दीन विपन्न दिखते जा रहे पिछड़े युवक अब गांवों से भागकर शहरी नौकरियां पाने को हुमकने लगे हैं, और उनके वोट से अपनी राजनीति चमकाने को सभी दल उनको झांसे दे रहे हैं.
अब तो गांव के बुजुर्ग भी युवकों को धरना आंदोलन त्यागकर खेतिहर बने रहने की सलाह देने की ठोस वजह नहीं पाते. ऐसी दशा पर सरकारें सांसत में नजर आने लगती हैं और इसलिए कभी तीन तलाक रोकने पर कानून लाने का शोशा छोड़ा जाता है, तो कभी महिलाओं को अकेले हज में भेजने की ‘क्रांतिकारी’ घोषणा की जाती है, जो वस्तुत: भारत के अधिकार क्षेत्र से परे है.
लगता है आज के भारत का प्रधानमंत्री होना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है और 2018 में एकचालकानुवर्ती भाजपा की राह मनमोहन सिंह से ज्यादा ऊबड़-खाबड़ है. फिर भी महाराष्ट्र में 200 साल पहले की लड़ाई के संदर्भ में भड़के उपद्रव और हर कहीं लगातार हो रही जातीय हिंसा की वारदातें सरकार से गंभीर जांच और तुरंत चुस्त दखल की मांग करती हैं.
यह स्थिति रातों-रात तो नहीं बनी होगी. क्या सरकार के गुप्तचर कान में तेल डालकर सो रहे थे? त्वरित कार्रवाई जरूरी है, ताकि शासन का रसूख कायम हो. खेती की दुर्दशा और बेरोजगारी की बेलगाम बढ़त से शहर-गांव में हर जाति में फनफना रही हिंसा हमारे मौजूदा राजनीतिक बैठकखाने का ऐसा हाथी है, जिसका यथासमय नोटिस लेने की बजाय हमारे नेता तमाम और विषयों पर खोखली चर्चाएं छेड़ते जा रहे हैं.
इतने पर भी विपक्षी दल जिस तरह पानी की बजाय आग में घी डाल रहे हैं, वह गैरजिम्मेदाराना है. इतना विद्वेष फैल जाने के बाद जो भी जब भी सत्ता में आयेगा, वह तलवार की धार पर ही चलेगा.
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