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बढ़ेंगी पाकिस्तान की मुश्किलें
अजय साहनी रक्षा विशेषज्ञ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरीके से पाकिस्तान को कहा है कि उसने बीते डेढ़ दशक से अमेरिका को बेवकूफ बनााया है, तो यह अचानक आया बयान नहीं है, इस नजरिये से कुछ ही समय पहले ट्रंप ने पाकिस्तान की तारीफ भी की थी. इस बयान का अमेरिकी विदेश नीति […]
अजय साहनी
रक्षा विशेषज्ञ
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरीके से पाकिस्तान को कहा है कि उसने बीते डेढ़ दशक से अमेरिका को बेवकूफ बनााया है, तो यह अचानक आया बयान नहीं है, इस नजरिये से कुछ ही समय पहले ट्रंप ने पाकिस्तान की तारीफ भी की थी. इस बयान का अमेरिकी विदेश नीति से कोई गहरा संबंध नहीं है. हां, यह सिर्फ एक संकेत हो सकता है कि अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते कुछ ठीक नहीं हैं. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रिश्तों के खट्टापन की दिशा में कुछ समय से बात बढ़ती ही चली जा रही थी.
दरअसल, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को जितना पैसा दिया जाना था या जितने का वादा किया गया था, उसमें से ज्यादातर पैसा पाकिस्तान को मिल ही नहीं रहा था. पाकिस्तान को अमेरिकी पैसे की जरूरत थी कि वहां आतंकवादियों- खासकर हक्कानी नेटवर्क और तालिबान के खिलाफ उचित कार्रवाई करे, लेकिन उतना पैसा मिला ही नहीं.
यह पिछले कुछ सालों की बात है, और इस साल भी वही स्थिति बरकरार है. जहां तक ट्रंप के बयान की बात है, तो इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं आयेगा. क्योंकि, पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की विदेश नीति की कुछ प्रतिबद्धताएं होती हैं, जिन पर चलना होता है. उन प्रतिबद्धताओं में अगर कोई बदलाव आता भी है, तो वह अचानक नहीं आता, बल्कि धीरे-धीरे आता है.
दुनिया के किसी भी देश की विदेश नीति की अपनी एक दिशा होती है, जिसके रास्ते चलकर वह देशों के आपसी संबंधों को मजबूत बनाने या कमजोर करने को लेकर काम करती है. इस पैमाने पर यह देखा जा सकता है कि अमेरिका की विदेश नीति कुछ समय से पाकिस्तान के पक्ष में नहीं चल रही है.
इसलिए अगर अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्तों पर कोई निष्कर्ष अमेरिका की विदेश नीति की दिशा के आधार पर ही निकाला जा सकता है, न कि ट्रंप के बयान पर कि उन्होंने क्या कहा. चाहे ट्रंप पाकिस्तान के समर्थन में बोलें या उसके खिलाफ बोलें, इसका कोई बड़ा असर नहीं पड़नेवाला है.
पूरे दक्षिण एशिया में स्थायित्व अभी तक नहीं रहा है. इस क्षेत्र में कई देश हैं, जो अपने को ताकतवर बनाने की कोशिशों में लगे रहते हैं, जिसमें चीन की ज्यादा कोशिशें होती हैं. कई मामलों को लेकर इस क्षेत्र में अमेरिका के साथ चीन की सीधी प्रतियोगिता है. इधर पाकिस्तान पर जिस तरह से अमेरिका का दबाव बढ़ रहा है, उसी तरह से पाकिस्तान की चीन पर निर्भरता बढ़ रही है.
पाकिस्तान को यह लगता है कि अगर अमेरिका उसे छोड़ भी देता है, तो वह चीन के समर्थन से आगे बढ़ता चला जायेगा. लेकिन, पाकिस्तान के लिए यह ठीक नहीं होगा. क्योंकि चीन अपने बिना फायदे के कभी किसी काे समर्थन नहीं दे सकता, जिस तरह से अमेरिका करता है. चीन कभी किसी को फ्री में कुछ नहीं देता, यह उसकी अपनी विशेषता है.
अगर चीन किसी को समर्थन दे रहा है, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि उसका उद्देश्य कोई लाभ पाने का है. मसलन, चीन किसी को समर्थन में लोन देकर वहां कोई प्रोजेक्ट शुरू करता है, लेकिन जब वह देश उस प्रोजेक्ट का लाभ नहीं दे पाता, तो चीन उसे अपने कब्जे में ले लेता है यह कहते हुए कि- वह उस प्रोजेक्ट को खुद ही चला लेगा. इस तरह से चीन ने अफ्रीका और श्रीलंका में किया भी है. वहां समर्थन में पहले लोन देकर प्रोजेक्ट खड़ा किया और फिर बाद में हथिया लिया. एक जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी भी यही करती थी और यही करके अंग्रेजों ने भारत पर राज करना शुरू कर दिया. इस ऐतबार से चीन का पाकिस्तान को समर्थन से आगामी समय में पाकिस्तान को नुकसान ही होगा.
लेकिन, चूंकि इस वक्त पाकिस्तान को लगता है कि उसका फायदा हो रहा है, इसलिए वह चीन के साथ है. इसलिए पाकिस्तान यह सोच रहा है कि उसकी जो बुनियादी नीतियां हैं तालिबान या अफगानिस्तान को लेकर, उसे फिलहाल बदलने की जरूरत नहीं है, ट्रंप को जो बोलना हो, वे बोलें.
पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते कुछ ठीक नहीं हैं, इसकी बानगी तब भी देखी गयी थी, जब पाकिस्तान ने अमेरिका पर आरोप लगाते हुए कहा था कि आतंकवाद के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है.
पाकिस्तान के पास डिस्कोर्स का यही तरीका है, कि फौरन आरोप का प्रत्यारोप कर दो. मसलन, अगर भारत कहता है कि पाकिस्तान कश्मीर में बेजा दखल दे रहा है, तो इसके जवाब में पाकिस्तान फौरन कहता है कि भारत भी बलूचिस्तान में दखल दे रहा है. इस तरह के प्रत्यारोप में भले ही पाकिस्तान के पास कोई साक्ष्य नहीं होता, लेकिन वह अपनी जिद नहीं छोड़ता. लेकिन, इस बात को हमें मानना ही होगा कि विश्व भर में अमेरिका की जो नीतियां रही हैं, उनकी वजह से असुरक्षा बहुत बढ़ी है.
अमेरिका ने फ्रीडम और डेमोक्रेसी के नाम पर अनाप-शनाप तौर पर सामरिक संसाधन और हथियार मुहैया कराया है और बेशक अमेरिका के समर्थन की वजह से ही आतंकवाद बढ़ा है.
इसी बात को पाकिस्तान बार-बार बोलता है. अफगानिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां सारा खून-खराबा अमेरिका का ही शुरू किया हुआ है. आतंकवाद को बढ़ावा देने में कहीं-न-कहीं अमेरिका की ही जिम्मेदारी दिखती है. यहां समझनेवाली बात यह है कि ठीक है अमेरिका ने पैसा और हथियार पाकिस्तान को दिये, लेकिन गोली चलाने का काम तो पाकिस्तान ही कर रहा है न? इसलिए अमेरिका पर प्रत्यारोप करके पाकिस्तान निर्दोष साबित नहीं हो जाता.
दरअसल, अमेरिका हो या पाकिस्तान, दोनों इस नीति पर चलते दिख रहे हैं कि- तुमने क्या किया! अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने और अपनी गलतियों पर परदा डालने का यह सबसे अच्छा तरीका है, जिसे अमेरिका और पाकिस्तान दोनों बड़ी आसानी से करते हैं. इसलिए, अगर अमेरिका की नीतियों में खामियां हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान अपनी खामियों को छुपाने के लिए दूसरे को जिम्मेदार माने. इस परिस्थिति में यह बहुत मुमकिन है कि जैसे-जैसे पाकिस्तान पर अमेरिकी दबाव बढ़ेगा, धीरे-धीरे उसकी मुश्किलें भी बढ़ेंगी.
लेकिन, चूंकि यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चलेगी, इसलिए वह अपने ढुलमुल और प्रत्यारोप के रवैये पर चलकर आगे बढ़ता जायेगा. वहीं महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पाकिस्तान काे चीन के साथ मौजूदा रिश्ता आगे बहुत महंगा पड़ सकता है. पाकिस्तान इसे समझ जाये तो ठीक, नहीं तो वह खुद ही खामियाजा भुगतेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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