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विदर्भ का संदर्भ

अलग-अलग स्वाद में खिचड़ी देश के हर कोने में खायी जाती है. यह भी कहा जा सकता है कि खिचड़ी अनौपचारिक तौर पर विविधता में एकता का जीवंत प्रतीक है. कुछ यही हाल क्रिकेट का है. औपचारिक तौर पर क्रिकेट भले ही राष्ट्रीय खेल न हो, पर यह विशाल आबादी वाले इस देश के हर […]

अलग-अलग स्वाद में खिचड़ी देश के हर कोने में खायी जाती है. यह भी कहा जा सकता है कि खिचड़ी अनौपचारिक तौर पर विविधता में एकता का जीवंत प्रतीक है. कुछ यही हाल क्रिकेट का है.

औपचारिक तौर पर क्रिकेट भले ही राष्ट्रीय खेल न हो, पर यह विशाल आबादी वाले इस देश के हर तबके और हर कोने में लोकप्रिय है. क्रिकेट की लोकप्रियता का राज यही नहीं कि भारतीयों ने अंग्रेजों के इस खेल में अपने गिल्ली-डंडा का पुरातन स्वरूप देखा और आधुनिक भारत की ढेर सारी चीजों की तरह इसे भी नया संस्कार देकर अपनाया. भारतीय महादेश में क्रिकेट की महायात्रा आज इस विश्वविजयी मुकाम तक पहुंची है तो उसका बड़ा कारण क्रिकेट के खेल में निहित भारत की विविधता को समेटने की क्षमता के साथ-साथ उसका एक हद तक लगातार लोकतांत्रिक होते जाना भी है.

भारत एक विकसित होता हुआ लोकतंत्र है और क्रिकेट का खेल लोकतांत्रिक भारत की चाहनाओं का एक जीवंत रूपक बनकर उभरा है. अब प्रथम श्रेणी के घरेलू क्रिकेट के आयोजन रणजी ट्राफी को लें, जिसमें दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की टीमें ही नहीं, 21 अन्य टीमें भी मैदान में उतरती हैं. रणजी ट्राफी के लगभग आठ दशक पुराने इतिहास में इस बार करिश्मा हुआ है.

इस साल के मुकाबले में कामयाबी का झंडा विदर्भ की टीम ने गाड़ा है. विदर्भ की टीम ने गौतम गंभीर और ऋषभ पंत जैसे दिग्गजों से भरी दिल्ली की टीम को फाइनल के मुकाबले में अपने नौ विकेट रहते परास्त किया और इतिहास रच डाला. इतिहास बनता तो एक झटके में है, परंतु इतिहास घटित होने की प्रक्रिया लंबे समय से चल रही होती है. बेशक विदर्भ की टीम इस साल अपना पहला रणजी फाइनल मैच खेल रही थी, लेकिन मुकाबले में उसकी कामयाबी को हैरतअंगेज नहीं माना जा सकता.

इससे पहले विदर्भ की टीम दो बार सेमीफाइनल में पहुंची है. साल 2002-03 तथा 2011-12 में टीम ने सेमीफाइनल के लिए क्वालिफाई किया. साल 1970-71 तथा 1995-96 में विदर्भ की टीम क्वाॅर्टर फाइनल तक भी पहुंची है. क्वाॅर्टर फाइनल से फाइनल तक पहुंचने और ट्राफी जीतने की इस यात्रा को भारतीय मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की आकांक्षाओं की जय-यात्रा और गांवों के देश भारत के अर्द्ध-शहरी भारत के तौर पर उभरने की कथा के रूप में भी पढ़ सकते हैं.

प्रगति की विराट आकांक्षा ने 1990 के दशक के बाद से भारत के विशाल मध्यवर्गीय तबके में प्रतिस्पर्धा की पुरजोर भावना जगायी है. प्रतिस्पर्धा के लिए अवसर, पुरस्कार और गुणों की निरपेक्ष पहचान जरूरी है. रणजी ट्राफी के मुकाबले में विदर्भ सरीखी छोटी टीमों की जीत इस बात के संकेत करती है कि अवसर मौजूद हो और मेहनत को सराहने तथा उसके अनुकूल पुरस्कृत होने की गुंजाइश हो, तो मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय भारत की प्रगति की राह कोई रोक नहीं सकता है.

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