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सृजनात्मक संसद की जरूरत

वरुण गांधी सांसद, भाजपा साल 1963 की बात है. राम मनोहर लोहिया ने एक पर्चा लिखा, जिसमें नेहरू की सुरक्षा पर रोजाना 25,000 रुपये खर्च किये जाने का मुद्दा उठाया गया था. भारत में उस समय गरीब के जीवन स्तर, जिसकी रोजाना की आय 3 आना थी, को देखें तो यह काफी गंभीर विषमता थी. […]

वरुण गांधी
सांसद, भाजपा
साल 1963 की बात है. राम मनोहर लोहिया ने एक पर्चा लिखा, जिसमें नेहरू की सुरक्षा पर रोजाना 25,000 रुपये खर्च किये जाने का मुद्दा उठाया गया था. भारत में उस समय गरीब के जीवन स्तर, जिसकी रोजाना की आय 3 आना थी, को देखें तो यह काफी गंभीर विषमता थी.
नेहरू ने इस पर बहस के दौरान योजना आयोग के आंकड़े पेश करते हुए दावा किया कि गरीब की रोजाना की आय 15 आना है.
राम मनोहर लोहिया और नेहरू के बीच आर्थिक विषमता पर लंबा तर्क-वितर्क हुआ. इस दौरान एक के बाद एक संसद सदस्य ने बोलने के लिए मिला अपना तय समय भी इन दोनों महान वक्ताओं के लिए त्याग दिया, ताकि इस मुद्दे पर बहस अपने अंजाम को पहुंच सके. और फिर भी, यह बहस सभ्य थी, जिसमें बुलंद दावों की ऊंचाई और चिंताजनक हालात के आंकड़े थे, न कोई टोकाटाकी न ही आक्रामकता का प्रदर्शन. लेकिन, हमारी राजनीतिक चर्चाएं समय के साथ कठोर हो गयी हैं.
हिंदू कोड बिल पर हुई महा चर्चा को याद कीजिए. साल 1948 में बीआर अांबेडकर के नेतृत्व वाली एक सेलेक्ट कमेटी द्वारा तैयार किये गये इस बिल का मसौदा बेहद विवादास्पद था, जिसके द्वारा हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और जनजातियों पर लागू होनेवाले विभिन्न वैयक्तिक और नागरिक कानूनों को खत्म करके उनकी जगह संहिताबद्ध कानून लागू किया जाना था. इस कानून द्वारा जाति का वैधानिक महत्व खत्म किया जाना था, तलाक मुमकिन बनाया जाना था और विधवाओं व महिलाओं को भी संपत्ति में अधिकार दिया जाना था. हिंदू कोड बिल पर चर्चा के प्रस्ताव पर 50 घंटे से ज्यादा बहस चली.
संसद में इस बिल की रोलेट एक्ट से तुलना की गयी और डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे दिग्गज ने इसे भेदभाव वाला कहा. कुछ सदस्यों ने टिप्पणी की, ‘हिंदू धर्म खतरे में है.’ आंबेडकर जैसे लोगों का कहना था कि हिंदू समाज को समय के साथ बदलना होगा.इसके अलावा कुछ और महान भाषणों को याद कीजिए, जो हमारी संसद की यादगार निशानियां बन चुकी हैं.
साल 1949 में आंबेडकर का ग्रामर ऑफ एनार्की भाषण ‘अनशन को हमारे सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने का तरीका’ बनाने और ‘सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह’ को छोड़ देने का आग्रह करता है. भारत के पहले उपग्रह को अंतरिक्ष में छोड़े जाने के मौके पर इंदिरा गांधी की खिंचाई करते हुए पीलू मोदी कहते हैं, ‘मैडम प्राइम मिनिस्टर, हम जानते हैं कि हमारे वैज्ञानिकों ने विज्ञान के क्षेत्र में बड़ा कदम उठाया है, लेकिन अगर आप हमारा ज्ञानवर्धन करें कि हमारे फोन क्यों काम नहीं करते, तो हम आपके बड़े आभारी होंगे.’
हमारी संसद के शुरुआती दिनों में गंभीर राजनीतिक मतभेद के बाद भी राष्ट्र-निर्माण के साझा अभियान में एक मैत्री-भाव था. और यह एकदम से खत्म नहीं हो गया- पहली लोकसभा में हमारे सांसदों में क्षेत्रों और विविधताओं का शानदार संगम था, जिसमें दूर-दराज के इलाकों की भी नुमाइंदगी थी.
यह देश की किस्मत थी कि इसे आजादी के बाद नेहरू, पटेल और लोहिया जैसे दिग्गज मिले, जिन्होंने बिना असभ्य हुए और वाहवाही की परवाह किये बिना पूरी शिद्दत से विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करते हुए लोकतांत्रिक तेवर को धार दी. जैसा कि एक बार नेहरू ने कहा था, संसदीय लोकतंत्र ढेर सारे नैतिक गुणों की मांग करता है- ‘काम के प्रति खास तरह का समर्पण’ और ‘सहयोग के तमाम उपाय, आत्मानुशासन और संयम.’ इन्हीं तत्वों की प्रतिमूर्ति प्रधानमंत्री वाजपेयी ने श्रेय लेने की होड़ में शामिल होने के बजाय गठबंधन धर्म निभाने में और राजनीतिक विचारधारा से परे जाकर वास्तविक संसदीय उपलब्धियां दर्ज कीं.
माना जाता है कि संसद बुलंद सोच वाले वक्ताओं का संगम होगी, जिसमें जमीन से जुड़े लोग भी होंगे. कभी समय था, जब संसद की चर्चाएं महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित होती थीं. एक बार तो अगस्त 1950 में संसद का सत्र कोरियाई युद्ध को ही समर्पित था.
इस विरासत को देखते हुए कोई भी राजनेताओं से उम्मीद कर सकता है कि मौका पड़ने पर वो जनमत को मोड़ देने और विधायी गतिरोध को तोड़ने की ताकत रखनेवाला प्रभावशाली भाषण देंगे, लेकिन यह वक्तृत्व कला अब गायब ही दिखती है, इसके चमत्कारी असर की बात तो खैर जाने ही दीजिए. अब भाषण व्यक्ति-केंद्रित, दूसरों की इज्जत पर हमला करनेवाले और उधार के शब्दों का इस्तेमाल कर दिये गये बयान जैसे होते हैं- मानो आक्रामकता की जंग छिड़ी हुई है.
हमारी संसद में वह एक ऐतिहासिक पल था. राजाजी द्वारा पेश एक संशोधन को खारिज करते हुए नेहरू ने कहा था, ‘देखिए, राजाजी बहुमत मेरे साथ है.’ इस पर राजाजी का जवाब था: ‘हां, जवाहरलाल, बहुमत आपके साथ है, लेकिन तर्क मेरे साथ है.’
चर्चा का निम्न स्तर हमारे राष्ट्रीय विमर्श को प्रतिबिंबित करता है. हमारी बहस अब शक्ति का प्रदर्शन बन चुकी है, शायद रात आठ बजे की खबरों के बुलेटिन के लिए. आज लोक-लुभावन मुद्दे उठाने की चाह ने भाषणों में बचकानापन ला दिया है, सस्ती बयानबाजी अब स्टाइल बन गया है. निजी तौर पर चोट पहुंचानेवाली या निजी स्टोरी उठा लेने से कोई मकसद हल नहीं होता. कभी रॉकेट लांचिंग के बारे में चर्चा होती थी, अब यह प्राचीन इतिहास पर किसी के दृष्टिकोण पर केंद्रित है.
एक समय था कि राजनीतिक भाषण सम्मानित कला माना जाता था. जनता पर अपनी बातों से असर डालनेवाले जननेताओं ने दिशा, समर्थन और मजबूती देकर लोकतंत्र को आकार दिया, चाहे वह नेहरू हों, बर्के हों या चर्चिल हों. जन-मंच, जो कि संसद वास्तव में है, आधुनिक सांसद को चर्चाओं में हिस्सा लेकर अपने भाषण से आलोचना करने, चुनौती देने, समर्थन देने और वास्तविक बदलाव लाने का मौका देता है.
सृजनात्मक संसद, जहां कानून पर जबर्दस्त बहस होती है, का यह विचार हमारे राष्ट्रीय ताने-बाने में दशकों से मौजूद है. हम बेहतर संसदीय प्रतिनिधियों के हकदार हैं- खराब प्रतिनिधियों को हमें चुनाव में खारिज कर देना चाहिए. हमें यह मध्ययुगीन कचरा साफ करना होगा.

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