योगेंद्र यादव
संयोजक, स्वराज अभियान
वर्ष 1991 के लोकसभा चुनावों के वक्त से ही गुजरात भाजपा का अभेद्य दुर्ग बन गया था. ऐसे में, वहां एक और विधानसभा चुनाव, और वह भी एक गुजराती के प्रधानमंत्री होते हुए, नतीजों के लिहाज से पहले ही निर्धारित मान लिया जाना चाहिए था. पर राहुल गांधी की गंभीर कोशिशें, नरेंद्र मोदी का जवाबी आक्रमण तथा जमीनी स्तर से उठती विरोध की आवाजों ने इस चुनाव पर पूरे राष्ट्र की निगाहें केंद्रित कर दीं. यह चुनाव 2019 के आगामी लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल नहीं था, पर हम अगले डेढ़ वर्षों में क्या भुगतने जा रहे हैं, इसने उसका एक ट्रेलर जरूर दिखा दिया.
इसमें संदेह नहीं कि विधानसभा चुनावों में भाजपा की लगातार छठीं जीत अपने आप में एक उपलब्धि तो अवश्य है, मगर 2014 में इसकी शानदार जीत के साथ ही इस तथ्य के भी मद्देनजर कि पीएम एवं भाजपा अध्यक्ष दोनों गुजरात से ही आते हैं, यह जीत तालियां बजवाती तो नहीं लगती.
यह तथ्य फिर भी शेष रह जाता है कि सीटों की संख्या तथा अपने प्रतिद्वंद्वी पर विजय के मत प्रतिशत के नजरिये से भी यह भाजपा की सबसे छोटी विजय ही दिखती है. भाजपा द्वारा 150 सीटों के दावे अथवा अंदरूनी स्तर पर उसके द्वारा लगाये गये वास्तविकता के जमीनी अनुमानों से भी उसकी यह उपलब्धि बहुत पीछे ही रह गयी.
इसी प्रकार, नैतिक विजय के कांग्रेसी दावे में भी कहीं कोई दम नजर नहीं आता. यह सही है कि एक लंबे वक्त के बाद उसके चुनावी अभियान में सुसंगति, एकता तथा संघर्ष शक्ति दिखी. पर इसे एक उपलब्धि मान लेना प्रकारांतर से कांग्रेस की मौजूदा दुर्दशा की दास्तान बयान कर देता है.
यह भी सत्य है कि यह पिछले तीन दशकों के दरम्यान गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का सर्वोत्तम प्रदर्शन है, जो उससे हुए हालिया दलबदल तथा टूट की पृष्ठभूमि में काबिले-तारीफ भी है. फिर भी इस चुनाव को कांग्रेस द्वारा हासिल फायदों के साथ ही उसके हित खोये अवसरों के लिए भी याद रखा जाना चाहिए.
कांग्रेस के लिए यह तो एक मुंहमांगा मौका था. गुजरात में पिछले चार वर्षों से कृषि संकट घनीभूत हो रहा था. निरंतर आते सुखाड़ों के बीच राज्य सरकार किसानों की किसी भी उम्मीद पर कामयाब न हो सकी थी.
सुखाड़ के बाद के दो वर्षों में अच्छी फसलों की खुशी को नोटबंदी तथा खासकर रूई और मूंगफली की धराशायी कीमतों का ग्रहण लग गया. ऐसे में भाजपा के लिए सत्ता-विरोध की भावना मुखर हो उठी थी. जन आक्रोश का एक हिस्सा पाटीदार तथा अन्य आंदोलनों के साथ लग गया. कांग्रेस को तो बस इस व्यापक असंतोष को एक धारा में समेट अपने वोट के रूप में भुना लेना था. हालांकि, उसने किसानों की बातें तो कीं और ऋणमाफी के वायदे भी किये. फिर भी, यह भाजपा विरोधी मतों के एक छोटे हिस्से को ही अपने मतों में तब्दील कर सकी, जबकि यदि वह ऐसा करने में सफल हो जाती, तो खासकर उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र में तो भाजपा बुरी तरह पिट गयी होती. इस तरह, यह कांग्रेस द्वारा एक बड़ा मौका चूक जाना रहा.
गुजरात चुनाव को केवल भाजपा और कांग्रेस के नजरिये से ही नहीं देखा जाना चाहिए. चुनाव तो लोकतांत्रिक सियासत का आईना होता है.
इस दृष्टि से, गुजरात चुनाव हमारी सामूहिक विफलता की घंटी बजा गया. पहली विफलता तो हमारी संस्थागत भंगुरता है. गुजरात में चुनावों की घोषणा में असामान्य देर के साथ राहुल गांधी के इंटरव्यू पर रोक, जबकि भाजपा नेताओं के वैसे ही कृत्य की अनदेखी से चुनाव आयोग शेषन युग के बाद अपने निम्नतम तल पर खड़ा नजर आया.
दूसरी विफलता राजनीतिक कथ्य के स्तर पर शून्यता के रूप में सामने आयी. प्रथम चरण के मतदान के एक दिन पहले भाजपा द्वारा अपने अधपके घोषणापत्र पत्र को जारी किया जाना यही बताता है. इसकी तुलना में कांग्रेस ने सही समय पर एक ज्यादा संजीदा दस्तावेज जारी किया, पर पाटीदारों के लिए आरक्षण का इसका वादा तर्क तथा कानून के दायरे से बाहर जाता नजर आया. पूरे चुनाव के दौरान कांग्रेस मुस्लिमों की स्थिति पर अपना मत स्थिर करने से मुंह चुराती दिखी, जो राजनीति तथा नीतियों के बीच बढ़ते अंतर को ही साफ करता है.
तीसरी तथा कहीं ज्यादा गहरी नाकामी सार्वजनिक विमर्श के स्तर की विषाक्तता रही. कठिनाई यह नहीं थी कि अत्यंत ओछे किस्म के आरोप-प्रत्यारोप लगाये गये, जिनमें भाजपा की भागीदारी ज्यादा रही. न केवल यह कि सफेद झूठों, संकेतों, काल्पनिक कहानियों एवं कटु सांप्रदायिक अफवाहों में से कुछ तो उस व्यक्ति के द्वारा अभिव्यक्त हुईं, जो देश के सर्वोच्च पद पर बैठा है.
वास्तविक त्रासदी यह रही कि मीडिया में आयी कुछ आलोचनाओं को छोड़कर यह सब सामान्य सियासी संवाद का हिस्सा मान लिया गया. चुनाव बाद के कुछ शोध नतीजों के अनुसार, इस कटु अभियान से भाजपा को फायदा पहुंचा. यदि इसी मानक से चला जाये, तो 2019 के लोकसभा चुनाव तक हमें सियासी विमर्श में बड़ी तेज गिरावट के लिए तैयार रहना चाहिए.
गुजरात चुनाव ने हमारी राजनीतिक विफलता के भयावह परिदृश्य की एक झांकी दिखा दी है. इसने यह बता दिया कि किस तरह सत्ता और विपक्ष में बैठे हमारे शासकों ने भारत की अवधारणा के साथ विश्वासघात किया है. इससे एक बार फिर एक विकल्प की आवश्यकता रेखांकित होती है.(अनुवाद: विजय नंदन)