पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
अभी राष्ट्र हिमाचल तथा गुजरात के विधानसभा चुनाव परिणामों के साथ ही कांग्रेस पार्टी के अगले नये अध्यक्ष के पदस्थापन की प्रतीक्षा कर रहा है, यह कुछ ऐसे बिंदुओं पर चिंतन का समय है, जो तात्कालिक तौर पर कम अहम लगते हुए भी दीर्घावधि में हमारे गणतंत्र के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं.
लोकतंत्र अपनी परिभाषा से ही स्पर्धात्मक राजनीति का द्योतक है, पर क्या जीतना इतना अहम हो जाना चाहिए कि उसके हित आदर्शों तथा सिद्धांतों से सारे संबंध तोड़ लिये जाएं? चाणक्य के उत्तराधिकारियों के रूप में क्या हमने शत्रुओं के विरुद्ध विहित उनकी नीतियों को अपने लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धियों पर आजमाने को ही करणीय समझ लिया है? या फिर जिन्हें चाणक्य की समग्र नीतियों की ज्यादा जानकारी नहीं है, उन्होंने मुहब्बत और जंग में सब कुछ जायज की पुरानी कहावत को विश्व के इस सर्वाधिक बड़े लोकतंत्र का आदर्श वाक्य बना डाला है?
एक ऐसे वैश्विक समाज में, जहां सूचनाओं का तत्क्षण तथा अविरल प्रवाह भारतीय लोकतंत्र की विस्तृत कार्यप्रणाली प्रदर्शित करता ही रहता है, क्या धर्म, जाति एवं धन-शक्ति ही वैसे मुद्दे बच गये हैं, जो सियासी वर्ग को जीवंत किये रहते हैं? पिछले कई दिनों से टीवी पर चलती ‘प्राइम टाइम’ बहसें राहुल गांधी के हिंदू होने-न होने मात्र पर केंद्रित हैं.
किसी भी विदेशी प्रेक्षक को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि भारत के चुनाव अर्थव्यवस्था के हालात अथवा सड़कें, अस्पताल, स्कूल, रोजगार, कृषि उत्पादकता जैसे सामान्य जन के जीवन को छूनेवाले मुद्दों की बजाय इस मुद्दे पर लड़े जाते हैं कि हिंदुओं में कौन असली या नकली हिंदू है. इस मुद्दे ने जो एक कृत्रिम उत्तेजना पैदा कर रखी है, वह मनोरंजक से अधिक और कुछ भी नहीं है. हिंदू धर्म के बुनियादी सिद्धांतों को नकारने की बुनियाद पर ही बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई, फिर भी बहुत से हिंदू बुद्ध को भगवान विष्णु का एक अवतार मानते हैं.
अपनी मजबूती में अपनी अंतर्निहित आस्था के बल पर विभिन्न विचलनों को भी पचा डालने की सामर्थ्य से संपन्न एक धर्म को स्वार्थी सियासतदानों द्वारा क्षुद्रता के ऐसे अतल गर्त में डाला दिया जाना वस्तुतः हिंदू धर्म का अपमान ही है.
एक परिपक्व लोकतंत्र के लिए जो कुछ वास्तविक अहमियत का होना चाहिए था, धर्म उससे ध्यान भटकाने का एक साधन बना दिया गया है. इसी उद्देश्य के लिए अति राष्ट्रवाद की उत्तेजना भी पैदा की जा रही है. हमारे संस्थापक नेताओं की महान टोली में से कुछ को सामने लाकर यह दर्शाया जा रहा है कि किस पार्टी ने किसकी उपेक्षा की, जबकि जनता यह जानना चाहती है कि वर्तमान में किस पार्टी ने उनकी वैध प्रत्याशाओं की अनदेखी की है.
जातिवाद जीत पक्की करने का एक अन्य सूत्र बन गया है. हमारी चुनावी राजनीति में निराशावाद विष की ही भांति व्याप्त हो चुका है. एक फिल्म के विरुद्ध एक समुदाय के गुस्से को हद से ज्यादा बढ़ने दिया जा रहा है, क्योंकि उस समुदाय के वोट अहम हैं. इस प्रक्रिया में यदि हिंदू जन तालिबानों के बिरादर नजर आने लगें, तो भी कोई बात नहीं. चुनाव जीतने की तात्कालिकता हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण बन गयी है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी बाकी सारी शर्तें गौण बन कर रह गयी हैं.
इस माहौल में राष्ट्रीय संस्थाओं की निष्ठा को लेकर भी गंभीर चिंताएं पैदा हो रही हैं. मेरे लिए तो यह अभी भी साफ नहीं है कि हिमाचल प्रदेश पर आदर्श व्यवहार संहिता लागू करते हुए भी क्यों चुनाव आयोग ने गुजरात के मामले में इतनी अधिक देर कर दी.
इसी तरह, गुजरात की चुनावी जीत पर भाजपा की एकाग्रता के हित संसदीय सत्र की तिथियां सिर्फ इसलिए बढ़ाना भी उतना ही अस्वीकार्य है, क्योंकि वहां उसके दो दर्जन से भी ज्यादा केंद्रीय मंत्री पार्टी के कार्य में लगे हैं. यह भी जरा अविश्वसनीय-सा लगता है कि सीबीआइ, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों एवं आयकर विभाग को केवल विपक्षी पार्टियों के नेताओं में ही खोट दिखती है, जबकि भाजपा नेताओं पर लगे आरोपों में उन्हें कोई दम नजर नहीं आता.
मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, की रिपोर्टें भी आज ध्रुवीकरण का शिकार बनी हैं और अधिकतर चैनल सत्ताधारी दल के सुर में बोल रहे हैं. इवीएम का ठीक तरह काम न करना चिंता की एक अन्य वजह है.
चिंताजनक यह नहीं कि वे यदा-कदा गड़बड़ हो जाते हैं, बल्कि यह है कि वे जब भी गलती करते, तो भाजपा के ही पक्ष में करते हैं. ऐसे में, चुनाव आयोग को कोशिशें और भी तेज करनी चाहिए कि मतदाताओं को निष्पक्षता का भरोसा दिलाया जा सके.
हमारा लोकतंत्र उत्तरोत्तर एक ऐसे रोग से ग्रस्त होता जा रहा है, जिसे चुनाव जीतने की अपनी होड़ में राजनीतिज्ञ और राजनीतिक पार्टियां पहचानने से इनकार कर रही हैं.
ऐसी किसी भी पार्टी को, जो खुद को एक अविराम चुनावी मशीन में तब्दील कर लेती है, यह तो समझना ही चाहिए कि ऐसे में वह उस नैतिक बुनियाद का ही अवमूल्यन करती है, जिस पर लोकतंत्र को अवस्थित होना ही चाहिए. दीर्घावधि में इसके हानिकारक परिणाम होंगे, जो एक-दो चुनाव जीत लेने के तात्कालिक उल्लास से बहुत आगे जायेंगे.
(लेखक के अपने विचार हैं.) (अनुवाद: विजय नंदन)