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बेघर जिंदगियां और हमारे शहर
मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू मौसम बदल रहा है. जाड़े में प्रकृति सुंदर हो जाती है. इस नजारे के लिए दिल्ली का मुगल गार्डन लोगों के लिए खोल दिया जाता है. लेकिन, इसी देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए हर जाड़ा मौत का पैगाम लेकर आता है. आप यदि रात में […]
मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
मौसम बदल रहा है. जाड़े में प्रकृति सुंदर हो जाती है. इस नजारे के लिए दिल्ली का मुगल गार्डन लोगों के लिए खोल दिया जाता है. लेकिन, इसी देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए हर जाड़ा मौत का पैगाम लेकर आता है. आप यदि रात में दिल्ली की सड़कों पर निकल जाएं, तो आपको एक दूसरी ही दिल्ली दिखेगी. उस दूसरी दिल्ली में लाखों लोग सड़क पर सोने का प्रयास कर रहे होते हैं. कौन हैं ये लोग? क्यों रहते हैं ये सड़कों पर?
ये बेघर लोग हैं. और इस प्रजाति के लोग केवल दिल्ली में ही नहीं, बल्कि भारत के सभी बड़े शहरों में मिल जायेंगे. भारत ही क्या दुनिया के सभी शहरों में मिलेंगे. मैंने खुद एक बार डेनमार्क की राजधानी में कुछ लोगों को एक बड़े मकान के सामने से पुलिस के डर से भागते देखा था.
मुझे लगा कि बड़े लोहे का दरवाजा वाला वह भवन शायद जेलखाना हो और खड़े लोग मुलाकाती हों, जैसा अक्सर मैं अपने छोटे से शहर में देखा करता था. लेकिन, पुलिस वालों से पूछने पर पता चला कि वे बेघर लोग थे और यह जेल सा दिखनेवाला मकान एक चर्च था. लेकिन, अंतर यह है कि भारत में इनकी संख्या बहुत ज्यादा है और विकसित देशों की तरह यहां उनके लिए कोई सरकारी नीति नहीं है.
एक अनुमान के अनुसार, केवल दिल्ली में चार लाख से ज्यादा लोग चौबीस घंटे और सातों दिन सड़क पर रहते हैं.वहीं उनका खाना-पीना और सोना, सब कुछ चलता है. नयी दिल्ली में आपको उनसे कम मुलाकात होगी, क्योंकि वहां तो ‘गंदगी, गरबी, मैलापन को दूर करने के लिए सुद्धयोधन के पहरेवाले’ लगे रहते हैं. लेकिन, ये लोग पुरानी दिल्ली में ज्यादा मिलते हैं.
आप लाल किला और पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास जायेंगे, तो कपड़े की पोटलियों की तरह आपको सड़क के दोनों तरफ फुटपाथ पर और कभी-कभी बीच में डिवाइडर पर में भी मिल जायेंगे. पुरानी दिल्ली स्टेशन के ठीक सामने एक पार्कनूमा जगह है, जहां हजारों लोग रात में सोते हैं और उन्हें ओढ़ने-बिछाने के लिए कंबल जैसी कोई चीज, जिसे ‘ठिया’ कहते हैं, रात भर के लिए किराये पर मिल जाती है. विडंबना देखिए कि कुछ को तो वह ठिया भी नसीब नहीं है. जाड़े की ठिठुरन में उनकी हालत आप समझ सकते हैं.
अब देखें कि कौन हैं ये लोग और क्यों रहते हैं ये सड़कों पर? आमतौर पर उन्हें देखनेवाले ‘सभ्य लोग’ यह समझते हैं कि ये लोग बेरोजगार हैं और भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. कम-से-कम भारत में और दिल्ली में तो ऐसा नहीं ही है. ये कामगार हैं. दिल्ली की जिन गलियों में गाड़ियां नहीं जा पाती हैं, उन गलियों में रातभर समान ढोने काम कौन करता है? ऐसे तमाम छोटे-बड़े काम, जिनका सरकारी श्रम विभाग के पास कोई लेखा-जोखा नहीं है, इन लोगों का ही होता है. रिक्शा चलाना, ठेला चलाना, कचरा साफ करना, और ना जाने इस महानगरी के कितने सारे काम इनके जिम्मे होता है.
इसके लिए न कोई न्यूनतम मजदूरी तय होती है और न ही काम के घंटों का कोई हिसाब-किताब ही होता है. जो मिलता है, बस उतने में ही वे काम करते जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि इनमें से कुछ लोग भीख भी नहीं मांगते हैं. लेकिन, ऐसा करना उनकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि यह बेघरी का परिणाम है. लोग पहले भरपूर मेहनत करते हैं.
लेकिन, यदि आपको हर अगले दिन अपनी शारीरिक क्षमता को बनाये रखने के लिए आवश्यक भोजन और आराम न मिले, तो तो फिर क्या होगा. धीरे-धीरे काम के पावदान पर नीचे लुढ़कने लगते हैं. यदि बीच में बीमार हो गये, तो फिर तो तेजी से लुढ़क जाते हैं. और फिर एक दिन काम करने के लायक ही नहीं रह जाते हैं. महिलाओं के लिए बेघर होने का क्या मतलब है, इसे आप समझ सकते हैं. बलात्कार उनके लिए आम बात है. इस देश में बड़ी संख्या में बच्चे भी बेघर हैं. उनके लिए तो यह नर्क से भी बदतर है.
उनके साथ मार-पीट, यौन शोषण आदि सब कुछ होता है. दिल्ली में तो यह खबर आम है कि ड्रग रैकेट भी इससे जुड़ा हुआ है. इनके बीच ड्रग बेचा जाता है. जो कुछ ये कमाते हैं, उसे ड्रग माफिया को भेंट चढ़ा देते हैं. माफ कीजियेगा! यदि आप यह समझते हैं कि ड्रग लेना इनकी इच्छा पर निर्भर करता है, तो आप गलत हैं. उसका भी एक पूरा तरीका है, जिसके जरिये इन्हें उस गंदगी में धकेला जाता है.
अब सवाल है कि इसकी जिम्मेदारी किसकी है? यदि ये भी भारत के नागरिक हैं, तो इनका मानवाधिकार क्या है? यदि ये मजदूर हैं, तो इन्हें न्यूनतम मजदूरी दिलाने की जिम्मेदारी किसकी है? दिल्ली जैसे शहर में तो ज्यादातर बेघर लोग बीमारू राज्यों से आते हैं.
जिसमें बिहार और झारखंड और बंगाल से आनेवालों की संख्या सबसे ज्यादा है. क्या इन राज्यों का यह दायित्व नहीं बनता है कि वे अपने यहां से पलायन को रोकने का प्रयास करें? क्या इनका यह दायित्व नहीं बनता है कि ऐसे लोगों का कुछ लेखा-जोखा रखें और यह ध्यान रखें कि जहां भी वे जाते हैं, कम-से-कम मनुष्य की तरह रह पाएं? यदि इन राज्यों से पलायन निश्चय ही है, तो क्यों नहीं ऐसे लोगों को कुछ कौशल हासिल कर बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए?
राजनीति शास्त्र के सामान्य सिद्धांत के हिसाब से भी यदि राज्य अपने नागरिकों के मानवाधिकारों का देखभाल नहीं कर सकता हो, तो फिर उसकी अस्मिता खतरे में हो सकती है.
जो लोग भारतीय संस्कृति के महान होने का दंभ भरते हैं और इसे अनेक लोग ज्ञान का भंडार मानते हैं, उन्हें भारतीय परंपरा के राजधर्म का ज्ञान भी होना चाहिए. इस परंपरा में राजा वेश बदलकर रात में सड़कों पर घूमा करते थे, ताकि वह अपनी प्रजा की समस्याओं से रू-ब-रू हो सके. सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी और हातिमताई जैसी कथाएं केवल कहानियां नहीं हैं, बल्कि इनमें समाज में राजधर्म के सिद्धांत भी दर्ज हैं, जिन्हें समझा जाना चाहिए.
कम-से-कम इतना तो करना सरकार का दायित्व है कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी और रहने के लिए उचित ठिकाना मिल सके, ताकि ये लोग एक मानवीय जीवन जी सकें. मजदूरों की कार्य क्षमता बढ़ने से शायद देश का ही फायदा होगा. जिन राज्यों से ये महानगरों में आते हैं, उनका भी दायित्व तय होना चाहिए. विकास के नाम पर खर्च किये जानेवाले पैसे में उनका भी कुछ हिस्सा बनता है. इसे गहराई से समझना जरूरी है.
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