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सबसे खतरनाक क्षण!

।। अपूर्वानंद।। (जाने-माने विद्वान व टिप्पणीकार) कैमरा बार-बार जा कर उसी क्षण पर टिकता था. मेरी बेटी ने विचिलत होकर कहा, ‘‘चैनल बदल दो, अच्छा नहीं लग रहा.’’ लेकिन चैनल उस थप्पड़ की आवाज न सुना पाने की लाचारी की भरपाई उस दृश्य को दुहरा-दुहरा कर कर रहे थे. उन्हें सोलह साल की मेरी नवयुवती […]

।। अपूर्वानंद।।

(जाने-माने विद्वान व टिप्पणीकार)

कैमरा बार-बार जा कर उसी क्षण पर टिकता था. मेरी बेटी ने विचिलत होकर कहा, ‘‘चैनल बदल दो, अच्छा नहीं लग रहा.’’ लेकिन चैनल उस थप्पड़ की आवाज न सुना पाने की लाचारी की भरपाई उस दृश्य को दुहरा-दुहरा कर कर रहे थे. उन्हें सोलह साल की मेरी नवयुवती बेटी की तड़प क्योंकर सुनायी दे? चैनल बदलते अधीर दर्शक इस दृश्य से वंचित न रह जायें, इस चिंता के मारे उसे हथौड़े की तरह बार-बार बजाया गया. यह हमला था. लेकिन हिंदी में हमला कहने पर हिंसा का बोध अधिक होता है, सो अखबारों ने ‘केजरी को थप्पड़’,‘पहले माला फिर थप्पड़’, ‘केजरीवाल को फिर थप्पड़’ जैसे शीर्षक लगाये. भाषा का अध्ययन करनेवाले जानते हैं कि शब्दों के चयन के पीछे की मंशा उनका अर्थ तय करती है. ‘थप्पड़’ कहने से हिंसा की गंभीरता कम होती है और हिंसा के शिकार की कमजोरी ज्यादा उजागर होती है. थप्पड़ से किसी की जान नहीं जाती, उसकी निष्कवचता अधिक प्रकट होती है. उसमें किसी योजना की जगह एक प्रकार की स्वत:स्फूर्तता का तत्व होता है. कहा जा सकता है कि थप्पड़ मारनेवाले की मंशा सिर्फ नाराजगी का इजहार था. अंगरेजी में भी ‘स्लैप’ शब्द का ही इस्तेमाल किया गया, यह भी लिखा गया, ‘केजरीवाल स्लैप्ड अगेन’. इसमें हमला करनेवाले से ज्यादा हमले के शिकार की ही गलती नजर आती है, मानो उसे मार खाने की आदत सी पड़ गयी हो. आदतन मार खानेवाला सहानुभूति की जगह हास्य का पात्र बन जाता है.

भोजपुरी में ‘ठेसहा अंगूठा’ वैसे अंगूठे को कहते हैं जिसे रह-रह कर ठेस लगती रहती है. हिंसा की शिकार लड़कियां या औरतें इस सवाल का जवाब नहीं दे पातीं कि बाकी इतनी औरतों के साथ यह क्यों नहीं होता, उन्हीं के साथ क्यों होता है. मानो वे इसे दावत दे रही हों. अरविंद पर होनेवाले हमलों के वर्णन में यह सुझाव छिपा था कि अरविंद ने अपनी करनी से लोगों में गुस्सा भर दिया है जिसके चलते वे खुद पर काबू नहीं रख पा रहे हैं.

टेलीविजन को हमले से ज्यादा इस पर ऐतराज था कि अरविंद को क्यों एक आम आदमी के गुस्से के इजहार के पीछे कोई साजिश नजर आयी! अरविंद वह पूछ रहे थे जो दरअसल पत्रकारों को पूछना चाहिए था कि क्यों इस चुनाव अभियान में एक ही नेता पर और उसके बाकी सहयोगियों पर शारीरिक हमले हो रहे हैं! यह भी कि ये हमले तभी से क्यों शुरू हुए जब से इस दल ने कांग्रेस पार्टी के साथ बराबरी से भारतीय जनता पार्टी की आलोचना शुरू कर दी! लेकिन चैनलों को इस पहलू में दम नजर नहीं आता. एक तरफ तो यह कहा जा रहा है कि जनता का क्रोध सबसे अधिक कांग्रेस पार्टी के प्रति है. लेकिन इसका उत्तर खोजने की कोशिश नहीं की जा रही कि यह गुस्सा अरविंद केजरीवाल पर क्यों प्रकट हो रहा है!

अरविंद पर हुआ हमला भयानक था. उनकी आंख को गहरी चोट लगी और उनका पूरा चेहरा उस वार से सूज गया. हमला नाटकीय भी था और वह दृश्य बनता था. पहले माला पहना कर फिर वार करना. इससे कई यादें ताजा हो सकती हैं : गांधी को नमस्कार करके उन पर गोली चलाना, राजीव गांधी को माला पहना कर उन्हें बम से उड़ा देना. इसलिए भी इस हमले की गंभीरता को समझा जाना चाहिए था. यह नाकाबिले मंजूर है, ऐसा किसी ने जोर देकर कहा नहीं. अरविंद सुरक्षा घेरा ले सकते हैं, लेकिन अब तक वे इससे इनकार करते रहे हैं. जो आज थप्पड़ है वह कल गोली या बम न होगा, ऐसा यकीन के साथ कोई कह नहीं सकता. किसी ने गुजरात या बनारस में उन पर हुए बारम्बार हमले को भी गंभीरता से नहीं लिया. मानो इस तरह गुस्सा जाहिर करना लोकतांत्रिक ही है.

गुजरात में ऐसे हमलों का साक्षी रह चुका यह लेखक जानता है कि वे किस तरह नियंत्रित किये जाते हैं. जब आप थोड़ी चोट या जख्म के साथ छोड़ दिये जाते हैं तो संदेश यह होता है कि तुम्हारी जान मेरे रहमो-करम पर है. उसमें बच जाना भी हमलावर के प्रति कृतज्ञता के लिए पर्याप्त है : क्या वह चाहता तो आपकी जान नहीं ले लेता! या तुम इस काबिल भी नहीं कि तुम्हें खत्म किया जाए!

अरविंद पर हमले के बाद राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी शिक्षाप्रद थी. गुजरात हो या बनारस, हर जगह उन पर हुए हमलों की बिना शर्त निंदा करने से भारतीय जनता पार्टी को गुरेज रहा है. इस बार तो उनके प्रवक्ताओं की खुशी छिपाये नहीं छिपती थी. वे बार-बार साबित करना चाहते थे कि ये हमले वे खुद अपने ऊपर करवा रहे हैं. कांग्रेस पार्टी ने जरूर निंदा में किसी अगर-मगर का सहारा नहीं लिया. पर अपने आलोचक को हिंसा का शिकार देख जो राजनीतिक दल उल्लसित हो उठे, वह सत्ता में आने पर अपने आलोचकों और विरोधियों का क्या करेगा, यह सोच कर और किसी की नहीं, पत्रकारों की रूह जरूर कांपनी चाहिए. पर ऐसा है नहीं. तो क्या आलोचना का प्राथमिक धर्म वे छोड़ना ही चाहते हैं?

अरविंद केजरीवाल पर इस आक्रमण के आसपास ही दिल्ली विश्वविद्यालय में एक अध्यापक पर, जो विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी भी हैं, उनके कमरे में घुस कर किये गये हमले की खबर भी आयी. लेकिन इसके वर्णन में भी यह बताना अधिक जरूरी समझा गया कि आक्रांताओं ने इत्मीनान से उनके चेहरे पर जूते की पॉलिश लगायी. ऐसा करते हुए उनमें से एक ने इसका वीडियो भी बनाया जो आज के चलन के मुताबिक तुरंत जारी कर दिया गया. उसमें भी अध्यापक की लाचारी, असहायता का दृश्य ही था. अध्यापक पर हुए इस हमले को लेकर हुई प्रतिक्रि या हिंसा के प्रति हमारा पक्षपातपूर्ण रवैया प्रकट करती है. हमलावर उस छात्र संगठन के सदस्य थे जो अभी के प्रधानमंत्री पद के एकमात्र उम्मीदवार का समर्थक है. हमले का कारण बताया गया कि अध्यापक ने आज के मसीहा की खिल्ली उड़ाने का जुर्म किया था जिसे नौजवान बरदाश्त न कर पाये. और किया क्या उन्होंने? जान से तो नहीं मार डाला, चेहरे पर पॉलिश लगा कर रोष भर जाहिर किया.

प्रशासन और शिक्षकों में हुई इसकी प्रतिक्रि या और चिंताजनक है. प्रशासन ने बयान में कहना जरूरी समझा कि हमलावर का यह आरोप झूठा है कि अध्यापक ने मसीहा की शान में गुस्ताखी की थी. मानो अगर की होती तो छात्रों का हमला जायज हो जाता! विश्वविद्यालय प्रशासन ने फौरन दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के दफ्तर पर ताला लगा दिया जैसे इस हमले के लिए छात्र संघ जवाबदेह हो. प्रशासन की यह प्रतिक्रि या इसलिए ईमानदार नहीं है कि पिछले साल इसी छात्र संघ के अध्यक्ष ने जब एक अध्यापक पर हमला किया तो प्रशासन ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी .क्या इसलिए कि वह प्रशासन का पक्षधर माना जाता था? दूसरी ओर, इस हमले पर आश्चर्य व्यक्त लिया गया क्योंकि अध्यापक और छात्र एक ही विचारधारा को मानने वाले हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक पर हुए हमले के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को प्रकारांतर से जवाबदेह ठहराने की कोशिश भी हुई. पिछले तीन साल से विश्वविद्यालय में लोकतांत्रिक वातावरण का क्षरण हुआ है. प्रशासन ने शिक्षकों या छात्रों की प्रतिनिधि संस्थाओं से संवाद समाप्त कर दिया है और एक तरह से हर तबका अधिकारवंचित अनुभव कर रहा है. ऐसे माहौल में, जहां अभिव्यक्ति के बाकी रास्ते बंद हो जाएं, अगर इस तरह की हिंसात्मक अभिव्यक्ति हो तो क्या आश्चर्य! और अगर उस पर हो जो इस माहौल के लिए जिम्मेवार माना जाता है तो अफसोस भी क्यों!

जो इस हिंसा को स्वाभाविक ठहराने के लिए तर्क खोज रहे हैं उन्हें सिर्फ याद कर लेना चाहिए कि इसी संगठन के सदस्यों ने कुछ वर्ष पहले इसी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष पर हमला किया था और उनकी कब्र बनाने के इरादे के नारे लगाये थे. उस समय उनके रोष का कारण था इतिहास विभाग द्वारा हिंदू भावनाओं को आहत करनेवाले एके रामानुजन के निबंध का चयन. यह विडंबना ही है कि कुछ वर्ष बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने, जिसके एक सदस्य वे अध्यापक हैं जिन पर अभी इसी संगठन के सदस्यों ने हमला किया, उनकी भावनाओं की रक्षा करते हुए वह निबंध पाठ सूची से हटा दिया था.

कुछ वर्ष पहले इसी संगठन के सदस्यों ने कला संकाय में हो रही एक सभा में जाकिर हुसैन कॉलेज के अध्यापक एसएआर गीलानी के चेहरे पर थूक दिया था. उस समय रोष का कारण गीलानी का ‘आतंकवाद समर्थन और राष्ट्र द्रोह’ था. भूल नहीं पाता कि गीलानी पर हमले की घटना के मिनटों बाद उसका तर्क खोजते हुए कुछ सहकर्मी कह रहे थे कि आखिर वे भारत विरोधी तो हैं ही और संसद पर आतंकवादी हमले में छूट जाने के बाद भी शक के दायरे में तो उच्चतम न्यायालय ने उन्हें रखा ही है! उन्हें सभा में बुलाना ही गलती थी. हर हिंसा इस प्रकार किसी दीर्घकालिक या फौरी कारण से वैध या कम से कम स्वाभाविक तो ठहरा दी ही जाती है. व्यापक स्तर पर माओवादी हिंसा के पक्ष में यही तर्क दिया जाता है कि संरचनात्मक हिंसा की वह प्रतिक्रि या है. हर हिंसा का स्रोत कहीं न कहीं, किसी न किसी अन्याय में, जो कभी, कहीं हुआ हो सकता है, खोजना मुश्किल नहीं है.

मुझे कोई बीस साल पहले सीवान में डीएवी कॉलेज में अध्यापक अपने पिता और उनके सहकर्मियों पर वहां के तत्कालीन सांसद के गुंडों द्वारा परिसर में हुए हमले की याद है. यह भी कि उसका विरोध करने और उसकी निंदा करने में वामपंथी नेतृत्ववाला शिक्षक संघ हिचक गया था. क्या इसलिए कि हमलावर ‘धर्मनिरपेक्ष’ गठबंधन का सदस्य था? हिंसा की भर्त्सना बिना शर्त जब तक न की जायेगी, जब तक उसके लिए कोई औचित्य तलाशा जाता रहेगा और जब तक वह विचारधारा के आधार पर सही या गलत मानी जायेगी, उसकी पुनरावृत्ति होती रहेगी. संचार माध्यमों द्वारा हिंसा को नयनाभिराम बना कर अगर उपभोग्य बना दिया गया तो वह फिर बार-बार ‘अदा’ की जायेगी और अपनी भयावहता भी खो बैठेगी. वह लोकतंत्र का सबसे सबसे खतरनाक क्षण होगा. ( बीबीसी हिंदी से साभार)

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