बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था, ‘मेरे लिए किसी समाज की प्रगति का पैमाना उस समाज की महिलाओं की प्रगति है.’ भारतीय लोकतंत्र ने बीते छह दशकों में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में स्थिति अब भी बेहद चिंताजनक है. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा चुनावों में पहले पांच चरणों के लिए 232 सीटों पर हुए नामांकन में महिला उम्मीदवारों की मौजूदगी महज सात फीसदी है.
इन सीटों पर 3,064 पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में सिर्फ 241 महिलाएं चुनाव मैदान में हैं. जबकि देश में इस समय करीब 49 फीसदी महिला मतदाता हैं और अपने मताधिकार का प्रयोग करने के मामले में वे पुरुषों से बहुत पीछे नहीं हैं. 2009 के आम चुनावों में दोनों के मत प्रतिशत में अंतर सिर्फ 4.4 फीसदी का ही है, जो इस बार और कम होने की उम्मीद है, क्योंकि अब तक के मतदान में महिलाओं की जबर्दस्त भागीदारी दिखी है. मौजूदा लोकसभा में महिला सांसद सिर्फ 10.9 फीसदी हैं और इनमें भी ज्यादातर राजनीतिक परिवारों से संबद्ध हैं.
अगर वैश्विक आधार पर देखें तो इस मामले में 188 देशों की सूची में भारत 108वें स्थान पर है. इस मामले में नेपाल, पाकिस्तान और चीन जैसे हमारे पड़ोसी देश हमसे बहुत आगे हैं. महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की यह स्थिति हमारे समाज में मौजूद पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता और लैंगिक भेदभाव का सूचक है. इसे राजनीतिक दलों के आंतरिक संगठन में महिला पदाधिकारियों की अनुपस्थिति में भी देखा जा सकता है. हालांकि कुछ दलों में महिला राजनेता प्रमुख पदों पर हैं, पर उनके दल में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य है.
राजनीति के गलियारों में आधी आबादी की कम हिस्सेदारी के कारण सरकार और पार्टियां उनकी समस्याओं को जरूरी गंभीरता से नहीं लेतीं. इस बार भी चुनावी घोषणापत्रों में महिलाओं से जुड़े मसलों पर व्यापक चर्चा का अभाव है. इस मसले पर महिला नेताओं की चुप्पी हैरान करती है. पंचायतों व नगरपालिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के बेहतर परिणाम हमारे सामने हैं. ऐसे में संसद व विधानसभाओं में भी महिलाओं के लिए आरक्षण पर बहस एवं निर्णय की दरकार है.