मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
कुछ दिनों पहले तक दृश्य कुछ इस तरह का था कि किसी सरकारी सर्वेक्षण में नाम लिखने के लिए अगर कोई दरवाजे पर आ जाता था, तो फलनवा की माई की अनुपलब्धता में सत्ताइस आदमी से पूछना पड़ जाता था कि बहुरिया का नाम क्या है.
सबको यही पता होता था कि उसका नाम या तो पूरनिया वाली है या रमेसरा की माई. लेकिन तभी कोई स्त्री फुसफुसाकर कहती थी कि उसका असली नाम सुलोचना देवी है, तब जाकर कहीं फॉर्म में यह दर्ज हो पाता था. लेकिन, फिर कभी कोई इस नाम का पुकार करता नहीं था, तो नाम का गुमनाम हो जाना स्वाभाविक हो जाता था.
एक लड़की जब दुल्हन बनकर ससुराल आती है, तो अस्थायी रूप से उनका बहुत कुछ नैहर में ही छूट जाता है. बचपन में माता-पिता द्वारा जतन से दिया गया और बड़े प्यार से पुकारा जानेवाला नाम भी जब वह यहां आकर खोने लगती हैं, तब कचोट कितना गहरा हो जाता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. सामाजिक परंपरा को देखें, तो जन्म के बाद बच्चे का नामकरण संस्कार किया जाता है. इस परंपरा में गजब की समानता देखने को मिलती है. यह लगभग हरेक समाज और हरेक तबके में होता है.
क्या मंशा होती होगी नामकरण संस्कार के पीछे? नाम रखने के पीछे क्या तर्क हो सकता है? यही न कि नाम से ही व्यक्तियों की पहचान होती है. एक व्यक्ति द्वारा किये जा रहे कार्यों को उस व्यक्ति के नाम से ही पहचान मिलती है. नाम में क्या रखा है- यह भी एक मुहावरा है. लेकिन, नाम तो नाम के लिए ही रखे जाते हैं.
जो ग्रामीण महिलाओं के लिए कालांतर में गुमनाम बनकर रह जाता है. इस नाम की गुमनामी को यहां इनके समूचे व्यक्तित्व की गुमनामी से भी जोड़कर देखा जा सकता है.
अब सरकारी कागजातों में पिता के नाम के साथ-साथ माता का नाम भी दर्ज हो रहा है, तो घर-परिवार के सारे सदस्यों को परिवार की स्त्री सदस्यों के नाम से भी गाहे-बगाहे वाकिफ होना पड़ता है. हरेक व्यक्ति का अपना आधार कार्ड होने और बैंक में अपने नाम का खाता खुल जाने के कारण भी ग्रमीण महिलाओं के नाम स्मरण में लोगों को सुविधा मिल रही है.
सरकारी प्रक्रिया से इतर भी माहौल में थोड़ा सा बदलाव आ रहा है. नवविवाहित अपनी ब्याहता को उनके नाम से भी पुकार उठते हैं. लेकिन, माहौल इतना भी नहीं बदला है कि ऐसा करते हुए उन्हें लाज-शर्म या बड़े-बुजुर्गों के रोक-टोक का भय न हो. स्थितियां बदल रही हैं. लेकिन यह वर्षों की वर्जनाएं हैं. दिनों में टूटेंगी भी तो कैसे टूटेंगी. परंतु जो शुरुआत हुई है- वह बेहतर कल का आभास देता है. आज भले ही सिर्फ पतिदेव के मुंह से कभी-कभार पत्नी का नाम उच्चारित होता हो, कल देखा- देखी और लोग भी नाम लेंगे!