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घोषणापत्र को याद कौन रखता है!

।। मोहन गुरुस्वामी।। (वरिष्ठ अर्थशास्त्री) अक्सर ऐसा लगता है कि चुनावी घोषणापत्र की तैयारी और घोषणाएं एक कर्मकांड मात्र हैं, जिनका परिणामों पर कोई असर नहीं होता. चूंकि घोषणापत्र अक्सर बिना समुचित तैयारी और गंभीर विचार-विमर्श के ही लिखे जाते हैं, इसलिए संभव है कि सत्ता में आनेवाली पार्टी इसे लागू करने की कोशिश न […]

।। मोहन गुरुस्वामी।।

(वरिष्ठ अर्थशास्त्री)

अक्सर ऐसा लगता है कि चुनावी घोषणापत्र की तैयारी और घोषणाएं एक कर्मकांड मात्र हैं, जिनका परिणामों पर कोई असर नहीं होता. चूंकि घोषणापत्र अक्सर बिना समुचित तैयारी और गंभीर विचार-विमर्श के ही लिखे जाते हैं, इसलिए संभव है कि सत्ता में आनेवाली पार्टी इसे लागू करने की कोशिश न करे.

2004 के चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस ने पहले 100 दिनों के लक्ष्य का उल्लेख किया था, लेकिन कुछ खास नहीं किया गया. किसी ने पूछा भी नहीं कि पार्टी ने इसे लागू क्यों नहीं किया? यह सिर्फ एक घोषणापत्र था, जिस पर संसद में या मीडिया में बहस की कोई जरूरत नहीं थी. इसी तरह 1998 के भाजपा के घोषणापत्र में वादा किया गया था कि उनकी सरकार एक संयुक्त रक्षा कमांड बनायेगी, जिसका एक प्रमुख होगा. पार्टी पांच सालों तक सत्ता में रही, लेकिन इस बारे में उसने कुछ नहीं किया. यह इसलिए भी उल्लेखनीय है कि भाजपा कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की शरणस्थली है. अब 2014 में बहुत देर से आये भाजपा के घोषणापत्र में चारों महानगरों और 100 नये शहरों को रेल एवं सड़क मार्ग से जोड़ने का भव्य वायदा किया गया है, लेकिन उसमें कोई उल्लेख नहीं है कि यह कैसे होगा और कितना खर्च आयेगा. अगर आप कुछ वायदा करते हैं तो आपको यह भी पता होना चाहिए कि यह किस तरह से पूरा होगा और इसके लिए धन कहां से आयेगा. साफ है कि भाजपा को इसका अंदाजा नहीं है और उसने इस पर विचार भी नहीं किया है.

अधिकतर घोषणापत्रों में सिर्फ लक्ष्य और उद्देश्यों का विवरण होता है और इस मामले में विभिन्न पार्टियों के घोषणापत्रों में बहुत कम अंतर होता है. उदाहरण के लिए कांग्रेस, भाजपा, सीपीआइ (एम) और आम आदमी पार्टी ने असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों के लिए पेंशन का वायदा किया है, जिनकी संख्या 35 से 40 करोड़ है. लेकिन इस मुद्दे पर कोई विवरण नहीं दिया गया है. इन सब ने गरीबों के लिए आवास का वायदा किया है, लेकिन कितने घर बनाने की योजना है और इसका खर्च क्या है, इसका कोई विवरण नहीं है. चूंकि पार्टियां मुद्दों पर आपस में बहस नहीं करती हैं और मीडिया भी इनकी चर्चा नहीं करता, इसलिए वे घोषणापत्र में कुछ भी और किसी भी हद तक वायदा कर जाते हैं.

इनमें कई वायदे साफ तौर पर धोखा देने और भ्रमित करनेवाले हैं. जैसे, भाजपा का घोषणापत्र ‘उत्पादन लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ’ का वायदा करता है. यह उत्पादन का 50 प्रतिशत है या उत्पादन खर्च के बराबर अतिरिक्त 50 फीसदी? पार्टी इसे कैसे करेगी, इस पर घोषणापत्र चुप है. क्या यह कभी हो भी सकता है? अगर लाभ को निर्धारित कर दिया जायेगा, तो महंगाई रोकने को कैसे सुनिश्चित कर सकेंगे? इसी तरह अगर लाभ को निर्धारित कर उत्पादन लागत से जोड़ दिया जायेगा, तो उत्पादन लागत को कम रखने का क्या लाभ होगा? किसानों को उर्वरक, ऋण और बिजली पर सब्सिडी मिलती है और उन्हें पानी मुफ्त मिलता है, क्या यह लाभ के गणित के हिसाब में एक कारक होगा? ऐसा लगता है कि भाजपा इसमें चतुराई दिखाने की कोशिश कर रही है, उसने मुद्दों पर गंभीरता से विचार नहीं किया है.

पार्टी आरक्षण के मुद्दे पर तो और अधिक चतुराई का प्रयास कर रही है. इसके एक वाक्य ‘एससी/एसटी, ओबीसी और अन्य कमजोर वर्गो को सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित विकास में लाने’ का क्या मतलब है, यह भाजपा या उसके प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ही बता सकते हैं. लेकिन मोदी जब तक बहुत आश्वस्त न हों, मीडिया को इंटरव्यू नहीं देते या प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करते. इसलिए उनसे कोई यह सवाल पूछ भी नहीं रहा है और न ही पूछेगा. भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए भाजपा का मंत्र तकनीक आधारित इ-गवर्नेस, नागरिक और सरकार में दूरी को कम करना और प्रक्रियाओं को सरल करना है. लेकिन क्या पार्टी को यह पता नहीं है कि वाहनों के पंजीकरण और ड्राइविंग लाइसेंस बनाने की प्रक्रिया कई राज्यों में कंप्यूटर तकनीक पर ही आधारित है, फिर भी इससे न तो भ्रष्टाचार दूर हुआ और न ही काम करवाने के खर्च में कमी आयी है. इसी तरह अधिकतर राज्यों में जमीन के रिकॉर्ड कंप्यूटरों में संग्रहीत हैं, लेकिन जमीन के लेन-देन का दस्तावेज निकालने में आज भी खर्च करना पड़ता है. सरकार के अधिकतर कामकाज को सूचना तकनीक के दायरे में लाने से भ्रष्टाचार की समस्या का हल नहीं होगा. पासपोर्ट बनवाने में देरी का कारण क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय नहीं हैं, बल्कि पुलिस द्वारा आवेदक के पते के सत्यापन की प्रक्रिया है, जो लेन-देन के बिना आज भी पूरी नहीं हो पाती है. माफिया अबू सलेम के पास कई वैध पासपोर्ट का होना आश्चर्य की बात नहीं है.

इसका निदान भ्रष्टाचार को किसी भी हालत में बर्दाश्त न करने और न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाकर दंड देने की कारगर नीति में है. लेकिन इसके लिए न्याय तंत्र में सुधार की जरूरत होगी, जो खुद भी भ्रष्टाचार की चपेट में है और यह रोग ऊपरी अदालतों में भी होने का संदेह है. ऐसा कर पाना वरिष्ठ वकीलों से भरी पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल है, क्योंकि उनकी अकूत कमाई न्यायिक प्रक्रिया में होनेवाली देरी का ही नतीजा है. इसके बरक्स कांग्रेस ने कुछ अधिक कहने की जरूरत नहीं समझी और बस इतना लिख कर पल्ला झाड़ लिया कि वह राहुल गांधी के प्रस्तावित कानूनों को लागू करेगी. पिछले 15 सालों में राष्ट्रीयकृत बैंकों के बैंक क्रेडिट 1.2 लाख करोड़ से बढ़ कर 24 लाख करोड़ हो गये हैं, जिनमें 20 प्रतिशत नॉन परफॉर्मिग एसेट हैं. भाजपा और कांग्रेस 4.8 लाख करोड़ के संभावित नुकसान को अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सेक्टर के लिए गंभीर चुनौती नहीं मानती हैं, इसलिए उनके घोषणापत्रों में इसकी कोई चर्चा नहीं है. देश के 50 सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में से 36 पर भारी रकम बकाया है, फिर भी वे सरकारी बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं से और अधिक कर्ज लेने की जुगाड़ में हैं.

दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां इस चुनाव में 15 से 20 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही हैं. कहा जाता है कि लगभग 250 कॉरपोरेट जेट और हेलीकॉप्टर नेताओं की फेरी लगा रहे हैं. सवाल यह है कि इनका खर्च कौन उठा रहा है? मोदी अदानी के जहाज में उड़ रहे हैं. अदानी समूह पर 20 हजार करोड़ रुपये बकाया है, परंतु उसे और अधिक ऋण की जरूरत है, जो जनता के खजाने से ही निकाला जायेगा. लेकिन जब कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियां, सपा, बसपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, अकाली दल, जद (यू), तृणमूल, तेदेपा आदि ने इस मामले पर कोई वायदा नहीं किया है, तो भला भाजपा ऐसा क्यों करती!

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