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तन की बात
संतोष उत्सुक वरिष्ठ व्यंग्यकार धुरंधर राजनीतिज्ञ, समझदार ब्यूरोक्रेट, धार्मिक व सामाजिक विशेषज्ञों ने समस्याओं के साथ तन, मन और धन से काफी दंगल किये, मगर इनके पांव उखाड़ने की जगह और मजबूत कर दिये. अब समाज में जब भी खुराफात होती है, लोकतंत्र के चारों स्तंभ दरकने लगते हैं. राजनीति हर बार नयी पोशाक पहनकर […]
संतोष उत्सुक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
धुरंधर राजनीतिज्ञ, समझदार ब्यूरोक्रेट, धार्मिक व सामाजिक विशेषज्ञों ने समस्याओं के साथ तन, मन और धन से काफी दंगल किये, मगर इनके पांव उखाड़ने की जगह और मजबूत कर दिये. अब समाज में जब भी खुराफात होती है, लोकतंत्र के चारों स्तंभ दरकने लगते हैं.
राजनीति हर बार नयी पोशाक पहनकर आती है और हर सही प्रयास पर अपना तिकड़मी आंचल ओढ़ा जाती है. हमारे पड़ोसी बुजुर्ग के पास हर समस्या का हल है, उन्होंने बिना पूछे कुछ उपाय बताये, व्यावहारिक न भी हों, पढ़ने में क्या हर्ज है.
उन बुजुर्ग को सबसे पहली महत्वपूर्ण और ज्वलंत समस्या लगी देश में बढ़ती शारीरिक भूख. इस पर कानून बना कर ‘लागू’ कर दिये, मगर परिणाम सही नहीं निकले. भुक्तभोगियों का पूरा जीवन जीना कठिन और चुनौतीपूर्ण होता गया. चैनलों को नयी खबर मिलती गयी.
पुलिस दोषियों को पकड़ने में असहाय होती गयी. अब तो खाली बैठे एनजीओ को अपने-अपने क्षेत्र में सर्वे करना चाहिए कि किस-किस व्यक्ति की यह भूख नहीं मिटती. पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों के लिए नौकरी है नहीं, सो उनसे सामाजिक सेवा का काम करवाना शुरू कर देना चाहिए. साथ ही उनका भावनात्मक विश्लेषण कर सामाजिक इलाज भी.
इतिहास बताता है रईस साहबजादों को तमीज सीखने के लिए तवायफों के पास भेजा जाता था. अब तो देश में रईसी बढ़ती जा रही है और तमीज सिखाने का जिम्मा घर, स्कूलों और डेरों का भी नहीं रहा. हैरानी है हमारा समाज इतनी समस्याओं के बावजूद भी ‘खुश’ रहने व ‘सकारात्मक’ सोचने में व्यस्त है.
अपने मन की बात चाहे जितनी मर्जी कर लो. उसको सुनने-समझने के लिए कई भाषाओं में नियमित ब्रॉडकास्ट किया जाता है और लोगों को सुनना पड़ता है. लेकिन तन, जिसको ठीक रखने के लिए दुनियाभर के तरह-तरह के विशेषज्ञ समझाते आये हैं कि जैसा होगा तन वैसा रहेगा मन, मगर इसकी बात कोई एक भाषा में भी सुनकर राजी नहीं है, समझने की बात तो बहुत दूर है. लगता है अब हमें पुरानी संस्कृति से ही सीखना पड़ेगा. पहले भी तो ऋषि लोग पत्नियों संग खुश रहते थे, शिष्यों को भी सही संदेश देते थे. लेकिन, तथ्य यह है कि तब नीति ज्यादा थी, अब की तरह राजनीति नहीं.
गर्मी के मौसम में बुजुर्ग के इतने उपाय सुनकर मैं थक गया था. उनकी बात से लगा तो सही कि समस्याओं से आंख बचाकर निकल जाने से बात नहीं बनेगी. मुझे जल्दी थी, पत्नी ने मुझे प्याज, छांट-छांट कर लाने को कहा था, जो खाते समय कड़वे न लगें. मैं झोला लिये तेजी से बाजार की तरफ बढ़ गया.
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