10, 17 और 24 अप्रैल को झारखंड में मतदान होना हैं. 14 सांसद चुने जाने हैं यहां से. मतदान करें, यह आपका अधिकार है- रोज इस तरह के नारे लग रहे हैं. टीवी से लेकर अखबार में इसके इश्तेहार दिये जा रहे हैं. पर एक सच्चई यह भी है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो इस पूरी चुनावी प्रक्रिया से बेखबर हैं.
ये वो लोग हैं, जो रोज काम की तलाश में राज्य से बाहर जा रहे हैं. पंजाब, जम्मू-कश्मीर, केरल, असम, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों की ओर रोज मजदूरों का जत्था जा रहा है. महिलाएं, पुरुष, बच्चे.. सभी. जिन्हें चुनाव के बारे में पता भी है, तो वे कहते हैं- वोट तो एक दिन है. क्या वोट देने से पेट भर जायेगा? हम लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है.
गांव में रोजगार नहीं है, यहां रहेंगे तो रोटी कौन देगा? पहले कई बार वोट दे चुके हैं, लगा था किस्मत बदल जायेगी, पर क्या ऐसा हुआ? सरकार कहती है आपके लिए गांव में ही मनरेगा है, पर हकीकत यह है कि हम लोगों को काम नहीं मिल रहा है. झारखंड में यह गंभीर स्थिति है. लोकतंत्र का महापर्व माने जानेवाले चुनाव के प्रति ऐसी उदासीनता और भी चिंतित करनेवाली है. दरअसल राज्य गठन के 13 वर्ष बीत चुके हैं. पर गांवों के लोगों को रोटी देने के उपाय नहीं हुए हैं. सरकार कई योजनाएं चलाने का दावा भी कर रही है, पर उसका लाभ लोगों को नहीं मिलता.
झारखंड में गरीबी और बेरोजगारी की स्थिति कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बिल्कुल किशोरवय की लड़कियां भी घर से हजार- दो हजार किलोमीटर दूर जाकर घरेलू कामगार बनने को मजबूर हैं. यह जानते हुए भी कि वे दलालों के चंगुल में फंस सकती हैं, उन्हें गलत हाथों में बेचा जा सकता है, उनका आर्थिक और शारीरिक शोषण हो सकता है.
लेकिन, अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए, अपने जीवन को थोड़ा सा बेहतर बनाने के लिए उनके पास यह जोखिम उठाने के सिवाय उपाय क्या है? जिन लोगों को हमारी सरकारें और हमारा लोकतंत्र आज तक कुछ नहीं दे पाये, उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे चुनाव में भागीदारी को लेकर संजीदा होंगे! चुनाव के प्रति बेरुखी को हल्के में न लें, यह लोकतंत्र के लिए खतरे की सूचना देनवाली घंटी है.