तमाम प्रयासों और आंदोलन के बावजूद घाटशिला का सुरदा केंद्रीय विद्यालय दो अप्रैल से बंद हो गया. सुबह प्रार्थना सभा के समय प्राचार्य ने जैसे ही स्कूल बंद होने की घोषणा की, छात्र-छात्रओं की आंखें नम हो गयीं. इसकी सूचना मिलते ही अभिभावक आक्रोशित हो उठे और प्राचार्य को उनके कार्यालय में घेर लिया. महिलाओं ने शिक्षिकाओं को भी काफी देर तक बंधक बनाये रखा.
स्थानीय लोगों ने लोकसभा उम्मीदवारों को सुरदा में नहीं घुसने देने का एलान करते हुए चुनाव बहिष्कार की घोषणा की है. दरअसल, कुछ दिन पूर्व ही केंद्रीय विद्यालय संगठन, नयी दिल्ली ने विद्यालय भवन को जजर्र बताते हुए इसे तत्काल बंद करने का आदेश जारी किया था. तब से ही स्थानीय लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया था, लेकिन इस ओर किसी ने ध्यान देने की जहमत नहीं उठायी. यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो सरकार शिक्षा का अधिकार की बात कह कर बड़े-बड़े दावे करती हैं और दूसरी तरफ केंद्रीय विद्यालय को बंद कर दिया जाता है. झारखंड जैसे आदिवासी बहुल और शिक्षा के क्षेत्र में काफी पिछड़े इस राज्य के लिए ऐसी स्थिति काफी कष्टकारी है.
एक तो वैसे ही ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल ना के बराबर हैं. उसमें भी केंद्रीय विद्यालय जैसी संस्थाएं जिनका शिक्षा का स्तर काफी अच्छा माना जाता है, का बंद होना काफी क्षोभ भरा है. आखिर यह कैसे हो गया कि केंद्रीय विद्यालय का भवन जजर्र अवस्था में पहुंच गया और इसकी मरम्मत नहीं हो पायी. इसके लिए आखिर कौन जवाबदेह है? ऐसा किसकी लापरवाही से हुआ? और अगर जजर्र भवन के कारण स्कूल बंद किया जा सकता है, तो क्या इसके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जा सकती है? राज्य सरकार को भी भवन उपलब्ध कराने के लिए पहल करनी चाहिए थी. आखिर अब उन सैकड़ों-हजारों बच्चों के भविष्य का क्या होगा जो इस स्कूल में अभी तक पढ.रहे थे? विद्यालय बंद हो जाने से निश्चित रूप से इन होनहार बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है.
न जाने कितने ही परिवारों का सपना चूर-चूर हो गया है. ऐसी स्थिति निश्चित ही किसी प्रगतिशील समाज की सूचक नहीं है. यह एक विद्यालय का बंद होना भर नहीं है, बल्कि हमारे भविष्य पर सवालिया निशान है.