पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्रों में अलग राज्य के लिए जारी आंदोलन के मौजूदा चरण के लगभग दो महीने पूरे हो रहे हैं. इस दौरान अनेक हिंसक वारदातें घटित हुई हैं.
बीते हफ्ते नये सिरे से हिंसा भड़की. सिलीगुड़ी से 12 किलोमीटर दूर सुकना का इलाका, जो अभी तक अपेक्षाकृत शांत चला आ रहा था, हिंसा का नया केंद्र बना. वहां पुलिस और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ताओं के बीच झड़पें हुई हैं. अभी तक राज्य और केंद्र सरकारों की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं हुई है, जिससे यह संकेत मिल सके कि 1980 के दशक से चल रहे गोरखालैंड आंदोलन के अनुभवों से कोई सीख ली गयी है.
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आंदोलन का तौर-तरीका सुभाष घीसिंग की अगुवाई में चले आंदोलन से काफी मिलता-जुलता है. इस दफे जैसे-जैसे आंदोलन उग्र हुआ, उसके भीतर आक्रोश का यह स्वर बुलंद हुआ है कि पुलिस आंदोलनकारियों से सख्ती से पेश आ रही है. ऐसा ही 1980 के दशक में भी हुआ था. तब 1986 में तीन अलग-अलग घटनाओं में 18 लोग मारे गये थे.
इनमें एक घटना ऐसी भी थी, जिसमें पुलिस फायरिंग में 13 लोग मारे गये. पुलिस की गोली से लोगों के मारे जाने की खबरें इस बार भी आयी हैं. इससे आंदोलन और ज्यादा भड़क रहा है. राज्य और केंद्र सरकारों को राज्य के बाहर से हो रही हथियारों की आपूर्ति पर गंभीर रुख अपनाने की जरूरत है. आंदोलन के समर्थन में इलाके में नयी लहर उभरी है. पुलिस के आला अफसर यह आशंका भी जाहिर कर चुके हैं कि अलग राज्य बनाने का आंदोलन भूमिगत माओवादी प्रतिघात का रूप ले सकता है. इस आशंका के बावजूद आंदोलनकारियों के साथ सार्थक बातचीत की कोशिशें सरकार की तरफ से बड़े ढुलमुल तरीके से हुई हैं.
केंद्र और राज्य स्तर पर सोच फिलहाल यही लगती है कि गोरखालैंड का आंदोलन स्थान विशेष तक सिमटा है और समस्या मूल रूप से विधि-व्यवस्था की बहाली की है. यह एक कटु तथ्य है कि जून के दूसरे पखवाड़े में हड़ताल के आह्वान के बाद से आंदोलन के स्वर और विस्तार में अभी तक कमी नहीं आयी है.
केंद्र और राज्य जब तक आंदोलन को विधि-व्यवस्था की बहाली का मामला मानेंगे, तब तक दार्जिलिंग और आस-पास के इलाके में राजनीतिक स्थिरता कायम करने के लिए टिकाऊ समाधान खोजना मुश्किल बना रहेगा. स्थिति की मांग है कि केंद्र और राज्य सरकारें गोरखालैंड आंदोलन के नाम पर भड़के आक्रोश के समाधान के लिए कई मोर्चों पर एक साथ सोचें और सक्रियता दिखायें.