निंदा मानव-सभ्यता के प्रारंभ से ही सृष्टि में विद्यमान रही है, बल्कि अगर यह कहा जाये कि मानव-सभ्यता का विकास ही उसके कारण हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. मानव को अन्य प्राणियों से अलग पहचाना ही उसकी इसी विशेषता के कारण जाता है.
निंदा सबसे बड़ा विरेचक और स्वास्थ्यवर्धक तत्त्व है. तनाव दूर करने का इससे बेहतर उपाय दूसरा नहीं. आदमी कितना भी परेशान हो, दूसरे की निंदा करके हलका हो लेता है, भले ही फिर दूसरा इससे कितना भी परेशान क्यों न हो जाये. हालांकि माहिर हो, तो दूसरा भी इससे परेशान नहीं होता, बल्कि किसी तीसरे की निंदा करके बदला चुका लेता है.
विद्वानों ने तो इसे साक्षात् ‘रस’ ही माना है. साहित्य में जिन नौ रसों को मान्यता दी गयी है, उनमें तो इसका कहीं नाम नहीं आता, लेकिन यह उन सभी रसों में ‘शक्तिरूपेण संस्थित’ रहता है. वीर रस की कविता में शत्रु की निंदा ही तो की जाती है. शृंगार रस में भी महबूबा को चांद से बेहतर बताना चांद की निंदा नहीं, तो और क्या है? और हास्य रस में तो निंदा ही निंदा समाई रहती है. किसी के पकौड़े जैसी नाक के कारण उसका मजाक उड़ाना या किसी को सड़क पर बने गड्ढे में गिरते देख कर हंसना एक तरह से निंदा की बदौलत ही संभव होता है.
निंदा को जिन महापुरुषों ने नये आयाम दिये हैं और अपने कौशल से उसे नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाया है, वे हैं नेता. तमाम नेता दूसरे नेताओं की निंदा कर-करके ही वे सत्ता में आते हैं और इसी के बल पर जितनी देर तक हो सके, सत्ता में बने रहते हैं. बेशक झूठ भी इसमें उनकी भरपूर मदद करता है, पर वह भी निंदा से जुड़ कर ही कामयाब हो पाता है.
आजकल तो निंदा को सरकारी संरक्षण ही प्राप्त है. अपनी हर नाकामयाबी पर वह निंदा द्वारा न केवल विपक्षियों को ही मुंहतोड़ जवाब देती है, बल्कि दुश्मन देश से भी एक इसी हथियार के बल पर लोहा लेती नजर आती है. दुश्मन देश के हथियारों के जखीरे में निंदा का हथियार शामिल नहीं है, इसलिए वह गोलीबारी, बमबारी जैसे पुराने तरीकों से ही लड़ने को बाध्य है. वह सीमा पर और सीमा के भीतर भी हमारे लोगों को मार देता है, हम उसकी निंदा कर देते हैं. इससे मर्माहत होकर वह हमारे और लोगों को मार देता है, तो हम उसकी और ज्यादा निंदा कर देते हैं. बौखला कर वह हमारे जवानों को मार कर उनके शव कष्ट-विक्षत करने जैसी कड़ी कार्रवाई करता है, तो हम भी उसकी कड़ी निंदा कर देते हैं. आखिर निंदा भी कोई कम कड़ी कार्रवाई नहीं है. और जब निंदा से ही काम चल जाता हो, तो और किसी कार्रवाई की जरूरत ही क्या है?
सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
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