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नीति बनाने का स्थान बने संसद

आजकल भारत की संसदीय चर्चाएं मुश्किल से ही प्रभावित करनेवाली होती हैं. संसद के बारे में माना गया था कि यह जमीन से जुड़ाव वाले ओजस्वी वक्ताओं का जमावड़ा होगा. कभी संसदीय बहसें, राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होती थीं, लेकिन अब इनका विषय संकीर्ण दृष्टि वाले स्थानीय मुद्दे होते हैं. नाममात्र की उपस्थिति, […]

आजकल भारत की संसदीय चर्चाएं मुश्किल से ही प्रभावित करनेवाली होती हैं. संसद के बारे में माना गया था कि यह जमीन से जुड़ाव वाले ओजस्वी वक्ताओं का जमावड़ा होगा. कभी संसदीय बहसें, राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होती थीं, लेकिन अब इनका विषय संकीर्ण दृष्टि वाले स्थानीय मुद्दे होते हैं. नाममात्र की उपस्थिति, स्तरहीन चर्चाओं, सत्र के दौरान शोर-शराबे के बीच कोई सांसद नीतिगत चर्चाओं में शायद ही कुछ योगदान दे पाने की स्थिति में होता होगा.
संसद का सत्र चल रहा हो, तो इसके हर मिनट पर 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है, लेकिन इस कीमती समय का इस्तेमाल बहुत खराब तरीके से होता है. ज्यादातर देशों में संसद का सत्र साल भर चलता है- खासकर ब्रिटेन और कनाडा में. भारतीय संसद के पास खुद को आहूत करने का अधिकार नहीं है, लेकिन इसके लिए साल में तय अवधि तक चलना तो निर्धारित किया ही जाना चाहिए. संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि लोकसभा के लिए कम से कम 120 दिन और राज्यसभा के लिए 100 दिन की बैठक जरूरी की जानी चाहिए. ओडिशा ने राज्य विधानसभा के लिए कम से कम 60 दिन की बैठक जरूरी करके राह भी दिखा दी है. संसद बैठक ना करके एक तरह से कार्यकारिणी पर नियंत्रण रखने की अपनी मूल जिम्मेवारी के निर्वहन में लापरवाही ही बरत रही है.
इस दौरान राजनीतिक नेतृत्व पर पुरुषों का एकछत्र राज बना हुआ है. लोकसभा और राज्यसभा में महिला सांसदों की संख्या ने कभी 12 फीसदी से ऊपर का आंकड़ा नहीं छुआ. संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत नीचे से 20वें पायदान (वर्ल्ड इकोनॉनिक फोरम, 2012) पर है. 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय निकायों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया है, लेकिन विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब भी बहुत कम है. हाल के विधानसभा चुनावों में महिला विधायकों की संख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है. राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी, खासकर नेतृत्व के मोर्चे पर, कमतर बनी हुई है. देश में सिर्फ चार दलों की कमान महिलाओं के हाथ में है, जबकि पार्टी सदस्यता 10-12 फीसदी है. इसमें बड़े पैमाने पर बदलाव की शुरुआत महिला आरक्षण विधेयक (108वां संशोधन) के पास होने के बाद संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने से हो सकती है.
संसद से पारित होनेवाले कानूनों की आजकल कई बार जल्दबाजी में ड्राफ्ट किये जाने और अफरातफरी में पास किये जाने के लिए आलोचना होती है. प्राइवेट मेंबर विधेयकों का पास नहीं होना भी चिंता की बात है. संसद के सत्र के दौरान हर शुक्रवार को सत्र का दूसरा हिस्सा प्राइवेट मेंबर विधेयक पर चर्चा के लिए तय है. आज तक सिर्फ 14 प्राइवेट मेंबर विधेयक पास हुए हैं. इनमें सबसे आखिरी वर्ष 1970 में पास हुआ था.
विधायिका के काम करने के तरीके और प्राथमिकताएं तय करने में हमें व्यवस्थित तरीका अपनाना होगा- संसदीय समिति, जो पहले भी बहुत लोकप्रिय नहीं थी, और अब जिसका चलन खत्म ही हो गया है, को फिर से जगह देनी होगी. पिछली सीटों पर बैठनेवाले सांसदों को कानून बनाने की प्रक्रिया के दौरान इस तरह की समितियों में आम जनता की तरफ से आवाज बुलंद करने का मौका मिलता है. जैसा कि कानून मंत्रालय ने भी यह मुद्दा उठाया है, हमें एक संविधान समिति बनाने की भी जरूरत है. संविधान संशोधन विधेयक संसद में साधारण कानूनों की तरह विधेयक के रूप, कई बार शाॅर्ट नोटिस पर, पेश किये जाने के बजाय अच्छा होगा कि संविधान में बदलाव का ड्राफ्ट बनाने से पहले ही समिति इसकी समीक्षा कर ले.
इधर, दल-बदल निरोधक कानून भी ऐसे सांसदों को सदस्यता छीन कर दंडित करता है, जो पार्टी लाइन से हट कर मतदान करते हैं. दल-बदल कानून में बदलाव किये जाने की जरूरत है और सांसदों को अंतरात्मा की आवाज का स्वतंत्र इस्तेमाल किये जाने की आजादी देते हुए इस कानून का इस्तेमाल सिर्फ कुछ अपवाद स्थितियों में ही किया जाना चाहिए.
कई देशों की संसद अपने सांसदों को शोध टीम की सेवाएं लेने केलिए फंड देती हैं.संसद की बौद्धिक संपदा में निवेश करना जरूरी है- इसलिए सांसदों को शोध स्टाफ रखने में मदद के साथ लाइब्रेरी एंड रेफरेंस, रिसर्च, डाक्यूमेंटेशन एंड इनफार्मेशन सर्विस (एलएआरआरडीआइएस) को अधिक बजट दिये जाने की जरूरत है. हमें बजट स्क्रूटनी से जुड़ी प्रक्रिया को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए संस्थागत व्यवस्था बनाना भी जरूरी है.
अधिकतर सांसदों के पास स्टाफ या तो बहुत कम है या बिल्कुल ही नहीं है, जिस वजह से वे व्यक्तिगत स्तर पर विशेषज्ञ सलाह हासिल कर पाने से वंचित हैं. उनके सहायक स्टाफ और संसदीय क्षेत्र के लिए मिले फंड में मौलिक शोध के लिए कुछ नहीं बचता. अमेरिकी कांग्रेस बजट ऑफिस की तरह भारत में भी संसदीय बजट ऑफिस की जरूरत है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष रहते हुए किसी भी किस्म के खर्च के बिल या एस्टिमेट का टेक्निकल और वस्तुपरक मूल्यांकन कर सकेगा. केन्या, साउथ अफ्रीका, मोरक्को, फिलीपींस, घाना और थाईलैंड (वी भानू, आर दुग्गल, सी अकिलिना, इपीडब्ल्यू, 2017) जैसे देश इस पर अमल भी कर चुके हैं.
भारतीय नागरिक कानून बनाने के ज्यादा कारगर सिस्टम की अपेक्षा रखते हैं, जो जनप्रतिनिधि- सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री- को उनकी अधिकारिता का ज्यादा जिम्मेवारी से एहसास कराये. हमें किसी खास वर्ग की तरफदारी करनेवाली राजनीति से भी सतर्क रहना चाहिए, जो राष्ट्र को नुकसान पहुंचा रही है. हमें याद रखना होगा कि संसद नीति बनाने का स्थान होना चाहिए, ना कि राजनीति करने का. हमें इन सुधारों पर ध्यान देना होगा, ताकि संसद को ऐसा स्थान बनाया जा सके.
वरुण गांधी
सांसद, लोकसभा
fvg001@gmail.com

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