राजू सजवान
वरिष्ठ पत्रकार
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शहरों में आबादी का दबाव लगातार बढ़ रहा है. जनगणना-2011 के मुताबिक, देश में 31 फीसदी से अधिक लोग शहरों में रह रहे हैं. अनुमान है कि 2031 तक कुल आबादी का 40 फीसदी हिस्सा शहरों में बस चुका होगा. बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर सरकारों ने शहरों के विकास पर ध्यान दिया, जिससे लोग गांवों से पलायन कर शहरों में आ गये. इससे स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गयी. कुछ बड़े शहरों में कुछ पॉश इलाकों को छोड़ दें, तो लगभग सभी शहरों में जन सुविधाएं नहीं हैं. शहरों के हालात दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे हैं. कई इलाकों में तो नारकीय स्थिति है. बीते लोकसभा चुनाव में शहरी मतदाताओं को लुभाने के लिए भाजपा ने बड़े-बड़े वादे किये. भाजपा सरकार को तीन साल हो चुके हैं, लेकिन पड़ताल की जाये, तो परिणाम कहीं दिखते नजर नहीं आते.
केंद्र सरकार ने शहरी विकास को अपना प्रमुख एजेंडा बताते हुए कई योजनाएं शुरू की हैं. इनमें स्मार्ट सिटी, अमृत, हृदय, स्वच्छ भारत अभियान और वर्ष 2022 तक सबको घर देना प्रमुख हैं. सरकार ने 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों और राज्यों की राजधानी में जीवन गुणवत्ता का मूल्यांकन करने की घोषणा की है. इसके तहत सरकार शहरी जीवन क्षमता सूचकांक का आकलन करेगी और इस आधार पर शहरों को सूचीबद्ध किया जायेगा. इसका क्या फायदा होगा, यह तो वक्त बतायेगा.
आइए, सबसे पहले स्मार्ट सिटी मिशन के बारे में जानते हैं. प्रधानमंत्री मोदी चुनाव से पहले लगभग हर सभा में यह वादा करते थे कि देश में 100 नयी स्मार्ट सिटी बनायी जायेगी. इसके लिए प्रधानमंत्री ने 25 जून, 2015 को मिशन स्मार्ट सिटी योजना की शुरुआत की.
लोगों को लगा कि यदि उनका शहर स्मार्ट सिटी की लिस्ट में आ गया, तो उनका शहर स्मार्ट हो जायेगा. लेकिन, दो साल बाद यह सपने टूट चुके हैं. अब तक 90 शहरों को ही चुना जा सका है, वह भी पूरे शहर को स्मार्ट नहीं बनाया जा रहा है, बल्कि हर शहर के एक हिस्से की कुछ परियोजनाओं को ‘स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट‘ के नाम पर विकसित किया जा रहा है. उनमें भी दो साल पूरे होने के बावजूद काम शुरू नहीं हो पाया है.
गौर करें तो स्मार्ट सिटी मिशन और संप्रग सरकार की जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूएबल मिशन (जेएनएनयूआरएम) में कोई खास फर्क नहीं दिखता. फर्क सिर्फ इतना है कि इस स्कीम के लिए प्रचार माध्यमों से जबरदस्त माहौल तैयार किया गया और जन भागीदारी के नाम पर सोशल मीडिया से स्कीम को लोगों तक बेहतरीन ढंग से पहुंचाया गया. इससे लोगों में उत्सुकता का माहौल पैदा हुआ. फिलहाल, इसके सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं.
जून, 2015 को ही केंद्र सरकार ने अटल मिशन फॉर रिजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत) की शुरुआत की. इस योजना का मकसद एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में जन सुविधाएं उपलब्ध कराना है. इसमें केंद्र सरकार कुल परियोजना लागत का 50 फीसदी हिस्सा खुद वहन करती है. लेकिन, मोदी सरकार ने शर्तें इतनी कड़ी कर दी हैं कि ज्यादातर नगर निगम या नगर पालिकाएं शर्तों को पूरा नहीं कर सकते. केंद्र सरकार चाहती है कि अमृत स्कीम के तहत तभी पैसा दिया जाये, जब वे केंद्र की शर्तों के मुताबिक अपनी कार्यप्रणाली में सुधार कर लें. इसमें इ-गवर्नेंस और राजस्व में सुधार प्रमुख है.
राजस्व में सुधार से आशय है कि ज्यादा-से-ज्यादा टैक्स वसूले जायें, ताकि वे अपना खर्च खुद चलाने की स्थिति में आ जायें. लेकिन, लोगों के गुस्से से बचने के लिए निगम या पालिकाएं टैक्स वसूली का लक्ष्य हासिल करने में पिछड़ रहे हैं. इसी तरह, स्वच्छ भारत अभियान शुरू हुआ. सरकार का दावा है कि तैंतीस लाख छिहत्तर हजार व्यक्तिगत और एक लाख उनत्तीस हजार सामुदायिक शौचालय बनाये जा चुके हैं. लेकिन, मीडिया रिपोर्ट शौचालयों की दशा उजागर करती रही है. केंद्र सरकार इन शहरों में सर्वेक्षण कराती है और शहरों को नंबर दिये जाते हैं, लेकिन नागरिक गंदगी की शिकायत करते रहते हैं.
दरअसल, मोदी सरकार ने शहरों में जन सुविधाएं उपलब्ध कराने और विकास की योजनाओं का प्रचार तो खूब किया, लेकिन शहरों के विकास की जिम्मेवारी जिन नगर निगम, पालिका या परिषद के कर्मचारियों-अधिकारियों के हाथों में सौंपी गयी, उनके लिए कुछ नहीं किया गया.
स्वच्छ भारत मिशन में सफाई कर्मचारियों को नहीं जोड़ा गया. देसी-विदेशी नामी कंसलटेंट के भरोसे शहरी विकास परियोजनाएं बनाने के बजाय स्मार्ट सिटी मिशन में निगम के कर्मचारियों-अधिकारियों को स्मार्ट बनाने के उपाय किये जायें. इसके लिए निगम और पालिकाओं में फैले भ्रष्टाचार को कम करने और कार्य कुशलता को बढ़ाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा.