परिवार के सभी सदस्यों के लिए भोजन बनाने-परोसने की जिम्मेवारी निभाने के कारण माताएं स्वयं देर तक भूखी रहती हैं- यह भारतीय घरों का आम अनुभव है. वोट देने के मामले में तकरीबन यही स्थिति हमारे सैन्यकर्मियों की है. आम नागरिक निर्भय होकर मताधिकार का प्रयोग कर सकें, इसके लिए सीमा पर और देश के अंदर अमन-चैन कायम रखने का जरूरी दायित्व उनके कंधों पर होता है.
लेकिन विडंबना देखिए कि सैन्यकर्मी बतौर मतदाता मतदान प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार नहीं बन पाते. देश का मानस कुछ ऐसा बन गया है कि ज्यादातर समय लोग इस बात को भुलाये रखते हैं कि सैन्यकर्मी सिर्फ देश की सुरक्षा में तैनात व्यक्ति भर नहीं होता, वह देश का नागरिक भी है और इस नाते देश के नीति-नियंताओं को चुनने-बदलने के लिए वोट डालने का हक उसे भी समान रूप से हासिल है.
उनके लिए पोस्टल बैलेट की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि आप थार के रेगिस्तान में रह कर दोआब के अपने पेड़ को सींचने की सोचें. गत दिसंबर में एक सैन्य-अधिकारी की पत्नी नीला गोखले ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर इसी तरफ ध्यान दिलाया था. उनका तर्क था कि देश के करीब सवा लाख सैन्यकर्मियों को प्राप्त मताधिकार पोस्टल बैलेट की अप्रभावी व्यवस्था के कारण बाधित होता है.
अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से चुनाव आयोग को यह व्यवस्था करनी पड़ेगी कि शांतिवाले इलाके में तैनात सैन्यकर्मी वोट डालने के लिए खुद को तैनाती वाले इलाके में पंजीकृत करवाएं और वोट डालें. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से नीला गोखले सरीखे हजारों लोगों (सैन्यकर्मी तथा उनके परिजनों) की शिकायत को दूर करने का प्रयास तो किया ही है, भारतीय लोकतंत्र को ज्यादा समावेशी बनाने की दिशा में भी कदम उठाया है.
चुनाव में पोस्टल बैलेट के अप्रभावी होने की बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है. मिसाल के लिए 2009 के चुनाव में बिहार के महाराजगंज में पोस्टल बैलेट की कुल संख्या महज 2 और सारण (छपरा) में महज 7 थी. कोर्ट ने सही वक्त पर याद दिलाया है कि अगर चुनाव आयोग शत-प्रतिशत मतदान का लक्ष्य लेकर चल रहा है तो वह किसी नागरिक के मताधिकार को बाधित करनेवाली व्यवस्था को कैसे बनाये रख सकता है!