बात मामूली लग सकती है कि बिहार में चुनाव डय़ूटी पर जानेवाले करीब 57 हजार पुलिसकर्मियों के लिए बीमा करार की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है. बीमा पॉलिसी की मियाद सात अप्रैल को खत्म हो रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब चुनाव की तैयारी अरसा पहले शुरू हो गयी थी, तो पुलिसकर्मियों की बीमा पॉलिसी की प्रक्रिया समय रहते क्यों नहीं पूरी कर ली गयी.
यह महज चूक है या कामकाज को लेकर बरती जाने वाली आदतन उदासीनता? लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मी काफी पहले से शुरू हो गयी थी. चुनाव आयोग और सरकारी मशीनरी ने तैयारी भी शुरू कर दी थी. पर चुनाव डय़ूटी पर लगाये जानेवाले पुलिसकर्मियों का ‘विशेष समूह बीमा’ नहीं कराया जाना गंभीर मामला है. राज्य में पहले और दूसरे चरण में, यानी 10 व 17 अप्रैल को उन क्षेत्रों में मतदान होना है जिन्हें उग्रवादग्रस्त माना जाता है.
ऐसे में वहां तैनात होने वाले पुलिसकर्मियों की मन:स्थिति का अंदाज लगाया जा सकता है. अतीत में चुनाव के दौरान ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं जिसमें उग्रवादी अपने मंसूबे में कामयाब हो गये. हम तो यही कामना करेंगे कि उग्रवादग्रस्त इलाकों में कोई अनहोनी न हो और वहां तैनात किये जाने वाले पुलिसकर्मियों को भी किसी तरह का नुकसान न पहुंचे, लेकिन सरकारी व्यवस्था इतनी लचर-पचर क्यों रहे? इसी व्यवस्था में हम देखते हैं कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को मामूली असुविधा होती है तो समूचा तंत्र उसे दूर करने में लग जाता है. बड़े-बड़े अफसर सक्रिय हो जाते हैं. दरअसल, इस तंत्र ने अपने काम करने के तरीकों के जरिये ही अविश्वास की गहरी लकीर खींच दी है.
इस सिस्टम में अहम स्थान रखनेवाले पुलिसकर्मियों के प्रति जब इस कदर लापरवाही होगी, तो आम आदमी का संकट समझा जा सकता है. हम सरकारी मशीनरी की जितनी जवाबदेही वगैरह की बातें करते हैं, व्यवहार में ऐसा नहीं दिखता. अगर काम के तरीकों को जवाबदेहपूर्ण बनाया गया होता, तो ठीक चुनाव के पहले यह नौबत ही पैदा नहीं होती. इसलिए जरूरत इस बात की है कि सिस्टम को अधिक संवेदनशील और जवाबदेहपूर्ण बनाया जाये. पर यह काम बाहर से तो कोई करेगा नहीं? इसे अंदर से ही ठीक करना होगा.