राहुल सिंह
मीडिया में कौन-सी सामग्री पढ़ी जायेगी, देखी जायेगी या सुनी जायेगी यह एक बड़े विमर्श का विषय है. कुछ पूर्व व वरिष्ठ पत्रकारों ने इस पर विमर्श छेड़ा है कि मीडिया में चल क्या रहा है? न्यूज वेबसाइटों व टीवी पर क्या छप रहा है और अधिक से अधिक हिट जेनरेट करने के लिए या अधिक से अधिक टीआरपी के लिए कैसी सामग्री छापी-दिखाई जा रही है. इनकी चिंता वाजिब है, लेकिन यह भी सवाल है कि क्या सिर्फ फूहड़, सनसनी वाली खबरें ही क्लिक की जाती हैं या देखी जाती हैं? गंभीर, सूचनापरक, विचारप्रद सामग्री की अब कोई पूछ नहीं रही?
वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार समाचार माध्यमों में गहराते न्यूज के संकट और एक-दो न्यूज तक उनके सीमित हाेते जाने पर गंभीर चिंता प्रकट करते हैं. अपनी वेबसाइट कस्बा में मीडिया पर अपने एक लेख में वे लिखते हैं –
पहले न्यूज रूम में जब रिपोर्टरों का ढांचा होता था तो आप वहां होकर भी कई बातों को करीब करीब पुख्ता तौर पर जान पाते थे. वो ढांचा ढह गया है. चैनलों के संवाददाताओं में खबरों को लेकर प्रतियोगिता होती थी. वो दिन भर खबर खोजता रहता था. खुद को अच्छा साबित करने की होड़ में कब क्या सूचना ले आए और खबरों का एंगल बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता था. रिपोर्टर सूचनाओं से लबालब होते थे. इससे कौन पार्टी और कौन नेता कब नप जाए, पता नहीं चलता था. कड़ी प्रतियोगिता के कारण रिपोर्टर के लिए मुश्किल होता था कि वो अपनी राजनीतिक निष्ठा के कारण खबर छिपा ले. तो चैनलों की दुनिया में रिपोर्टिंग के इस सिस्टम को धीरे-धीर खत्म कर दिया गया. इसकी जगह लाए गए आउटपुट के बंदर.
रवीश कुमार अपने लेख में चिंता प्रकट करते हैं अब सबकुछ स्टार एंकर के इर्द-गिर्द सिमटता गया है. वे लिखते हैं कि अब एक ही खबर को दिन भर, अगले दिन तक खेलने वाले चैनल आ गये हैं. वे अपनी गहरी व्यथा इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं :
रिपोर्टर खत्म. खबरें खत्म. खबरों से जुड़ी बारीक सूचनाएं खत्म. एएनआइ ही सब नियंत्रित करेगा. एंकर ही सब नियंत्रित करेगा. संपादक की भूमिका एक तरह से खत्म.
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार व चर्चित आरटीआइ कार्यकर्ता विष्णु राजगढ़िया द वायर हिंदी वेबसाइट पर एक लेख में लिखते हैं –
मीडिया के एक हिस्से को अब सच और विश्वसनीयता की जरूरत नहीं रही. उनका झूठ का कारोबार तेजी से फैल रहा है. झूठी खबरें गढ़कर मल्टी-मीडिया चैनलों के माध्यम से उसे तेजी से दुनिया भर में फैलाना बेहद सामान्य होता जा रहा है. पहले किसी मामूली चूक के लिए भी संपादक शर्मिंदा होता था. अब पूरी खबर फर्जी हो, तब भी संपादक दांत दिखाकर हंसेगा.
इन दिनों सऊदी अरब के कथित राजकुमार की एक झूठी खबर चर्चा में है. कहा जा रहा है कि उक्त राजकुमार माजिद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अजीज अपनी पांच पत्नियां हार गया. मिस्र के एक कसीनो में जुए में 22 अरब की रकम हारने के बाद राजकुमार ने अपनी नौ में से पांच पत्नियों को दांव पर लगा दिया और हार गया.
यह कथित खबर दुनिया की विभिन्न वेबसाइटों के साथ ही सोशल मीडिया में भी खूब फैली…
सच यह है कि सऊदी अरब के उक्त राजकुमार की वर्ष 2003 में ही मृत्यु हो चुकी है. यह तथ्य एक सामान्य गूगल सर्च से तत्काल मिल जाएगा. इतने बड़े सच को छुपाकर ऐसा झूठ गढ़ने की बेशर्मी भयावह है.
विष्णु राजगढ़िया लिखते हैं यह झूठ एक अमेरिकी वेबसाइट वर्ल्ड न्यूज डेली रिपोर्ट के माध्यम से फैला. वे लिखते हैं कि इसी वेबसाइट ने 30 मई को सउदी राजकुमार की कथित खबर प्रकाशित की थी. दरअसल, वर्ल्ड न्यूज डेली रिपोर्ट एक काल्पनिक एवं व्यंग्यपूर्ण मनोरंजक सामग्री की वेबसाइट है. इसे खोलने पर स्टोरी के नीचे साफ शब्दों में डिस्क्लेमर दिखेगा.
इस न्यूज वेबसाइट की खबरें अजीब होती हैं, जिसके तथ्य उसके गलत होने का पूर्व संकेत देते हैं : जैसे आर्जेंटीना में 128 साल के व्यक्ति ने दावा किया कि वह हिटलर है. अब विचार कीजिए कोई शख्स 128 साल का होगा तो क्या उसका उल्लेख दुनिया के सबसे बुजुर्ग व्यक्तियों की सूची में नहीं होगा और दावे तो बाद की बात है, अपनी उम्र के लिए चर्चा में नहीं आयेगा. इसी तरह उस पर एक खबर है कि डीएनए टेस्ट में पता चला कि 87 साल के एक रिटायर्ड पोस्टमैन के 1300 नाजायज बच्चे हैं.
जैसा कि विष्णु राजगढ़िया ने वायर पर लिखा है, ऐसा ही एक मामला बीते साल डिजिटल मीडिया में आया था और वह झूठी खबर डिजिटल प्लेटफॉर्म के टॉप ट्रेंड में आ गयी थी. उस खबर में कहा गया था कि अरब के एक देश की राजकुमारी लंदनकेएकहोटल में सात लोगों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ी गयी. इस खबर को फैलाने के लिए ब्रिटेन के एक अखबार का हवाला दिया गया था, जबकि उसने वह खबर दी ही नहीं थी. उस खबर में जिस महिला का फोटो लगा कर चलाया गया, वह अरब की एक ख्यात महिला कारोबारी है, जिसकी इसके लिए बिजनेस जगत में वैश्विक पहचान है.
दरअसल, भारत में भी एकाध मुख्यधारा की न्यूज वेबसाइटनेछह-आठमाहपहले इस तरह की काल्पनिक खबरें देने की शुरुआत की, जिसमें अंत में इसका उल्लेख होता था कि इसे वास्तविक न माना जाये और यह बस मनोरंजन के लिए है. हालांकि उन्होंने यह कवायद अचानक रोक दी. शायद उन्हें हफ्ता-महीने भर में ही अहसास हो गया होगा कि इससे फौरी तौर पर हिट व विजिटर बढ़ जायें, लेकिन उनकी पुरानी विश्वसनीयता ही खत्म हो जायेगी…और फिर उनपरस्थायी संकट आ जायेगा.
दूसरी बात, भारत में कुछ ऐसी वेबसाइटें भी हैं जो सेलिब्रिटी व बड़ी हस्तियों के बारे में अजीब खबर देते हैं और किसी स्टार को किसी पुराने दो स्टारों के रिश्ते का परिणाम बता देते हैं. उनकी खबरों के केंद्र में बड़े राजनेता व बड़ी फिल्मी हस्तियां होती हैं, जिनके निजी जीवन के बारे में अजीब तथ्य पेश किया जाता है. उनकी प्रस्तुति इतने उत्तेजित करने वाले अंदाज में होती है कि वेबसाइट पर सर्फिंग करते हुए लोग उसे क्लिक करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. लेकिन, हमें यह भी देखना होगा कि उनके रिडर, विजिटर कितने हैं? ये वेबसाइटें अपनी खबरों को पढ़ाने के लिए वेब तकनीक का सहारा लेती हैं, क्योंकि इन पर कोई स्वाभाविक रूप से जाता तो नहीं.
डिजिटल क्रांति और लाइव कवरेज के दौर में टीवी की तरह वेबसाइटों पर भी खबरें चढ़ाने-गिराने का खूब खेल होता है. डेस्क पर बैठे लोग खबरों के हिट बढाने के लिए वास्तविकव काल्पनिक दबाव में होते हैंऔर ऐसे में कई बार खबरों को ट्विस्ट देते-देतेउसका मूल तत्व ही गौण हो जाता है. हेडिंग बदलते-बदलते उसके अर्थ कुछ और निकलने लगते हैं और शब्दों के चयन का स्तर भी धीरे-धीरे सड़क छापहो जाता है.
लेकिन, क्या इस पूरे प्रसंग का यही एक पहलू है? क्या आज जब जीएसटी एक अहम मुद्दा है तो उसकी खबरें नहीं पढ़ी जातीं? किसान का मुद्दा गर्म है तो उनकी खबरें नहीं पढ़ी जातीं? यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि गुलजार-जगजीत ज्यादा पढ़े जाते हैं या हनी? बशर्ते की कंटेंट में दम हो, कसावट हो, तथ्य हो.
जिस विषय पर सार्वजनिक चर्चा अब भी लोग नहीं करते उस पर आधारित फिल्म पिकू बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रुपये का कलेक्शन करती है. जैसे भारतीय फिल्म उद्योग को नयी पीढ़ी नब्बे के दशक के सरकाई लियो तकिया…से आगे ले गयी, वैसे ही वेबसाइट व टीवी मीडिया से जुड़े लोगों पर ही उसे इस दौर से आगे ले जाने की जिम्मेवारी है.
(लेखक प्रभात खबर डिजिटल से जुड़े हैं.)