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क्यों मर रही हैं नदियां?

बिहार के सीमांचल इलाके से मेरा बहुत पुराना संबंध है. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से बतौर शोधार्थी मैंने वहां जाना-आना शुरू किया है. मेरा शोध इस इलाके की राजनीति से संबद्ध है और खासतौर पर यहां संप्रदायों के बीच के बदलते संबंधों को समझने का प्रयास है. लेकिन, इस बार की शोध-यात्रा में मेरा ध्यान […]

बिहार के सीमांचल इलाके से मेरा बहुत पुराना संबंध है. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से बतौर शोधार्थी मैंने वहां जाना-आना शुरू किया है. मेरा शोध इस इलाके की राजनीति से संबद्ध है और खासतौर पर यहां संप्रदायों के बीच के बदलते संबंधों को समझने का प्रयास है. लेकिन, इस बार की शोध-यात्रा में मेरा ध्यान यहां की प्रकृति पर गया. दिल्ली की भीषण गरमी से निकल कर यहां पहुंचते ही आपको लगेगा कि आप किसी हरित प्रदेश में आ गये हैं. हर तरफ हरे-भरे पेड़ और खेत दिखेंगे.

यह देख बेहद दुख हुआ कि यहां की नदियां मर रही हैं. मैंने खास तौर पर कटिहार जिला के कदवा प्रखंड में पड़ताल की कि ऐसा क्यों हो रहा है. इस प्रखंड का बड़ा हिस्सा महानंदा नदी पर बने एक रिंग बांध के अंदर आता है. यहां अक्सर भीषण बाढ़ आती है. जैसा भारत के अन्य हिस्सों में है कि इन बांधों के औचित्य को लेकर किसी को कुछ पता नहीं है. इसके अंदर रहनेवाले लोगों के बारे में कोई स्पष्ट योजना नहीं है. वैसे ही यहां की नदियों को लेकर भी सरकार की कोई योजना नहीं है. इस छोटे से इलाके में कम से कम तो दस नदियां हैं. ये नदियां जलग्रहण क्षेत्र से पानी लेकर महानंदा तक पहुंचाती हैं.

एक जमाने में इन नदियों में सालों भर पानी रहता था. लोगों को नाव से पार जाना होता था. बरसात में तो इनमें लबालब पानी भर जाता था. लोगों को पूरे साल मछलियां मिलती थीं. सिंचाई के लिए बोरिंग की जरूरत नहीं थी. कोई भी, कहीं भी एक स्थानीय तकनीकी का उपयोग कर पानी अपने खेत तक ले जा सकता था. जूट और धान की जबरदस्त खेती होती थी. कोई खाद या कीटनाशक की जरूरत नहीं थी. मछली-भात लोगों को आसानी से मिल जाता था.

आपको देख कर दुख होगा और आश्चर्य भी कि यहां की ये सारी नदियां अब मृतप्राय हैं, उथली हो गयी हैं. केवल बरसात में पानी रहता है. बाढ़ में आये गाद और खेती के कारण ये नदियां लगातार उथली हो रहीं है. गाद निकालने की कोई योजना नहीं है. नदियों के मर जाने का यहां व्यापक प्रभाव आप देख सकते हैं. हालत यह है कि अब मछलियां भी यहां बाहर से लायी जा रही हैं और आम लोगों की पहुंच से बाहर हैं. उनकी थाली से प्रोटीन गायब है. इसका असर उनके रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी पड़ा है. नदियों के उथले हो जाने से बाढ़ भी भीषण होने लगी है. बाढ़ खत्म होने के बाद अब यहां पानी रुकता नहीं है. इससे जमीन के नीचे पानी का स्तर भी दूर चला गया है. जिस साल बाढ़ न आये, उस साल भूगर्भ जलस्तर 40-50 फीट पर मिलता है. जमीन की नमी खत्म हो जाती है. अब पानी बोरिंग से निकालना पड़ता है. एक समय में बांस बोरिंग ने यहां हरित क्रांति लायी थी. अब यह भी मुश्किल होता जा रहा है. गरमियों में बोरिंग फेल करने लगे हैं.

इस इलाके में अब धान की जगह मक्के की भरपूर खेती होती है. इससे समृद्धि तो आयी है, लेकिन आनेवाले समय में कई तरह के संकट होने की संभावना भी है. एक तो इसमें पानी की बहुत जरूरत है और भू-जल का भयंकर शोषण है. यदि ये नदियां जीवित नहीं हुईं, तो जल्दी ही यहां जल-संकट की संभावना है. मक्के की खेती में खाद और जहरीली दवाओं का बहुत उपयोग होता है. ये दवाएं जमीन के नीचे के पानी से मिल जाती हैं. नदियों के जीवित होने का फायदा यह होगा कि नदियां इन दवाओं को बहा कर ले जायेंगी. नदियां दो स्तरों पर बहती हैं. एक तो ऊपरी स्तर पर और दूसरे जमीन के नीचे. मिट्टी के पोरस होने के चलते नदियों के आसपास से पानी का आना-जाना बना रहता है. पीने का पानी हम ज्यादा गहराई से निकालते हैं. नदियों के बहाव से ऊपरी पानी इन दवाओं को लेकर निकल जाती हैं. इसलिए, इसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर कम होने की संभावना रहती है.

नदियों का जीवित होना स्थानीय लोगों के जीवन के लिए बेहद जरूरी है. यहां की संस्कृति में नदियां रची-बसी हैं. सौहार्द्रपूर्ण सांप्रदायिक संबंध इन इलाकों की खासियत रही है. नदियां इन संबंधों को भी सींचती थीं. खेती के लिए पानी को नदियों से एक-दूसरे के खेत से लेकर जाना होता था और इसलिए इनका आपसी रिश्ता बनता था. लोगों में एक संवाद बनता था. नदियों के मर जाने से इन रिश्तों पर भी प्रभाव पड़ना लाजिमी है.

लेकिन, सवाल यह है कि इन नदियों का जीवन वापस मिलेगा कैसे? इस ओर न तो सरकार का ध्यान है और न ही सरकार की कोई नीति ही है. एक तरीका तो यह है कि लोग मिल-जुल कर इस पर काम करें. लेकिन, आज के जनतंत्र की समस्या यह है कि इसमें केवल राजनीति है, कोई समाजनीति नहीं है. इस क्षेत्र से इतना पलायन है कि शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले, जो इस तरह के सामाजिक कार्यक्रम को नेतृत्व प्रदान कर सके. नदियों को जीवित करने का जो प्रयोग जल-पुरुष राजेंद्र सिंह ने किया है, ऐसा ही कुछ इस इलाके में किया जा सकता है या नहीं, यह कहना कठिन है. संभव है देश में बढ़ते जल संकट के बीच पानी से भरपूर इस इलाके की याद ऐसे लोगों को आ जाये, जो इन नदियों की सुध ले सकें.

मणींद्र नाथ ठाकुर

एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू

manindrat@gmail.com

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