।। आनंद तेलतुंबड़े।।
(जाने-माने विद्वान व राजनीतिक विश्लेषक)
औपनिवेशिक दौर में अछूतों का गुस्सा पहली बार सामाजिक प्रक्रि याओं से उन्हें बाहर रखे जाने के खिलाफ जाहिर हुआ था. जोतिबा फुले के अलावा, जिन्होंने उनके मुद्दे को अस्पृश्यता के परे जाकर समझा और अछूतों को अपने ‘शूद-अतिशूद्र’ में एक ऐसे वर्ग के रूप में शामिल किया जो ‘शेतजी और भातजी’ (सेठ-साहूकार) के हाथों शोषित थे. दूसरे सभी समाज सुधारकों का पूरा जोर कुल मिला कर जाति की बीमारी के बजाए महज ऊपर से दिखनेवाले अस्पृश्यता के लक्षण पर ही था. लखनऊ संधि के बाद कांग्रेस को सचमुच अछूतों को हिंदुओं के रूप में अपने साथ बनाये रखने की जरूरत महसूस हुई, कि कहीं ऐसा न हो कि वे मुसलमानों के हाथ अपना राजनीतिक हिस्सा खो दें. इसलिए उन्होंने छुआछूत के मुद्दे पर काम करना शुरू किया.
बाबासाहेब आंबेडकर की लगातार कोशिशों के कारण, खास कर 1931-32 में गोल मेज सम्मेलन में उनकी जोरदार दलीलों से गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में अछूतों को ‘अनुसूचित जातियों’ के रूप में अलग और विशेष हैसियत मिली थी. 1937 के चुनावों से पहले, जब इस अधिनियम में दिये गये प्रावधानों को लागू कराने के लिए इस अनुसूची को तैयार करना था, इस सिलिसले में पूरे भारत में अस्पृश्यता के आधार पर जातियों की पहचान करने के लिए भारी मशक्कत की गयी. ये प्रावधान राजनीतिक शक्ल में थे. ये अलग निर्वाचक मंडलों के साथ आरक्षण की शक्ल में थे जो बाद में, पूना पैक्ट के कारण बदले हुए रूप में, साङो निर्वाचक मंडलों में आरक्षण के रूप में सामने आये. अधिनियम में तरजीही प्रावधान भी थे जिनमें राज्य को उनके हितों का खयाल रखने की जिम्मेदारी दी गयी थी. इसी के मुताबिक अनुसूचित जातियों के सक्षम लोगों को सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां दी गयीं. जब डॉ आंबेडकर 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य बने, यह तरजीही नीति एक कार्यकारी आदेश के जरिए कोटा सिस्टम में बदल दी गयी.
यहां गौर किया जाना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का इस बिंदु तक विकास अवधारणा के स्तर पर सही था. एक आम नियम के अपवाद के रूप में आरक्षण को असाधारण लोगों तक विस्तार दिया गया (अछूत एक बेहद असाधारण समूह हैं, इस पर कोई भी असहमत नहीं होगा). लेकिन सत्ता हस्तांतरण के बाद, संविधान लिखे जाने के दौरान इस असाधारण प्रावधान का विस्तार इस तरह हुआ कि इसकी वजह से समाज में चले आ रहे सांप्रदायिक और जातीय विभाजन आनेवाले दिनों के लिए पुख्ता हो गए, वरना ये राजनीतिक अर्थव्यवस्था में आनेवाले बदलावों के जोर के आगे टिक नहीं पाते और मिट जाते. पहली बात तो यह हुई कि जो प्रावधान अछूतों के लिए बनाये गये थे, उन्हीं प्रावधानों को एक नयी अनुसूची बना कर आदिवासियों तक बढ़ा दिया गया. अगर सरकार आदिवासियों के लिए कुछ करना चाहती थी तो इसका एक विकल्प यह था कि अनुसूचियों को एक साथ मिला दिया जाता या अछूतों के लिए मौजूद अनुसूची को बढ़ा कर उसमें आदिवासियों को शामिल कर लिया जाता. ऐसा करने से जाति का मुद्दा धुंधला पड़ गया होता क्योंकि आदिवासी पिछड़े थे, लेकिन उन पर अछूतों की तरह सामाजिक कलंक नहीं था. अगर इन अनुसूचियों का मकसद ठीक-ठीक समान था तो इनको अलग किये जाने का कोई मतलब नहीं था सिवाए यह कि इसने अछूत जातियों को एक अलग श्रेणी के रूप में जिंदा रखा. इस अलगाव का लाभ विभिन्न समुदायों की उन मांगों में बखूबी दिखता है जो खुद को अनुसूचित जनजातियों में तो शामिल किये जाने की मांग करते हैं, लेकिन अनुसूचित जातियों में कतई नहीं. यह उन्हें कमतर होने का सामाजिक कलंक उठाये बिना सारे फायदे मुहैया कराता है.
आदिवासियों (जनजातियों) के लिए बनी अनुसूची में एक और समस्या यह थी कि आदिवासियों के रूप में समुदायों की अनुसूची बनाने के लिए एक ढीले-ढाले मानक का इस्तेमाल किया गया था. अछूतों के उलट, जिनको अनुसूची में अछूतपन के एक ठोस मानक के आधार पर शामिल किया गया था. शायद ऐसा कोई मानक किसी दूसरे समुदाय के बारे में असंभव था. यह समस्या इस शक्ल में सामने आयी कि कुछ गलत समुदायों को अनुसूची में शामिल कर लिया गया जिन्होंने आदिवासियों के लिए बने फायदों पर कब्जा कर लिया है. हरेक राज्य में यह दिखेगा कि महज एक या दो समुदायों ने, जो यों भी आगे बढ़े हुए हैं, अनुसूची के सारे फायदों पर कब्जा कर लिया है.
सबसे बड़ा खेल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत खेला गया, जिसने अन्य पिछड़े वर्गो की भलाई को बढ़ावा देने को सरकारों के लिए बाध्यकारी बना दिया. संविधान की हिमायत में कोई यह दलील दे सकता है कि अनुच्छेद में इस्तेमाल शब्द ‘सामाजिक और शैक्षणकि रूप से पिछड़े वर्ग’ है, न कि ‘जातियां’. असल में संविधान अछूतों के संदर्भ को छोड़ कर कहीं भी ‘जाति’ का इस्तेमाल नहीं करता है. लेकिन इस बात को सब जानते थे कि अनुच्छेद में ‘वर्ग’ का मतलब क्या था. यह सिर्फ जातियों के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाने वाला था. इस अनुच्छेद को शासक वर्गो के लिए एक ऐसा हथियार बन जाना था, जिसे किसी ‘सही’ मौके पर इस्तेमाल किया जा सके. शासक वर्ग को संविधान ने कहीं अधिक जरूरी जिम्मेदारियां सौंपी थीं. एक दशक के तयशुदा समय के भीतर पूरा किये जाने की मांग करती ऐसी एक और अकेली जिम्मेदारी थी : चौदह साल की उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान. उन्होंने इसकी अनदेखी कर दी, लेकिन फौरन अनुच्छेद 340 का अनुसरण करते हुए ‘पिछड़े वर्गो’ की पहचान करने के लिए 29 जनवरी 1953 को कालेलकर आयोग का गठन कर दिया. कुदरती तौर पर, अपने सामाजिक पिछड़ेपन के संदर्भ में, जातियों को तो तस्वीर में आना ही था. वो आयीं और आयोग ने ऐसी जातियों की पहचान की जो ‘शैक्षणिक’ रूप से पिछड़ी थीं और सरकारी नौकरियों के साथ साथ व्यापार, कारोबार और उद्योग में उनका कम प्रतिनिधित्व था.
कालेलकर आयोग ने 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें 2399 पिछड़ी जातियों और समुदायों की पहचान पिछड़े के रूप में की. इसमें से 837 को उसने ‘सर्वाधिक पिछड़ा’ माना. अन्य मामलों में उसने 1961 में जातिवार जनगणना कराने और सभी तकनीकी और प्रोफेशनल संस्थानों में पिछड़े वर्गो के योग्य छात्रों के लिए 70 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की. शायद इसके लिए सटीक मौका सामने नहीं आया था इसलिए रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने इस आधार पर नकार दिया कि इसने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए किसी वस्तुनिष्ठ मानदंड का इस्तेमाल नहीं किया था.
अगले दशक तक, आंशिक भूमि सुधार और हरित क्र ांति की वजह से राजनीतिक अर्थव्यवस्था में बदलाव आने शुरू हुए, जिन्होंने भारी आबादी वाली शूद्र जातियों के बीच धनी किसानों के वर्ग को पैदा किया. इन जातियों ने व्यापक ग्रामीण भारत में ऊंची जातियों के हाथ से ब्राह्मणवाद की मशाल अपने हाथ में ले ली. इन बदलावों के नतीजे में क्षेत्रीय दलों के बनने में तेजी आयी और चुनावी राजनीति (जो सबसे ज्यादा वोट पानेवाले उम्मीदवार को विजयी घोषित करने पर आधारित है, जिसमें वोटों की एक छोटी संख्या भी नतीजों को बना और बिगाड़ सकती है) और ज्यादा प्रतिस्पर्धी बन गयी.
पिछड़ी जातियों का उभार और उनके क्षेत्रीय दल धीरे-धीरे स्थानीय स्वशासी निकायों से राज्यों में फैले और आखिर में इसका नतीजा 1977 में जनता पार्टी के हाथों कांग्रेस की हार के रूप में सामने आया. जनता पार्टी इन सभी तत्वों की एक पंचमेल खिचड़ी थी. जनता पार्टी सरकार ने 1 जनवरी 1979 को दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया, जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है. इस आयोग ने ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) की 11 कसौटियों पर पहचान की जो 3743 अलग-अलग जातियों और समुदायों से आते थे और कुल आबादी का 54 फीसदी थे (अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़ कर). आयोग के रिपोर्ट सौंपने के एक दशक के बाद 1989 में तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक मंसूबों के तहत जातियों का पिटारा खोलने का फैसला किया. इसका फौरी नतीजा यह हुआ कि देश भर में ‘आरक्षण’ के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आग फैल गयी, जो तब तक अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों तक ही सीमति थी और हिचक के साथ ही सही जिसको व्यापक रूप से मान लिया गया था. ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण 1993 में लागू हुआ और उच्च शिक्षा संस्थानों में 2008 में. आरक्षण राजनीतिक दलों के हाथों में एक हथियार के रूप में अपने सच्चे रूप में सामने आया जिन्होंने अपने राजनीतिक गुणा-भाग के लिहाज से इसका बेधड़क इस्तेमाल करना शुरू किया.
कोई भी समझदार इनसान आसानी से यह देख सकता है कि भारत जैसे पिछड़े देश में पिछड़ेपन को आरक्षण के लिए कसौटी के रूप में इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता, जहां 80 फीसदी आबादी (सरकारी हिसाब से 22.5 फीसदी एससी-एसटी तथा 54 फीसदी पिछड़ी जातियां जो मिल कर 76.5 फीसदी बनाती हैं. इनमें बाहर रखी गयी जातियों के 5 फीसदी गरीब लोगों को रख दें, तो यह आंकड़ा 81.5 फीसदी तक चला जायेगा) को पूरी तरह पिछड़ा कहा जा सकता है. कहने का मतलब यह नहीं है कि अछूतों के अलावा ऐसे लोग नहीं हैं जो उनसे गरीब और पिछड़े नहीं हैं. वे सचमुच हैं. और राज्य की उनके प्रति तयशुदा जिम्मेदारी बनती है. उसके पास इस जिम्मेदारी को पूरा करने के नीतिगत उपाय भी हैं, न कि अकेला आरक्षण, जो एक ऐसी दोधारी तलवार है जिसका इस्तेमाल बहुत सावधानी से करने की जरूरत है. मिसाल के लिए, संविधान में 14 वर्ष तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात सुझायी गयी थी. अगर इस अकेले प्रावधान को ठीक से लागू किया गया होता तो आरक्षणों की जरूरत तक नहीं रह गयी होती. अगर राज्य जनता के पिछड़ेपन पर सचमुच चिंतित है, तो उसने इस बात को यकीनी बनाने की जरूरत समझी होती कि इस धरती पर आये हरेक बच्चे को उसके मां-बाप की अक्षमताएं पैदाइशी तौर पर न मिलें. गर्भधारण करनेवाली हरेक औरत को बेहतरीन डॉक्टरी देखरेख और उचित भोजन राज्य मुहैया कराता. पैदाइश के बाद बच्चे के सेहतमंद विकास के लिए उचित भोजन और जरूरी चीजें मुहैया कराता. इसके बाद उसे बेहतरीन शिक्षा देता. अगर सभी बच्चे करीब के स्कूलों से समान शिक्षा हासिल करते तो एक स्वस्थ समाजीकरण होता और उनकी क्षमताओं को साकार होने के समान मौके मिलते. लेकिन राज्य ने इनकी पूरी तरह अनदेखी की. इसके बजाए जब उसे हालात ने इस मामले में कुछ करने को मजबूर किया तो उसने संविधान द्वारा दी गयी असल जिम्मेदारी को ही बदल दिया और ‘शिक्षा का अधिकार’ अधिनियम लागू किया. इस अधिनियम ने केवल उस बहुस्तरीय शिक्षा व्यवस्था को कानूनी जामा ही पहनाया है, जो सरकार की मेहरबानी से देश भर में फली-फूली है. यह व्यवस्था शिक्षा के स्तर को मां-बाप की सामाजिक-आर्थिक हैसियत की बुनियाद पर निर्धारित करती है, और यह मनु के नियमों के समान है. यहां भी, बहुत शातिराना ढंग से आरक्षण के हथियार का इस्तेमाल निचली जातियों और वर्गो को बेवकूफ बनाने के लिए किया गया है. कोई भी इस छोटे से इतिहास में शासक वर्गो के छिपे हुए मंसूबों को साफ साफ देख सकता है, कि वे सोने के अंडे देनेवाली ‘जाति’ की अपनी मुर्गी कभी मरने नहीं देंगे! (hashiya.blogspot.in से साभार)