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किसानों का रोष

तमाम मुश्किलों के बावजूद किसान खेती के काम में जुटा रहता है. उसे यह उम्मीद होती है कि आड़े वक्तों में सरकार उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ायेगी. लेकिन, देशभर में किसानों का यह भरोसा टूटता नजर आ रहा है. मध्य प्रदेश के मंदसौर का आंदोलन और महाराष्ट्र में प्रदर्शनों का दौर इसके ताजा उदाहरण […]

तमाम मुश्किलों के बावजूद किसान खेती के काम में जुटा रहता है. उसे यह उम्मीद होती है कि आड़े वक्तों में सरकार उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ायेगी. लेकिन, देशभर में किसानों का यह भरोसा टूटता नजर आ रहा है. मध्य प्रदेश के मंदसौर का आंदोलन और महाराष्ट्र में प्रदर्शनों का दौर इसके ताजा उदाहरण हैं. देश के अन्य हिस्सों से न्यूनतम समर्थन मूल्य, राहत, बीमा, कर्ज माफी आदि के मुद्दे पर अक्सर किसान गुहार लगाते दिख जाते हैं.

नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि एक भारतीय किसान परिवार औसतन 6,426 रुपये मासिक कमा पाता है, और इसमें सिर्फ आधी राशि ही फसलों से आती है. खेती पर निर्भर 50 फीसदी परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. यह भी ध्यान रहे कि 90 फीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है. वर्ष 2014 के चुनाव में भाजपा ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत के ऊपर 50 फीसदी लाभ को जोड़ कर तय किया जायेगा. तीन साल बीत गये, यह वादा पूरा नहीं किया गया.

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पैदावार खरीदने में सरकारों की अक्षमता के कारण किसानों को बाजार में कम दाम पर उपज बेचना पड़ रहा है. उत्पादन में वृद्धि के कारण भी दाम पर असर पड़ रहा है. किसानों को दिये जानेवाले कर्ज को लेकर भी नीतिगत स्पष्टता का अभाव है. ऐसे में उन्हें उच्च दर पर कर्जदाताओं से मदद लेनी पड़ती है. किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज अदायगी न कर पाना है. बड़े दुर्भाग्य की बात है कि पिछले ढाई दशकों में लाखों किसानों की मौत के बाद भी सरकारें ठोस कदम उठाने में विफल रही हैं. लगातार दो-तीन सालों की मॉनसून की अनिश्चितता ने कृषि संकट और गहरा कर दिया है.

सूखे और मंदी के कारण गांवों से हो रहे बड़े पैमाने पर विस्थापन ने शहरों के संसाधनों और रोजगार के अवसरों पर भारी दबाव पैदा कर दिया है. मंदसौर और महाराष्ट्र के मौजूदा आंदोलनों ने सरकारों और विभिन्न राजनीतिक दलों को प्रतिक्रिया देने पर मजबूर तो किया है, पर पिछले अनुभव यही बताते हैं कि राजनीतिक रोटियां सेंकने के बाद सत्ताधारी और विपक्षी खेमे फिर किसानों को भूल जायेंगे. सवाल यह है कि क्या देश का पेट भर रहे किसानों को हर बार अपनी छोटी-बड़ी समस्याओं के लिए राजधानियों का मुंह ताकना होगा और गाहे-बगाहे उन्हें जान भी देनी पड़ेगी?

देश की आधी आबादी खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. उसे भी आर्थिक विकास और नीतियों का समुचित लाभ मिलना चाहिए. इसे सुनिश्चित कर ही देश शांति और समृद्धि की राह पर अग्रसर हो सकेगा, अन्यथा हम एक बड़ी अस्थिरता को आमंत्रित करेंगे, जिसकी आहट साफ सुनाई दे रही है.

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