नयी दिल्ली:लोकसभा में वर्ष 2010 के शीतकालीन सत्र के विभिन्न मुद्दों की भेंट चढ़ने के बाद से न केवल संसदीय कामकाज में समग्र रुप से गिरावट आ रही है बल्कि विधेयकों को बिना चर्चा के हंगामे के बीच पारित किया जाना भी एक परंपरा बन गयी है और इसी के चलते विधेयकों पर चर्चा के लिए निर्धारित समय में लगातार कमी आ रही है.
लोकसभा सचिवालय सूत्रों ने आंकड़ों के हवाले से बताया कि 1952 में गठित पहली लोकसभा में विधेयकों पर चर्चा के लिए कुल 1844 घंटे का समय विधायी कामकाज के लिए निर्धारित किया गया था. इस पांच साल के कार्यकाल के दौरान लोकसभा ने अपने कुल 14 सत्रों में , कुल 677 बैठकों में विधायी कामकाज को संपन्न करने के लिए 48 7 फीसदी समय का इस्तेमाल किया.
आंकड़ें बताते हैं कि दूसरी से लेकर आठवीं लोकसभा तक विधायी कामकाज के लिए क्रमश: 28 3 फीसदी , 23 3 फीसदी , 22 . फीसदी , 27 6 फीसदी , 23 5 फीसदी , 24 फीसदी और आठवीं लोकसभा में विधेयकों पर चर्चा तथा उन्हें पारित करने में 25 फीसदी समय लगाया गया.पीआर लेजिसलेटिव रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार 15वीं लोकसभा में 345 बैठकों में सदन में सार्थक काम काज के घंटों का आंकड़ा 2070 रहा. लेकिन 15वीं लोकसभा के 15 सत्रों में मात्र 276 घंटे का समय विधेयकों पर चर्चा के लिए दिया गया जो मात्र 13 3 फीसदी है.