-दर्शक-
देश में बदलते राजनीतिक हालात के संदर्भ में 20.05.09 को दर्शक की ‘अपमान की राजनीति’ पर टिप्पणी प्रकाशित हुई थी. उसी संदर्भ में ‘राजनीति में आत्मसम्मान’ विषय पर यह दूसरी टिप्पणी है.
उफ ! तुम्हारे ये उसूल
सुहैल हलीम
चुनावी नतीजों ने भारत का राजनीतिक समीकरण कुछ इस तरह बदल दिया है कि जो लोग चुनाव से पहले कांग्रेस के खून के प्यासे थे, अब बगैर मांगे ही उसे बिना शर्त समर्थन देने के लिए परेशान घूम रहे हैं.उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच दौड़ इस बात की थी कि समर्थन का पत्र राष्ट्रपति तक पहले कौन पहुंचायेगा. उधर लालू प्रसाद यादव कह रहे हैं कि कांग्रसी नेता उनकी बेइज्जती कर रहे हैं, लेकिन वो भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का साथ देंगे.और ये सब धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है.
उफ! तुम्हारे ये उसूल, ये आदर्श! सांप्रदायिक ताकतों से ये नफरत और कांग्रेस से नि:स्वार्थ प्रेम!दिल चाहता है कि राष्ट्रपति को समर्थन का एक पत्र मैं भी दे आऊं फिर ख्याल आता है कि मेरे खिलाफ तो सीबीआई भ्रष्टाचार के किसी मामले की तफ्तीश नहीं कर रही, तो फिर जरूरत क्या है?
सुहैल हलीम की इस टिप्पणी पर 31 पाठकों ने तुरत बीबीसी हिंदी ब्लॉग को अपनी प्रतिक्रियाएं भेजी. पढ़िए बानगी के तौर पर कुछेक प्रतिक्रियाएं.
* सब अपना मतलब है, दोस्त. कोई किसी का समर्थन नहीं कर रहा है. सारे नेता जानते हैं कि अब पांच साल सरकार को खतरा नहीं है, तो फिर सरकार में ही शामिल होने में भलाई है. सारे नेता मक्कार हैं. — (इफ्तेखार फारूखी)
* धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा जादुई चादर है, जिसे ओढ़ने से सारे पाप छिप जाते है. जितने भी राजनीतिक दल हैं, करीब-करीब सभी अपने पाप छुपाने के लिए इस जादुई चादर को ओढ़े हुए हैं. इन दलों को धर्म निरपेक्ष होने की महानता का लाभ चुनाव में तो मिलता है, बाकी लाभ की चर्चा आपने कर ही दी है. — (कृष्णा तरवे)
* बात यह है कि ये लोग सत्ता दल में ही रहना चाहते हैं, बड़ी विडंबना है कि आपके सात खून माफ हैं अगर आप सत्ता पक्ष में हैं. क्या मजाल कि सीबीआई या दूसरी निष्पक्ष तफ्तीशी एजेंसियां आपका कुछ बिगाड़ लें. — (इकबाल फैजी)
* जनाब बात यह नहीं है कि आज सभी दल कांग्रेस को समर्थन देना चाहते हैं. बात यह है कि इनको अपनी जमीनी सच्चाई के बारे में पता लग गया है कि यह अब बीते जमाने की पार्टियां होने वाली हैं, क्योंकि चुनाव से पहले इन छोटे दलों ने अपनी महत्वकांक्षा जग-जाहिर कर दी थी, सभी को प्रधानमंत्री बनना था. किसी को भी जनता का शुभचिंतक नहीं और यदि बात जनता जनार्दन को समझ में आ गयी कि अब इनको आईना दिखाने का वक्त आ गया है. लालू हो या पासवान या मुलायम हो या मायावती जी, सभी जनता को मूर्ख समझते हैं. आज काम करनेवाले को सलाम किया जाता है. भाषण देने वाले को नहीं. मनमोहन हों या राहुल, जो देशहित की बात करेगा, देश में वही राज करेगा. — (ताजुद्दीन खान)
(कमोबेश ये सभी प्रतिक्रियाएं, राजनीतिज्ञों के आचरण के खिलाफ हैं. )
बीबीसी हिंदी ब्लाग पर सुहैल हलीम की छोटी टिप्पणी ने अनेक प्रतिक्रियाएं आमंत्रित की. इनमें से कुछेक प्रतिक्रियाएं बानगी के तौर पर ऊपर हैं. पाठकों की ये बेबाक टिप्पणियां आज की राजनीति और राजनेताओं का चरित्र, चिंतन और व्यक्तित्व स्पष्ट करती है. दरअसल लोकसभा चुनाव के परिणाम आते ही सरकार बनाने के क्रम में हालात ऐसे बने कि एक बुलावे, सौ धावे की स्थिति बन गयी. कांग्रेस को उम्मीद से अधिक सीटें मिलते ही समर्थन देने की होड़ मच गयी.
याद करिए, वह दृश्य, जब पिछली लोकसभा में मनमोहन सिंह सरकार विश्वास मत प्राप्त कर रही थी. कैसी-कैसी शर्तें यही लोग लगा रहे थे? लालू प्रसाद और राम बिलास पासवान तो केंद्र सरकार और यूपीए के अंग थे. पर जो नये समर्थक यूपीए के पक्ष में खड़े हो रहे थे, उनके क्या हालात थे? कोई किसी बड़े आद्यौगिक घराने के लिए राहत और छूट मांग रहा था. कुछेक लोग निजी डिमांड की सूची पर देश की राजनीति या देश का भविष्य तय कर रहे थे.
वह दृश्य देख कर स्पष्ट हो गया था कि भारतीय राजनीति में मुद्दों, नीतियों और मूल्यों की जगह नहीं रह गयी है. इनकी जगह स्वार्थ, निजी हित, निजी डील वगैरह ने ले ली है. हालांकि देशहित में यह होना चाहिए था कि अमेरिका से एटमी डील सही है या गलत, इसपर वैचारिक खेमेबंदी होती. दलीय विभाजन होता. पर सौदेबाजी की राजनीति, ब्लैकमेल की राजनीति और डील की राजनीति ने राजनीतिज्ञों का चेहरा साफ कर दिया है. तब जो क्षेत्रीय दल यूपीए सरकार के अंग थे, उन्हें छोड़ कर जिन लोगों ने एटमी सवाल पर सरकार को समर्थन दिया या जो सांसद पार्टी व्हिप के बावजूद अचानक संसद से अनुपस्थित हो गये, इससे क्या संकेत मिले? इसके बाद संसद में नोट लहराने की घटना हुई. लगा राजनीति में आत्मसम्मान की जगह नहीं बची, बल्कि सौदेबाजी और डील अहम हो गये हैं.
दूसरा दृश्य. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के बाद का दृश्य. पार्टियों ने लाइन लगा दी, कांग्रेस समर्थन में. बिन बुलाए मेहमान. याद करिए जब 2004 में यूपीए सरकार बन रही थी, तब बिन बुलाए अमर सिंह सोनिया के यहां भोज खाने पहुंच गये. भोज में यूपीए नेताओं को बुलाया गया था, उन्हें नहीं. इसी तरह इस बार भी मुलायम सिंह यादव के दल ने पहले कुछ और बयान दिया. फिर मौजूदा सौदेबाजी की राजनीति के सदाबहार नायक अमर सिंह समर्थन दे आये. उन्होंने कहा, प्रधानमंत्री ने फोन कर उन्हें ऐसा करने को कहा. उन्होंने कांग्रेस को अपने किये कामों की याद भी दिलायी. कांग्रेस पर अपने दल के उधार व ऋण की भी चर्चा की. हालांकि एक भी कांग्रेसी ने खुले रूप से न उनसे समर्थन मांगा, न कोई टिप्पणी की.
अब सपा ने यूपीए सरकार को समर्थन दे दी, तो भला मायावती कैसे पीछे रहतीं? उन्होंने भी एकतरफा समर्थन की घोषणा कर दी. ये दोनों दल एक खेमे में एक साथ, किसी सूरत में रहने को तैयार नहीं. फिर भी दोनों उत्सुक और उतावले कि कांग्रेस की समर्थन सूची में तत्काल शामिल हो जायें. इसी तरह अजित सिंह का दल, देवगौड़ा का जनता दल-एस वगैरह. इन सब में होड़ मची थी कि कौन कांग्रेस के दरवाजे पर पहले पहुंचे.
इन नेताओं ने प्रमाणित कर दिया कि भारतीय राजनीति में सिद्धांत और मुद्दे महत्वहीन हो गये हैं. अब अन्य कारण ज्यादा महत्वपूर्ण और निर्णायक हो गये हैं. मसलन चुनाव प्रचार में बसपा ने आरोप लगाया कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मायावती के खिलाफ चल रहे जांच के मामलों में, सीबीआई जांच को लेकर धमकी दी. उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह के खिलाफ भी सीबीआई जांच का मामला है. सुप्रीम कोर्ट ने इस जांच प्रसंग में सीबीआई पर नरम पड़ने की टिप्पणी की थी. उल्लेखनीय है कि एक कांग्रेसी ही मुलायम सिंह एंड परिवार की गलत ढंग से अर्जित संपत्ति की फेहरिस्त तैयार कर अदालत गये थे.
तब कांग्रेस के नेता बुलंद आवाज में मुलायम के खिलाफ आवाज लगा रहे थे. पर न्यूक्लीयर डील प्रसंग पर तत्कालीन सरकार को मुलायम सिंह से समर्थन मिलने के बाद, इस जांच में शिथिलता के दृश्य साफ दिखे. बीबीसी हिंदी ब्लॉग पर आयी टिप्पणियों से साफ है कि जनता अब सब दृश्य साफ-साफ समझ रही है. परदे के पीछे के डील को वह जानती है. वह जानती है कि सीबीआई जांच का भय किसे सता रहा है? आज ये नेता सिद्धांत व वसूलों से बंधे होते, तो इन्हें क्यों भयभीत रहना पड़ता? राजनीतिक दलों या नेताओं का कद ऐसे कामों से बढ़ रहा है या घट रहा है? शायद इस पर सोचने के लिए कोई तैयार नहीं है क्योंकि राजनीति में आत्मसम्मान की जगह, डील और सौदेबाजी ने ली है. वसूल और सिद्धांत की जगह, सत्ता और पैसा ने ले ली है.
समर्थन देने का यही काम क्या आत्मसम्मान के साथ संभव था? बिलकुल. कांग्रेस की केंद्र सरकार या नयी यूपीए सरकार को समर्थन देने वाला हर दल यह कहता कि हम रचनात्मक सहयोग देंगे. यह पहल हम खुद कर रहे है, देशहित में कर रहे हैं. वसूलों और मुद्दों के कारण कर रहे हैं. देश जिन चुनौतियों से जूझ रहा है, उन चुनौतियों के संदर्भ में ये समर्थक दल अपनी-अपनी नीतियां देश को बताते. मसलन आज देश की सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
अर्थसंकट. आज दुनिया मंदी की शिकार है. अमेरिका की कमर पर गहरी चोट है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चुनाव प्रचार में बार-बार कहा था, सत्ता दीजिए, सौ दिनों में मंदी का हल ढू्ढ़ देंगे. ये दल कहते कि इस संकट से निकलने के संदर्भ में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के बयान पर हमें भरोसा है. इसलिए हम समर्थन दे रहे हैं. अगर सौ दिनों में हल के संकेत नहीं मिले, तो हम अपनी ओर से पहल कर सरकार को वैकल्पिक नीतियों पर सुझाव देगें और आग्रह करेंगे कि सरकार इसे लागू करे. पर समर्थन देनेवाला कोई दल ऐसा नहीं कह या कर सका. इन दलों में सिद्धांत और विचार के लिए जगह ही नहीं है. निजी डील की सूची हमेशा इनके पॉकेट में तैयार रहती है, पर सैद्धांतिक और वैचारिक सवालों पर विचार करने के लिए, न इनके पास समय है, न ही ऐसे दलों में कभी ऐसे राष्ट्रीय सवालों पर चर्चा ही होती है. कभी इनके नेताओं से सवाल कर लीजिए.
अर्थनीति, कृषिनीति, उद्योग नीति, विदेश नीति, गृह नीति, आंतरिक सुरक्षा नीति, आइटी नीति वगैरह पर इनके क्या विचार हैं? क्या विजन हैं? ये दो पंक्ति नहीं बता सकते.भ्रष्टाचार – इसी तरह भ्रष्टाचार देश का सबसे अहम मुद्दा है. आजादी मिलते ही पंडित नेहरू का सपना था कि भ्रष्टाचारी चौराहे के लैंपपोस्टों पर लटकाये जायें. बिन मांगे समर्थन देने वाले दल कम से कम यह मांग तो करते कि कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ समयबद्ध कदम उठाये. चुनावों में स्विस बैंक में जमा भारतीय धन बड़ा मुद्दा होकर उभरा. कांग्रेस ने भी कहा, वह सत्ता में लौटी, तो यह धन वापस लायेगी.
लगभग सभी छोटे-बड़े दलों ने भी ऐसी ही बात कही. इसी बीच स्विटजरलैंड से सूचना आयी कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने स्विस बैंक को इस संबंध में गलत तथ्य उपलब्ध कराये थे. नहीं मालूम, सच्चाई क्या है? पर हकीकत यह है कि आजाद भारत का सबसे बड़ा मुद्दा है, भ्रष्टाचार. क्या समर्थन देने वाले दल, नयी सरकार को यह याद नहीं दिला सकते थे कि स्विस बैंकों में जमा भारतीय धन को निश्चित अवधि में वापस लाने का वादा कर, यह सरकार एक ठोस कदम उठाये? इससे बिन मांगे समर्थन देनेवाले दलों की राजनीतिक या सैद्धांतिक प्रतिबद्धता भी स्पष्ट होती.
लगता कि ये दल लोकनीति या लोक मुद्दों पर भी राजनीति करते हैं. इसी तरह गवर्नेंस के सवाल पर, देश में गवर्नेंस में सुधार के लिए यूपीए सरकार ने एडमिस्ट्रेटिव रिफार्मस कमिटी बनायी थी. उस कमिटी के संयोजक वीरप्पा मोइली थे. अब वह केंद्र सरकार में मंत्री हैं. इस कमिटी ने महत्वपूर्ण काम किया है. पर यह कमिटी भी सिर्फ रिपोर्ट ही दे सकी. यूपीए सरकार ने इस रिपार्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. आज भारत को आगे बढ़ना है, तो प्रशासनिक सुधार सबसे अनिवार्य आरंभिक कदम हैं. क्या समर्थन देनेवाले दल कांग्रेस को यह याद नहीं दिला सकते थे कि वह तीन महीने के अंदर इसके कार्यान्वयन के लिए एक ठोस पहल करे?
अगर मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, राम बिलास पासवान, मायावती, देवेगौड़ा, फारूख अब्दुल्लाह वगैरह ये चीजें सार्वजनिक ढंग से कहते, तो उसका गहरा असर होता. ऐसे अनिवार्य और देशहित के मुद्दों को उठा कर ये दल अपना एक सकारात्मक चेहरा सामने लाते. इससे स्पष्ट होता कि इनकी प्रतिबद्धता देश के ‘ज्वलंत सवालों के प्रति है, निजी हितों के प्रति नहीं. पर इन्होंने यह अवसर भी खो दिया. आज लालू प्रसाद को भले ही सीटें बहुत कम मिलीं हो, पर उन्हें बीस फीसदी के आसपास वोट मिले. क्या इतना समर्थन पाकर सकारात्मक विपक्ष की भूमिका में ये दल या राजद नहीं हो सकते? इनके रिवाइवल का रास्ता भी एक मात्र यही है. और यही आत्मसम्मान की राजनीति भी है.
इसी तरह सरकारी इंस्टिट्यूशंस् को चुस्त-दुरूस्त और प्रोफेशनल बनाने का प्रसंग है. मसलन सीबीआई. सीबीआई जैसी संस्था विवादों में घिरे, यह किसी के हित में नहीं है. पर सच यही है कि आज सीबीआई विवादों में है. क्योंकि ये ताजा तथ्य हैं –
* एक संदर्भ में सीबीआई ने खुद सुप्रीम कोर्ट में माना है कि उन पर राजनीतिक दवाब रहता है.
* राहुल गांधी ने भी कहा था कि सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल होता है.
* यह भी चर्चा है कि यूपी के दो बड़े दल, दोनों एक दूसरे के जान के दुश्मन, इसलिए सरकार को समर्थन दे रहे हैं कि उसके शीर्ष नेताओं के खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है.
* याद होगा कि 1977 में जनता पार्टी ने धर्मवीर के नेतृत्व में पुलिस सुधार आयोग बनाया था. उस आयोग ने पुलिस सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण सुझाव दिये थे. तब जेपी आंदोलन से निकले लोग भी पुलिस सुधार के पक्षधर थे. आज लालू प्रसाद या राम बिलास पासवान अपने समर्थन के साथ यह शर्त जोड़ते, तो उसका भी असर पड़ता. जेपी आंदोलन से निकले लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष की देन हैं. वीपी सिंह ने भी जब बोफोर्स में दलाली का प्रसंग उठाया, तो ये नेता उनके साथ रहे. आज जब सभी दल, नेता मानते हैं कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती है, तब क्या ये दल अपनी कांग्रेस भक्ति या समर्थन के साथ, कांग्रेस को यह याद नहीं दिला सकते थे कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठाये?
विदेशी खतरा – भारत के वायुसेना प्रमुख ने यह खुला बयान दिया है कि भारत के लिए पाकिस्तान से बड़ा खतरा है, चीन. वह कहते हैं कि चीन की सैन्य शक्ति का अंदाजा हमें नहीं है. न ही हमें उसकी विषमता की सूचना है. आज भारत के पड़ोसी देश, चीन के प्रभाव और छतरी के नीचे हैं. चाहे नेपाल हो, बांग्लादेश हो, श्रीलंका हो, या पाकिस्तान हो. ऐसी स्थिति में इस देश को क्या एक प्रभावी विदेश नीति नहीं चाहिए? क्या बिन मांगे समर्थन देने वाले कांग्रेस को एक सार्थक और चुस्त विदेश नीति का स्मरण नहीं करा सकते थे?
इसी तरह घरेलू मोर्चे पर अनेक गंभीर चुनौतियां हैं. प्रधानमंत्री ने पिछली यूपीए सरकार में दो बार बयान दिया कि आजादी के बाद नक्सल समस्या देश की सबसे बड़ी चुनौती है. प्रधानमंत्री इस देश का सबसे ताकतवर पद है. उनका बयान अगर सिर्फ बयान तक रह जाये, तब कौन ढूंढ़ेगा निदान? एक सार्थक और रचनात्मक विपषा उन्हें याद दिलाता कि अब अवसर है कि इस चुनौती का हल निकले, चाहे बातचीत से, चाहे उन इलाकों में विकास कार्यों को तेजी कर, भ्रष्टाचार खत्म कर, प्रो-पीपुल नीतियां अपना कर. साथ में चुस्त प्रशासनिक कदम उठा कर. पर यह भी नहीं हुआ. इसी तरह आतंकवाद की राजनीति या तालिबान का प्रसंग है.
आज तालिबान भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. इसी वर्ष मई के आसपास जब जयपुर में विस्फोट हुए, तब भारत के सुरक्षा सलाहकार ने कैबिनेट को स्तब्ध करनेवाली जानकारियां दीं. कैसे बड़े पदों पर बैठे अफसर या आईबी सूचनाओं को एकत्र करने में विफल हैं. किसी व्यवस्था के विफल होने की इससे गंभीर टिप्पणी नहीं हो सकती. आज जरूरत है कि रचनात्मक सहयोग देनेवाले विपक्षी यह कहते कि ये सभी मुद्दे या अन्य मुद्दे (जिनका उल्लेख यहां नहीं हुआ है), इस देश को बेहतर बनाने में सबसे गंभीर बाधाएं हैं. इन बाधाओं को दूर करने में कांग्रेस ठोस और सार्थक कदम उठाये, हम इसके लिए कांग्रेस के साथ हो रहे हैं.
पर समर्थन देनेवाले किसी भी दल ने लोकहित और देशहित वाले इन सवालों को सार्वजनिक एजेंडा नहीं बनाया? क्यों? क्या इन दलों के पास कोई विजन नहीं है, दृष्टि नहीं है या अपने स्वार्थों में घिरे ये आत्मकेंद्रित दल हैं? दरअसल ये दल या नेता हर चीज जानते हैं. पर स्वार्थ में अंधे हैं. ये बात तो लोकतंत्र की करते हैं, पर अपने-अपने दलों में लोकतंत्र नहीं चाहते. न इन क्षेत्रीय दलों में आंतरिक लोकतंत्र है और न सामूहिक नेतृत्व. इन्होंने अपने-अपने दलों को जेबी संस्था बना ली है. जयप्रकाश नारायण कहा करते थे कि जो नेता अपने-अपने दलों में अंदरूनी लोकतंत्र कायम नहीं कर सकते, लोकतांत्रिक आचरण नहीं कर सकते, वे देश के लोकतंत्र को कैसे मजबूत बना सकते हैं?
उनमें लोकतांत्रिक स्पिरिट हो ही नहीं सकता. पहले दलों के अंदर अंदरूनी लोकतंत्र होता था. दलों के वार्षिक अधिवेशन होते थे. कार्यसमिति और अध्यक्ष वगैरह के चुनाव होते थे. हर महत्वपूर्ण सवाल पार्टी में डिबेट होता था. देश की विदेश नीति, गृह नीति, अर्थ नीति, उद्योग नीति पर लंबी बहसें होतीं थीं. इन बहसों में दलों के कद्दावार नेता भाग लेते थे. तब दलों में आलाकमान, एक व्यक्ति या एक परिवार का जोर नहीं था. परिवार, पैसा और सत्ता नेताओं के ध्येय नहीं थे.
क्या आज के राजनीतिक दल सचमुच दल हैं या गिरोह? अगर राजनीतिक दल होते, तो वे सशर्त मुद्दों पर समर्थन देते. बिन बुलाए समर्थन नहीं. पर खुद इन दलों में अंदरूनी लोकतंत्र नहीं है, न इनके पास नीतियां हैं. इसलिए बिन पेंदी लोटा की तरह ये लुढ़कते हैं. ये दल नैतिक रूप से भी कमजोर हैं. इनमें से अधिसंख्य अपराधियों को भी संरक्षण देते रहे हैं. जो खुद ऐसे काम करते हों, वे नैतिक रूप से मजबूत विपक्ष की भूमिका कैसे निभा सकते हैं?
आज संसद या विधानमंडलों में बहस और कामकाज का स्तर कहां पहुंच गया है? सांसद एक दूसरे पर चीखते -चिल्लाते हैं. आंखे तरेरते हैं. किसी गंभीर मुद्दे पर उत्कृष्ट बहस नहीं होती. आक्रामक मुद्रा में एक दूसरे पर प्रहार करते हैं. जो संस्थाएं देश की सबसे बड़ी पंचायत है, वहां के सदस्य अशोभनीय आचरण करते हैं. क्या राजनीति के स्तर को बेहतर बनाने का एजेंडा नहीं बन सकता? क्या कांग्रेस को बिन मांगे समर्थन देनेवाले ये दल, यह नहीं कह सकते थे कि हम कांग्रेस को समर्थन तो दे ही रहे हैं, पर हम साथ-साथ रचनात्मक विरोध का एक नया दौर भी आरंभ करेंगे? भारतीय राजनीति की जो संस्कृति बिग़ड गयी है, उच्छृंखल हो गयी है, उसे मर्यादित बनायेंगे.
बिन मांगे समर्थन देने वाले ये दल, ऐसा कुछ नहीं कर सके या कह सके, क्योंकि ये सत्ता के भूखे हैं या सत्ता के वरदहस्त में जीने को अभ्यस्त हो गये हैं. अपनी ताकत और आत्मविश्वास भूल गये हैं. दरअसल जो अपना आत्मविश्वास खो देता है, वह जनता की ल़डाई कैसे जीत पायेगा. हां, अपनी कुर्सी के लिए ये नेता जरूर लड़ते रहेंगे. ये नेता आत्मसम्मान की राजनीति नहीं कर सकते, क्योंकि आत्मसम्मान की राजनीति, मुद्दों, विचारों और सिद्धांतों के गर्भ से निकलती है. और फिलहाल भारतीय राजनीति का यह दौर मुद्दों, विचारों और सिद्धांतों से कट गया है.