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ठहराव तोड़ने की कीमत

-हरिवंश- विश्व जनमत के खिलाफ अमेरिका का इराक पर हमला! झारखंड की राजनीति में आये तूफान से बेनकाब चेहरे, दल और उनके सिद्धांत!!इस माहौल से बेचैन लोगों के फर्ज क्या हैं? अक्सर पाठक-लोग फोन कर या पत्र लिख कर पूछते हैं कि रास्ता क्या है? कैसे नयी शुरुआत हो? समस्याएं तो रोज पढ़-सुन रहे हैं, […]

-हरिवंश-

विश्व जनमत के खिलाफ अमेरिका का इराक पर हमला! झारखंड की राजनीति में आये तूफान से बेनकाब चेहरे, दल और उनके सिद्धांत!!इस माहौल से बेचैन लोगों के फर्ज क्या हैं? अक्सर पाठक-लोग फोन कर या पत्र लिख कर पूछते हैं कि रास्ता क्या है? कैसे नयी शुरुआत हो? समस्याएं तो रोज पढ़-सुन रहे हैं, समाधान क्या है?
ऐसे यक्ष प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए ही इतिहास है. इतिहास की पुरानी घटनाओं को आप पलट नहीं सकते, जो देश, कौम या समाज अतीत को पलटने चलता है (जैसा अयोध्या में हो रहा है), भविष्य के पत्रों में उसके हस्ताक्षर धूमिल पड़ जाते हैं, पर, जो इतिहास को भविष्य गढ़ने की सीढ़ी मानते हैं, वे भविष्य के शानदार अध्याय की वे रचना करते हैं.
एक ध्रुव सत्य है, हालात बदलने का कोई शार्टकट नहीं होता, इतिहास पलटिए. 1857 के बाद लगभग 50 वर्षों तक सन्नाटा रहा. अंधकार का दौर, इतिहास, समाज या व्यक्ति के जीवन में ऐसे दौर बार-बार आते हैं. यह प्रकृति चक्र है. पर बार-बार यह कैसे टूटता है? मानवीय संकल्प ही भविष्य का इतिहास लिखता है. पर यह राह कांटों से भरी है. इसमें दुख है. जोखिम है. धैर्य की परीक्षा है, इसमें चुपचाप मिट जाना भी नियति है.

असल संकट है कि आज के उपभोक्ता समाज में इस आग भरी राह पर चलने के लिए कोई तैयार नहीं है. हम फास्ट फूड की तरह रातोंरात फास्ट बदलाव चाहते हैं. पर सामाजिक हालात, फास्ट फूड की तरह नहीं होते, मनुष्य के जीवन के लिए 10, 20, 50, 100 वर्षों का बड़ा महत्व है. पर देश, समाज या इतिहास में तो ये वर्ष पल की तरह है. इसलिए जो लोग बेचैन हैं, उन्हें भविष्य की नींव बननी पड़ेगी. अपनी कुरबानी से ही वे अपनी भावी पीढ़ी के लिए भविष्य की सुरक्षित इमारत खड़ी कर सकते हैं, पिछले 50 वर्षों की जड़ता, पल भर में नहीं मिटेगी, 1857 से छाये अंधकार को दूर करने के लिए लाखों अनाम लोगों ने शहादत दी.

अंधकार से पराजय के उन क्षणों को कौन याद रखता है? उनकी यातनाएं कितने लोगों को याद हैं? आग में तप कर ही सोना निखरता है, पर आग में तपने की पीड़ा, आंच में झुलसने की मन स्थिति, जो स्मृति में रखते में रखते हैं, वे ही भविष्य का इतिहास गढ़ते हैं, इसलिए तपने की पीड़ा के क्षण याद रखना जरूरी है. वे क्षण ही हमें भविष्य की ऊर्जा दे सकते हैं.

उनसे ही नयी रोशनी जलाने की ताकत मिल सकती है. दीप से दीप जलता है. इस कांटों भरी राह पर बदलाव का कोई एक सही पांव आगे बढ़े, तो …बोध को याद रखिए. हजार राहें फूट पड़ेगी. अचानक कोई मुक्तिदाता पैदा नहीं होता, न दिग्विजयी सम्राट. न हमारी जरूरत से ‘अवतार’ धरती पर आते हैं. सही है कि हमें एक रोशनी चाहिए.

वह प्रकाश पुंज, जो दीप, देह और दिल को रौशन कर दे. नकली झाड़ फानूसों में, पांच सितारा सरकारी आवासों-होटलों में, हीरा, सोना या चांदी की आभा में आज के धवलित चेहरों में वह नूर नहीं है, इस ‘नूर’ की कीमत आज जानते हैं? गांधी पहली यरवदा जेल भेजे गये. आम कैदियों जैसा निर्मम बरताव उनके साथ हुआ. उनकी लंबाई नापी गयी. शरीर पर पहचान के दाग ढूढ़े गये. रोज रात को ताला लगाने के पहले उनकी खानातलाशी की जाती. याद रखिए, वे घुटने के ऊपर तक धोती पहनते थे. पर उनके पैरों को भी जेलर चेक करता. उनके कंबलों की जांच होती.

उन्हें चरखा नहीं दिया गया. जबकि रोज चरखा कातने की शपथ उन्होंने ली थी. भयानक गरमी में भी उन्हें कोठरी में ही तपना पड़ता. देवदास गांधी या राजगोपालाचारी जैसे लोग जब गांधी से मिलने आते, तो उन्हें भी खड़े-खड़े बतियाना पढ़ता. जेल अधीक्षक ऐसे लोगों की बातचीत में खड़ा रहता टोकता. बीच में कूद पड़ता. चार चिट्ठियां उन्हें लिखने का आदेश था. दो ही लिखीं. सेंसर हुआ. चुपचाप पत्र लिखना छोड़ दिया. उन्होंने एक साधारण कैदी का हर अपमान झेला.

1924 जनवरी में उन्हें गंभीर अपेंडिसाइटिस हुआ. पुणे के ससून अस्पताल वह भेजे गये. 12 जनवरी (1924) को रात 10 बजे उन्हें ऑपरेशन टेबुल पर लिटाया गया. बिजली चली गयी. नर्स के हाथों में फ्लैश लाइट थी. वह भी बुझ गयी. लालटेनों की रोशनी में ऑपरेशन हुआ. भारत लौटने के बाद दो हजार एक सौ 19 दिन वह जेलों में रहे. जेल में ही महादेव देसाई और बा… मरे कुल 188 बार उन्होंने उपवास किया. जिन्होंने जयप्रकाश के अंतिम दिन देखे हैं. उन्हें ‘नूर’ बनने की कीमत जरूर मालूम होगी.

और एक मार्मिक प्रसंग गांधी शहर छोड़ कर गांववासी बन गये थे. मंगनबाड़ी, वर्धा छोड़ कर सेगांव में रहने का फैसला किया. वर्धा से चार मील पूरब. 1936 जून का महीना. वहां रहने की जगह नहीं थी. किसान बलवंत सिंह और वकालत छोड़ने वाले मुन्नालाल शाह उनके सहयोगी थे. गांधी वर्धा से दक्षिण भारत गये. अपने दोनों सहयोगियों से कहा कि मडई (कुटी) बना कर रखो, ताकि सेगांव अब सेवाग्राम में आसमान के नीचे न होना पड़े. 14 जून को लौटूंगा. उस दिन सुबह भारी बरसात हो रही थी. काली मिट्टी, फिसलनवाली मिट्टी. लगा, गांधीजी नहीं पहुंच पायेंगे. पर बलवंत सिंह और मुन्नालाल शाह ने देखा गांधी अकेले पानी और कीचड़ से लथपथ वहां रहने के लिए आ गये थे. सुबह 7.30 बजे.
जो ‘नूर’ बनते हैं, उनका यह अनुशासन, चरित्र, कर्म और आचरण होता है. हम बदलाव चाहते हैं, तो क्या इस रास्ते पर चले बगैर यह संभव है? यह कीमत चुका कर ही झारखंड बेहतर बन सकता है और दुनिया बुशों से मुक्ति पा सकती है.

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