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बिहार और गुजरात-महाराष्ट्र का फर्क

-दर्शक- गिरगाम पैसेंजर मुंबई सेंट्रल से रात पौने ग्यारह में खुलती है सूरत होते हुए जाती है. भीड़ रहती है, पर बिहार-उत्तरप्रदेश जैसी स्थिति नहीं. बिना आरक्षण के जबरन लोग नहीं चढ़ते. इसी ट्रेन से गुजरात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री छबीलदास मेहता यात्रा कर रहे हैं. डूमस (सूरत के पास) ‘संवाद’ में […]

-दर्शक-

गिरगाम पैसेंजर मुंबई सेंट्रल से रात पौने ग्यारह में खुलती है सूरत होते हुए जाती है. भीड़ रहती है, पर बिहार-उत्तरप्रदेश जैसी स्थिति नहीं. बिना आरक्षण के जबरन लोग नहीं चढ़ते. इसी ट्रेन से गुजरात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री छबीलदास मेहता यात्रा कर रहे हैं. डूमस (सूरत के पास) ‘संवाद’ में शरीक होने जा रहे हैं.साथ में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं. अपना सामान अपने आप लिये. हजारों सामान्य यात्रियों में से एक. खद्दर का पैंट-शर्ट पहने हुए. जो उन्हें नहीं जानता, वह उन्हें देख कर देश के करोड़ों लोगों के बीच का ही सामान्य व्यक्ति मानता. अगले दिन डूमस में उनका परिचय पाकर स्तब्धता का बोध भी हुआ.
क्या बिहार-उत्तर प्रदेश में कोई पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक, पूर्व सांसद, अकेले, अपना सामान उठाये पैसेंजर ट्रेन में यात्रा करता है? एक सामान्य यात्री की तरह यात्रा करता है? बगैर सुरक्षा गार्ड के वह डग भरता है? सामान्य ट्रेन-बस में यात्रा करता है. ट्रेनों-बसों में वह सहयात्रियों से सामान्य रूप में पेश आता है? बल्कि राजनीति में पद पाते ही वह ‘हवाई यात्री’ बन जाता है. धरती से उसका संपर्क टूट जाता है. एकाध अपवाद हैं, पर बहुसंख्यक राजनीतिज्ञों (चाहे वे जिस दल के हों) का सरोकार समान है. अति विशिष्ट बनना, धनार्जन, अपराध, आतंक की सीढ़ी चढ़,सामान्य लोगों से कट जाना.
‘डूमस संवाद’ में गुजरात राजनीति के अनेक विशिष्ट लोगों से मुलाकात होती है. गुजरात की राजनीति करते हुए जिन लोगों ने अपनी प्रतिभा, काम और दृष्टि से राष्ट्रीय पहचान बनायी, वे भी आयें. प्रो जसवंत मेहता मिलते हैं. गुजरात के पूर्व वित्त मंत्री, पूर्व सांसद. अर्थशास्त्र के जानकार. वह बताने में भी संकोच करते हैं कि गुजरात राजनीति में उनकी अलग पहचान रही है. पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के भतीजे भी डूमस संवाद में आये. 80 वर्ष से ऊपर की उम्र, गांधीवादी. गुजराती पररावा. उनकी पूरी चिंता का विषय किसानों की मौजूदा स्थिति है. गांवों-शहरों के बीच बढ़ती आर्थिक विषमता का आंकड़ेवार वह हवाला देते हैं.
दूसरे लोग उनकी ‘विशिष्टता’ का परिचय कराते हैं. पर बिहार से गये व्यक्ति के लिए असामान्य बोध यह है कि एक पूर्व मुख्यमंत्री, एक पूर्व वित्त मंत्री, मोरारजी भाई के विद्वान भतीजे यानी गुजरात के विशिष्ट लोग आज भी सामान्य समाज के अंग हैं. बिहार में इनके जैसे पद पानेवाले उसी क्षण विशिष्ट बन जाते हैं.
गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल या दक्षिण के राज्यों में जो सामादिक मूल्य, मर्यादा और मानवीय बोध हैं, वे बिहार-उत्तर प्रदेश में क्यों विकसित नहीं हो पाये? क्या इन राज्यों की आर्थिक प्रगति इसलिए अवरुद्ध है कि यहां सांस्कृतिक मूल्यबोध विकसित नहीं हुए? चिंतक कृष्णनाथ अक्सर सवाल उठाते हैं कि बिहार के आम जीवन में जो आक्रामकता, तनाव, आक्रोश, द्वेष, आग और असृजनशीलता है, उससे मुक्ति का कोई प्रयास नहीं है.

बिहार के बाहर महाराष्ट्र-गुजरात जाते ही, वहां की आबोहवा-माहौल और जन-जीवन में शांति, सृजन अपनापा, मानवीय बोध का तुरंत एहसास होता है. हवा में ताजगी मिलती है. बंद कमरे में घुटते हुए व्यक्ति को बाहर निकलने पर जो एहसास होता है.

यही कारण है कि किसी शीला किणी पर अत्याचार होता है, जो जाति, धर्म, मराठी या गुजराती होने के बाहरी कवच उतार कर वे अपने ही ‘अन्यायियों’ के खिलाफ उठ खड़े हो जाते हैं. बाल ठाकरे के खिलाफ पुष्पा भावे, पुल देशपांडे, अन्ना हजारे जैसे अनेक विशिष्ट मराठियों के उठ खड़े होने का अर्थ है. क्योंकि हिंदी इलाके के राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, यादव, कुरमी, आदिवासी या अन्य अपने ही भ्रष्ट और निरंकुश नेताओं के खिलाफ जिहाद नहीं करते? यह अंतर मिटे बिना बिहार या उत्तर प्रदेश कभी महाराष्ट्र-गुजरात नहीं बनेगा.
प्रो पुष्पा भावे. दूरदर्शन पर मराठी में खबर पढ़नेवाली महिला. कॉलेज में मराठी पढ़ानेवाली महिला. लेखिका. शीला किणी के पति की हत्या हुई है; तो बाल ठाकरे के आतंक के खिलाफ वह शीला के साथ ‘को पेटीशनर’ बन गयीं. राजतंत्र के खिलाफ किसी कोने से अचानक पुष्पा भावे खड़ी हो गयीं. खड़े हो गये पुल देशपांडे. महाराष्ट्र-बंगाल-असम वगैरह में साहित्यकारों-लेखकों का लोकसम्मान राजनेताओं से बहुत अधिक है.

इसी परंपरा में महाराष्ट्र के आज सबसे सम्मानित-पूज्य व्यक्ति हैं, पुल देशपांजे. फिलहाल पर्किंसन रोग से पीडि़त हैं. शिवसेना-भाजपा की सरकार ने महाराष्ट्र का सबसे बड़ा ‘साहित्य साधना’ का पुरस्कार उन्हें (पांच लाख रुपये) दिया. उस भरी सभा में जहां मुख्यमंत्री से लेकर अनेक दूसरे महत्वपूर्ण लोग थे, महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर-सम्मानित पुल देशपांडे ने क्या कहा? कहा कि लोकतंत्र के माध्यम से कैसी-कैसी सरकारों आती हैं, जो गिरोह के रूप में काम करती हैं.

यह शिवसेना-भाजपा सराकार वैसी ही है. यह सरकार लोकशाही की जगह ‘ठोकशाही’ (ठोकरे-मारने) में विश्वास करती है. श्रोता स्तब्ध. चर्चा शुरू हुई. आपातकाल में (1975) में इसी तरह दुर्गा भागवत ने तत्कालीन ताकतवर केंद्रीय मंत्री यशवंत राव चह्वाण और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वगैरह के सामने. मंच पर आपातकाल, श्रीमती इंदिरा गांधी की खुली और कटु आलोचना की थी. सब अराक रह गये पर उन्हें गिरफ्तार करने का साहस न कर सके.

‘महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार’ जैसे सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित पुल देशपांडे के बयान के खिलाफ, दूसरे दिन बाल ठाकरे ने अपनी शैली में गंभीर प्रतिक्रिया व्यक्त की. जब महाराष्ट्र के कोने-कोने से ठाकरे के इस बयान की भर्त्सना शुरू हुई, तो शिवसेना प्रमुख ने इस विवाद को तुरंत समाप्त होने की घोषणा कर दी. इतना जल्द पीछे हटना ठाकरे का स्वभाव नहीं है. लेकिन पुल देशपांडे के प्रति लोक आस्था का उमड़ता ज्वार देख कर बाल ठाकरे जैसे निरंकुश व्यक्ति को भी चुपचाप रास्ता छोड़ना पड़ा तेजस्विता की यह लोकधारा बिहार-उत्तरप्रदेश में आकर क्यों सूख जाती है?
क्यों पुल देशपांडे या दुर्गा भागवत के खिलाफ न बाल ठाकरे, न यशवंत राव चह्वाण (यानी सत्ता शिखर पर आसीन लोग) कोई कार्रवाई कर सके? क्योंकि पुल देशपांडे या दुर्गा भागवत की मराठी लोगों में अलग पहचान-साख है. ‘पुल देशपांडे के इस एक बयान से मौजूदा महाराष्ट्र सरकार की रही सही आभा और साख खत्म हो गयी है’, कहते हैं, महानगर (हिंदी) के संपादक अनुराग चतुर्वेदी).
विशिष्ट लोग ही नहीं, सामान्य मराठी-गुजराती भी परिस्थितियों के अनुरूप उठ खड़े होते हैं.

शीला किणी मामले में भाजपा के एक वकील ने अदभुत काम किया. यह वकील भाजपा समर्थक थे. शिवसेना-भाजपा की सरकार आयी, तो पब्लिक प्रोसक्यूटर बने. शीला किणी का मामला उठा. इस वकील महोदय को लगा कि एक विधवा के साथ अन्याय हो रहा है. वह दल, सरकारी ओहदे की प्रतिबद्धता फेंक कर खड़े हो गये, उस महिला के साथ. इतना ही नहीं. गिरीश कनार्ड और अमोल पालेकर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में मैदान में उतर गये.

क्या यह गौर करने की बात नहीं है कि बिहार-उत्तरप्रदेश में कोई पुल देशपांडे, दुर्गा भागवत क्यों नहीं होता? किसी ऐसे कद्दावर व्यक्ति ने लालू प्रसाद या मुलायम सिंह की मौजूदगी में साफ-साफ उनके कार्यकलापों पर चर्चा की? कोई सामान्य वकील राजकीय आतंकवाद के खिलाफ एक असहाय विधवा के पक्ष में क्यों नहीं खड़ा होता?
हिंदी इलाकों के लिए यह दुख नया नहीं है. बहुत पहले यशस्वी स्वतंत्रता सेनानी और साधक रामनंदन मिश्र जी ने कहा था कि ‘बिहार की मिट्टी इतनी अनुर्वर-बंजर हो गयी है कि बेहतर से बेहतर बीच इसमें डालो, पर वह अंकुरता भी नहीं.’ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अनुर्वरता है. यह अनुर्वरता-बंजरपना अन्य राज्यों को देखने से अधिक स्पष्ट होती है.
महाराष्ट्र के अविनाश धर्माधिकारी वरिष्ठ आइएएस अफसर थे. 15 वर्षों से काम करते-करते वह अपनी अप्रचारित पारदर्शी, ईमानदारी, कर्तव्यबोध और प्रखरता के कारण अपनी अलग छवि बना चुके थे. महाराष्ट्र के मुख्मयंत्री मनोहर जोशी ने उन्हें अपना सचिव बनाया था. सरकार के अंदर की दुनिया देख कर वह उकता गये. निराश हुए और आइएएस की नौकरी छोड़ दी. मुख्मयंत्री का सचिव पदत्याग दिया. फिलहाल वह जनांदोलनों में लगे समूहों के साथ मिल कर काम करते हैं.

सरकार के अंदर की दुनिया, नौकरशाही के छल-छद्म और भ्रष्टाचार के बारे में लोगों को बताते हैं. खैरनार के काम तो जगजाहिर हैं ही. क्यों कोई धर्माधिकारी, खैरनार बिहार की नौकरशाही में मार खाकर, गाली खाकर और फजीहत होने के बाद भी पैदा नहीं होता? उलटे अपढ़-अपराधी राजनेताओं की सेवा का अवसर पाकर अपने आत्मसम्मान से समझौता करने में इन्हें झिझक नहीं होती.

सामाजिक कार्यकर्ताओं में कोई अण्णा हजारे इस बंजर भूमि में नहीं उगता. क्या यह आत्ममंथन का विषय नहीं है?
डूमस में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण बहस में भाग लेकर लौटने के क्रम में सूरत शहर में अचानक शहर के सहायक पुलिस कमिश्नर मिल गये. ताप्ती के पुल पर. पैदल घूमने के दौरान. वह जागिंग कर रहे थे अकेले. पहले अटपटाये. फिर पहचाना. पूछते हैं, आप लोग डूमस संवाद में आये थे? उनके पीछे ने कोई सुरक्षाकर्मी था, न विशिष्टता की पहचान. न हथियार वगैरह. एक सामान्य अकेला, निहत्था व्यक्ति. क्या बिहार में किसी आइपीएस अफसर (डीएन गौतम, राज्यवर्द्धन शर्मा जैसे अपवादों को छोड़ कर) सामान्य व्यक्ति की तरह रहता है? यहां पिहाली-क्लर्क अपनी ताकत का पग-पग पर एहसास कराते हैं.

वह कहते हैं कि सूरत में जो अपराध है, वह करनेवाले सबसे अधिक बिहार और ओडि़शा में रोजी-रोटी की तलाश में आये लोग हैं. उनका सहजता से तथ्य बताना, बिहार से संबंध रखनेवाले इस संवाददाता के अंदर से सिहरन पैदा करता है. दिल्ली में भी सबसे अधिक अपराध करनेवालों की सूची में ‘बिहारियों’ के नाम ऊपर पहुंच गये हैं.क्या बिहार, अराजकता, भ्रष्टाचार, अपराध का ही पर्याय रहेगा? क्या कभी बिहारी लोग इस सवाल का जवाब अपने अंदर ढूढ़ेंगे?

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