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VIDEO बड़ी कामयाबी: इसरो ने लॉन्च किया पहला मेड इन इंडिया स्पेस शटल

तिरुवनंतपुरम : भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने पंखों को एक नया फैलाव देते हुए अब तक के सफर में पहली बार एक ऐसी अंतरिक्षीय उडान भरी, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज होगी. भारत ने सोमवार को अपना पहला स्पेस शटल लॉन्च कर दिया है. इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) की ये लॉन्चिंग […]

तिरुवनंतपुरम : भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने पंखों को एक नया फैलाव देते हुए अब तक के सफर में पहली बार एक ऐसी अंतरिक्षीय उडान भरी, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज होगी. भारत ने सोमवार को अपना पहला स्पेस शटल लॉन्च कर दिया है. इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) की ये लॉन्चिंग ऐतिहासिक है क्योंकि यह रियूजेबल शटल पूरी तरह से स्वदेशी है.

आरएलवी पृथ्वी के चारों ओर कक्षा में उपग्रहों को प्रक्षेपित करने और फिर वापस वायुमंडल में प्रवेश करने में सक्षम है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रवक्ता ने आरएलवी-टीडी एचईएक्स-1 के सुबह सात बजे उडान भरने के कुछ ही समय बाद बताया, ‘‘अभियान सफलतापूर्वक पूरा किया गया.” यह पहली बार है, जब इसरो ने पंखों से युक्त किसी यान का प्रक्षेपण किया है. यह यान बंगाल की खाडी में तट से लगभग 500 किलोमीटर की दूरी पर उतरा. हाइपरसोनिक उडान प्रयोग कहलाने वाले इस प्रयोग में उडान से लेकर वापस पानी में उतरने तक में लगभग 10 मिनट का समय लगा. आरएलवी-टीडी पुन: प्रयोग किए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान का छोटा प्रारुप है.

आरएलवी को भारत का अपना अंतरिक्ष यान कहा जा रहा है. इसरो के वैज्ञानिकों के अनुसार, यह लागत कम करने, विश्वसनीयता कायम रखने और मांग के अनुरुप अंतरिक्षीय पहुंच बनाने के लिए एक साझा हल है. इसरो ने कहा कि आरएलवी-टीडी प्रौद्योगिकी प्रदर्शन अभियानों की एक श्रृंखला है, जिन्हें एक समग्र पुन: प्रयोग योग्य यान ‘टू स्टेज टू ऑर्बिट’ :टीएसटीओ: को जारी करने की दिशा में पहला कदम माना जाता रहा है.

भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के अनुसार, इसे एक ऐसा उडान परीक्षण मंच माना जा रहा है, जिस पर हाइपरसोनिक उडान, स्वत: उतरने और पावर्ड क्रूज फ्लाइट जैसी विभिन्न अहम प्रौद्योगिकियों का आकलन किया जा सकता है. ‘विमान’ जैसा दिखने वाला 6.5 मीटर लंबा यह यान एक विशेष रॉकेट बूस्टर की मदद से वायुमंडल में भेजा गया। इस यान का वजन 1.75 टन था. आरएलवी-टीडी को पुन: प्रयोग किए जा सकने वाले रॉकेट के विकास की दिशा में एक ‘‘बेहद शुरुआती कदम” माना जा रहा है. इसके अंतिम प्रारुप के विकास में 10 से 15 साल लग सकते हैं.

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