-नरेश गुप्त-
पिछले तीन वर्षों में सीसीएल का क्रमश: 85 करोड़ रुपये, 149 करोड़ रुपये और 122 करोड़ रुपये का घाटा मात्र इसलिए उठाना पड़ा कि उसे इन तीन वर्षों में क्रमश: 98 करोड़ रुपये, 142 करोड़ रुपये और 75 करोड़ रुपये विविध देनदारों (संड्री डेब्टर्स) और अशोध्य ऋण (बैंड डेब्टस) के रुप में प्रावधान रखना पड़ा. वर्ष 1999-2000 में तो 80 करोड़ रुपये वेतन-पुनरीक्षण के मद में भी रखने पड़े.
यदि ऐसा नहीं करना अब यदि देखा जाये, तो इन तीन वर्षों में सीसीएल का कुल घाटा 356 करोड़ रुपये है, जबकि उपर्युक्त मदों के लिए किये गये प्रावधान की राशि 315 करोड़ रुपये हैं. संकेत यह हैं कि सीसीएल का घाटा इन्हीं उपर्युक्त कारणों से और वेतन पुनरीक्षण और उसके बकाया भुगतान के बोझ से वर्ष 2000-2001 में काफी बढ़ेगा. जानकार बताते हैं कि वर्तमान परिस्थिति में सीसीएल को स्थिति में सुधार के लिए कम से कम दो मिलियन टन प्रतिवर्ष उत्पादन बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है पर यह संभव नहीं है, जब तक कि सीसीएल पुरानी खदानों के पुनर्निर्माण और पुनर्गठन तथा नयी खदानों के विकास के लिए संसाधन जुटा पाये, पिछले कुछ समय से ज्वायंट वेंचर, बीओटी, लीज फाइनेंसिंग आदि के माध्यम से नयी खदानों के विकास की चर्चा होती रही है.
प्रस्ताव भी बनते रहे हैं. पर अभी तक ये प्रस्ताव परीक्षण के दौर से ही गुजर रहे है. इस नये रास्ते से विकास कहां तक संभव होगा. इस पर भी कोयला विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं.पिछले तीन वर्षों में सीसीएल का उत्पान 32 से 32.5 मिलियन टन के बीच ठहरा हुआ है. वर्ष 1998-99 में 32.18, वर्ष 1999-2000 में 32.40 मिलियन टन उत्पादन हुआ. इस वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा बहुत अधिक उत्पादन होने की आशा है पर कंपनी 34.0 मिलियन टन के लक्ष्य को लेकर जो चली थी, उसे पाना संभव प्रतीत नहीं होता.
श्रमिक यूनियनों की ती न दिवसीय हड़ताल, कुछेक परियोजनाओं तथा अमली तथा असोका आदि में वन भूमि की समस्या को लेकर वन पदाधिकारियों द्वारा उत्पादन कार्य पर रोक, समय-समय पर कोयला क्षेत्र के आस-पास रहनेवाले ग्रामीणों /विस्तापित मार्चों द्वारा उत्पादन परिवहन में बाधा, राजनीतिक दलों द्वारा आहूत बंद, चतरा, बोकारो और हजारीबाग जिलों में एमसीसी एवं अन्य उग्रवादी संगठनों की गतिविधियों से कानून-व्यवस्था में गिरावट आदि से उत्पादन परिवहन कार्य प्रभावित हुआ.
उपर्युक्त आलोक में सीसीएल, बीसीसीएल और इसीएल को सुधारने के लिए सरकार को कोयला उद्योग से संबंधित अपनी वर्तमान नीति से हट कर सोचना होगा. कंपनियों को कोल इंडिया लिमिटेड की अन्य उत्पादक कंपनियों यथा एनसीएल, एमसीएल और कोयला कनपनियों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए मजबूर करना अच्छी बात है. इस नयी नीति के कारण आयी चुनौतियों से जूझने में कुछ कोयला कंपनियां सक्षम हो रही हैं और लाभकारी बनी हुई हैं, तो इसका कारण है कि उनकी भौगोलिक संरचना और खदानों की वर्तमान स्थिति दूसरी कंपनियों से पूर्णत: भिन्न है.
एनसीएल में मात्र 18 हजार श्रमशक्ति 45 मिलियन टन कोयला उत्पादन, करती हैं. क्योंकि वहां पूर्णत यंत्रीकृत कुली खदानें हैं, जिनका विकास पिछले दो दशकों में हुआ है. सीसीएल में करीब 80 हजार श्रमशक्ति मात्र 32 मिलियन टन उत्पादन कर पाती हैं. क्योंकि यहां पुरानी और राष्ट्रीयकृत निजी खदानों की बहुतायत है, यही बात इसीएल और बीसीसीएल के साथ है, जिन्हें पुराने विरासत के बोझ से जूझना पड़ रहा है. उचित तो यह होगा कि विभिन्न कोयला कंपनियों को विरासतों और वर्तमान स्थितियों का आकलन किया जाये और ऐसी कंपनियों, जो अत्यंत पुरानी खदानों के बोझ से दम तोड़ने की स्थिति में आ रही है को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार पूंजी निवेश के लिए समुचित व्यवस्था करें.