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बीआइएफआर के दरवाजे पर सीसीएल

हरिवंश इसीएल और बीसीसएल के बाद अब सीसीएल की बीआइएफआर में जाने की बारी आ रही है. कोयला अधिकारियों के लिए जनवरी, 1997 से और कोयला श्रमिकों के लिए जुलाई 1996 के प्रभाव से किये गये वेतन-पुनरीक्षण ने सीसीएल के बॉटम-लाइन में सुधार की बची-खुची आशा पर पानी फेर दिया है. अब देखना है कि […]

हरिवंश
इसीएल और बीसीसएल के बाद अब सीसीएल की बीआइएफआर में जाने की बारी आ रही है. कोयला अधिकारियों के लिए जनवरी, 1997 से और कोयला श्रमिकों के लिए जुलाई 1996 के प्रभाव से किये गये वेतन-पुनरीक्षण ने सीसीएल के बॉटम-लाइन में सुधार की बची-खुची आशा पर पानी फेर दिया है. अब देखना है कि कब तक सीसीएल बीआइएफआर में जाने से बच पाता है.
सीसीएल को बीआइएफआर में जाने से रोकने का एक ही रास्ता बचा था कि किसी तरह वह घाटे के कारण, अपने नेट वर्थ में ह्रास को रोक पाये. किंतु वेतन-पुनरीक्षण के कारण एक बारगी पांच सौ करोड़ रुपये बकाये वेतन भुगतान के बोझ ने इसे असंभव बना दिया है. वेतन मद में करीब 150 करोड़ रुपये प्रति वर्ष बढ़ोत्तरी को तो कंपनी कोयले के मूल्य में बढोत्तरी से बहुत हद तक आत्मसात कर सकती है. किंतु बकाये वेतन भुगतान के लिए पांच सौ करोड़ रुपये कहा से लायेगी?
सीसीएल का नेट वर्थ पांच वर्ष पूर्व करीब एक हजार करोड़ रुपये के आस-पास था. घाटे एवं बैलेंस शीट में अन्य समायोजन के कारण उसमें कमी आती गयी और 1999-2000 के अंत में यह 557 करोड़ रुपये के आसपास रह गया.
सीसीएल के निष्पादन में गिरावट को साधारणतया लोग कोयला उद्योग में व्याप्त भ्रष्टाचार के साथ जोड़ते आये हैं. भ्रष्टाचार के कारण निष्पादन की कुशलता प्रभावित होती है. सीसीएल के संदर्भ में कुछ बुनियादी कारणों पर ध्यान देना आवश्यक है, जिसके चलते इस कंपनी को आर्थिक संकट के दौर से गुजरना पड़ रहा है. सीसीएल की वर्तमान दशा के दो प्रमुख बुनियादी कारण हैं. पहला यह कि कंपनी पुरानी स्टेट रेलवे कोलियरिज, तत्कालीन एनसीडीसी द्वारा 60-70 के दशक में विकसित कोलियरिज, राष्ट्रीयकृत निजी खदानों और सीसीएल द्वारा विकसित नयी खदानों का समागम है. फिलवक्त यहां पुरानी और अनुत्पादक खदानें ही अधिक हैं. नयी उत्पादक खदानें कम हो गयी हैं. सीसीएल की 55 कोलियरियों में 32 ऐसी कोलियरियां हैं, जहां उत्पादित कोयले पर लागत खर्च विक्रय-मूल्य से कई गुना अधिक आता है. इसके 14 क्षेत्रों में से मात्र चार क्षेत्र मुनाफे में हैं, बाकी 10 घाटे में. कुल मिला कर 10 क्षेत्रों का घाटा चार क्षेत्रों के मुनाफे को खा जाता है.
1995 के बाद सरकारी बजटीय सहायता बंद होने के बाद से सीसीएल में पिपरवार को छोड़ कर, न तो कोई बड़ी खदान चालू हुई, न ही पुरानी खदानों का पुनर्गठन और पुनर्निर्माण हो पाया. पूंजी निवेश सीमित हो गया, क्योंकि आर्थिक संसाधन की कमी हो गयी. आंतरिक संसाधन से अथवा ऋण लेकर जितनी पूंजी का निवेश हुआ, उसके अनुपात में करीब-करीब उतना ही ह्रास भी हो गया. अब सवाल है कि उत्पादन बढ़ेगा कहा से और यदि उत्पादन नहीं बढ़ता है, तो वेतन वृद्धि अन्य खर्चों में वृद्धि, पुरानी खदानों का घाटा और विरासत के कुछ अन्य बोझ को सीसीएल कैसे आत्मसात करेगा?
उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए, खर्च में कटौती के लिए व श्रमशक्ति को रैशनेलाइज करने के लिए सीसीएल प्रयासरत है, किंतु जब तक कंपनी इस स्थिति में नहीं आती है कि वह कम से कम दो मिलियन टन प्रति वर्ष उत्पादन बढ़ाने में सफल हो, तब तक वह घाटे की दलदल से बाहर नहीं आ पायेगी.
पिछले तीन साल में सीसीएल का घाटा काफी बढ़ा है.
सीसीएल की वर्तमान माली हालत का, जो दूसरा कारण है, वह है ग्राहकों से मिलनेवाली पुरानी बकाया राशि, कंपनी वर्षों से अपनी बैलेंस शीट में इस राशि को आमदनी के रूप में दर्शाती रही थी. इस राशि के एक बड़े हिस्से का मिलना पूर्णत: संदिग्ध हो गया था. ऐसी बकाया राशि का समायोजन करना पड़ा और बैलेंस शीट को सुधारना पड़ा. पिछले तीन वर्षों में सीसीएल का क्रमश: 85 करोड़ रुपये, 149 करोड़ रुपये और 122 करोड़ रुपये का घाटा मात्र इसलिए उठाना पड़ा कि उसे इन तीन वर्षों में क्रमश: 98 करोड़ रुपये, 142 करोड़ रुपये और 75 करोड़ रुपये विविध देनदारों (संड्री डेब्टर्स) और अशोध्य ऋण (बैंड डेब्टस) के रूप में प्रावधान रखना पड़ा. वर्ष 1999-2000 में तो 80 करोड़ रुपये वेतन-पुनरीक्षण के मद में भी रखने पड़े. यदि ऐसा नहीं करना अब यदि देखा जाये, तो इन तीन वर्षों में सीसीएल का कुल घाटा 356 करोड़ रुपये है, जबकि उपर्युक्त मदों के लिए किये गये प्रावधान की राशि 315 करोड़ रुपये हैं. संकेत यह है कि सीसीएल का घाटा इन्हीं उपर्युक्त कारणों से और वेतन पुनरीक्षण और उसके बकाया भुगतान के बोझ से वर्ष 2000-2001 में काफी बढ़ेगा. जानकार बताते हैं कि वर्तमान परिस्थिति में सीसीएल को स्थिति में सुधार के लिए कम से कम दो मिलियन टन प्रतिवर्ष उत्पादन बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है पर यह संभव नहीं है, जब तक कि सीसीएल पुरानी खदानों के पुनर्निर्माण और पुनर्गठन तथा नयी खदानों के विकास के लिए संसाधन जुटा पाये, पिछले कुछ समय से ज्वायंट वेंचर, बीओटी, लीज फाइनेंसिंग आदि के माध्यम से नयी खदानों के विकास की चर्चा होतीर ही है. प्रस्ताव भी बनते रहे हैं. पर अभी तक ये प्रस्ताव परीक्षण के दौर से ही गुजर रहे हैं. इस नये रास्ते से विकास कहां तक संभव होगा. इस पर भी कोयला विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं.
पिछले तीन वर्षों में सीसीएल का उत्पान 32 से 32.5 मिलियन टन के बीच ठहरा हुआ है. वर्ष 1998-99 में 32.18, वर्ष 1999-2000 में 32.40 मिलियन टन उत्पादन हुआ. इस वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा बहुत अधिक उत्पादन होने की आशा है पर कंपनी 34.0 मिलियन टन के लक्ष्य को लेकर जो चली थी, उसे पाना संभव प्रतीत नहीं होता.
चालू वित्तीय वर्ष में उत्पादन लक्ष्य प्राप्त नहीं होने के पीछे और बहुत कारण रहे. श्रमिक यूनियनों की तीन दिवसीय हड़ताल, कुछेक परियोजनाओं तथा अमली तथा असोका आदि में वन भूमि की समस्या को लेकर वन पदाधिकारियों द्वारा उत्पादन कार्य पर रोक, समय-समय पर कोयला क्षेत्र के आस-पास रहनेवाले ग्रामीणों /विस्तापित मार्चों द्वारा उत्पादन परिवहन में बाधा, राजनीतिक दलों द्वारा आहूत बंद, चतरा, बोकारो और हजारीबाग जिलों में एमसीसी एवं अन्य उग्रवादी संगठनों की गतिविधियों से कानून-व्यवस्था में गिरावट आदि से उत्पादन परिवहन कार्य प्रभावित हुआ. उपर्युक्त आलोक में सीसीएल, बीसीसीएल और इसीएल को सुधारने के लिए सरकार को कोयला उद्योग से संबंधित अपनी वर्तमान नीति से हट कर सोचना होगा. इन कंपनियों को कोल इंडिया लिमिटेड की अन्य उत्पादक कंपनियों यथा एनसीएल, एमसीएल और कोयला कंपनियों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए मजबूर करना अच्छी बात है. इस नयी नीति के कारम आयी चुनौतियों से जूझने में कुछ कोयला कंपनियां सक्षम हो रही हैं और लाभकारी बनी हुई हैं, तो इसका कारण है कि उनकी भौगोलिक संरचना और खदानों की वर्तमान स्थिति दूसरी कंपनियों से पूर्णत: भिन्न है. एनसीएल में मात्र 18 हजार श्रमशक्ति 45 मिलियन टन कोयला उत्पादन, करती हैं. क्योंकि वहां पूर्णत यंत्रीकृत कुली खदानें हैं, जिनका विकास पिछले दो दशकों में हुआ है. सीसीएल में करीब 80 हजार श्रमशक्ति मात्र 32 मिलियन टन उत्पादन कर पाती हैं. क्योंकि यहां पुरानी और राष्ट्रीयकृत निजी खदानों की बहुतायत है, यही बात इसीएल और बीसीसीएल के साथ है, जिन्हें पुराने विरासत के बोझ से जूझना पड़ रहा है. उचित तो यह होगा कि विभिन्न कोयला कंपनियों को विरासतों और वर्तमान स्थितियों का आकलन किया जाये और ऐसी कंपनियों, जो अत्यंत पुरानी खदानों के बोझ से दम तोड़ने की स्थिति में आ रही हैं, को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार पूंजी निवेश के लिए समुचित व्यवस्था करें.

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