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नेतृत्व कला – 2

-हरिवंश- नेतृत्व क्या है? जो साहस का, धैर्य का, नि:स्वार्थ का पर्याय हो. नेतृत्व वह जो खतरे उठाये, अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए, देश के लिए. नेतृत्व समाज की खुशी में ही अपनी खुशी देखता है. मानवीय साहस, दूरदृष्टि, उपलब्धि, धैर्य और सृजनशीलता का पर्याय है, नेतृत्व. नेतृत्व जो प्रेरित करता है, जो हमें […]

-हरिवंश-
नेतृत्व क्या है? जो साहस का, धैर्य का, नि:स्वार्थ का पर्याय हो. नेतृत्व वह जो खतरे उठाये, अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए, देश के लिए. नेतृत्व समाज की खुशी में ही अपनी खुशी देखता है. मानवीय साहस, दूरदृष्टि, उपलब्धि, धैर्य और सृजनशीलता का पर्याय है, नेतृत्व. नेतृत्व जो प्रेरित करता है, जो हमें मूल्यों की सीख देता है और दायित्व का एहसास कराता है. ऐसा ही नेतृत्व देश गढ़ता है, इतिहास का पुनर्लेखन करता है. समाज को आगे ले जाता है. इन चुनावों के दौरान परखिए भारतीय राजनीति में कोई ऐसा नेतृत्व है?
सुपरपावर के जन्मदाता, जार्ज वाशिंगटन
जार्ज वाशिंगटन. अमरीका के पहले राष्ट्रपति. ब्रिटेन के खिलाफ आजादी की लड़ाई में अमरीकी सेना के कमांडर. भद्र इंसान थे. गुणों से संपन्न. पर विनम्र और शालीन भी. आज भारत में राजनेता होने का अर्थ है, उद्दंड होना, कानून से ऊपर होना. अहंकारी होना भी. पर वाशिंगटन भिन्न थे. जन्म से ही नेतृत्व गुणों से संपन्न. पर वाशिंगटन ने ही ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के वे मापदंड तय किये, जिनका हर आनेवाले अमरीकी राष्ट्रपति ने अनुकरण किया.
1732 में वह वजनिया में पैदा हुए. एक भूस्वामी के घर. उनके पिता 1657 में उत्तरी इंग्लैंड से अमरीका आकर बसे थे. वाशिंगटन ने एक बेचैन युवा के रूप में मिलिट्री में नौकरी शुरू की.
वजनिया में ही. मई 1754 में उनके अधीन सेना की एक छोटी टुकड़ी थी. इस टुकड़ी ने ही अमरीका-फ्रांस के बीच युद्ध की वह नींव डाली, जो सात वर्षों तक चला.
पर इस युद्ध में वाशिंगटन बंदी बने. जीवन में पहली बार और अंतिम बार भी. उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा. अगले वर्ष वह ब्रिटिश जनरल के नेतृत्व में फिर लड़े. कामयाब हुए. उनकी सैन्य प्रतिभा, प्रशासकीय क्षमता देखकर 23 वर्ष की उम्र में ही उन्हें वजनिया की सेना का कमांडर इन चीफ बनाया गया.
फिर उन्होंने फ्रांस का एक मजबूत स्तंभ (किला) फतह किया. इसके बाद एक संपन्न विधवा मार्था कट से शादी की. राजनीति में प्रवेश भी किया.1774 जून में उन्होंने ब्रिटेन के उपनिवेशवादी नीतियों के खिलाफ विरोधियों को एकजुट किया. जून 1775 में ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध शुरू हो गया. कांग्रेस ने जार्ज वाशिंगटन को कमांडर इन चीफ के रूप में चुना.
इस तरह अमरीका में आजादी की लड़ाई शुरू हुई. वाशिंगटन ने अमरीकी सेना का प्रशिक्षण शुरू किया. तरह-तरह के गुटों और खेमों को एकजुट किया. अलग-अलग सोच और धारा के लोगों को एकमंच पर खड़ा किया. सबसे उल्लेखनीय बात है कि पराजय और जबरदस्त कठिनाइयों के बीच भी इन सभी को जोड़े रखा. हार के बावजूद उनके समर्थक न पस्त हए, न बिखरे.
आज भारत में क्या है? एक चुनाव हारे नहीं, कि दल बिखर जाते हैं. नाते-रिश्तेदार भी गद्दी के लिए साथ छोड़ रहे हैं. विचारधारा और संगठन तो अतीत की बातें है. न किसी के प्रति निष्ठा है, न समर्पण. सिर्फ गद्दी चाहिए. पैसा चाहिए. स्व सबके ऊपर.
1776 में वाशिंगटन ब्रिटिश सेना को बोस्टन छोड़ने पर मजबूर कर दिया. पर न्यूयार्क की रक्षा करने में वह असफल रहे. उन्हें पीछे लौटना पड़ा. एक साल तक प्रतीक्षा की. फिर अचानक धावा बोलकर ब्रिटिश सेना को परास्त किया.
अमरीका यात्रा के दौरान न्यूजस के उस पहाड़ी स्थान पर खड़ा होकर लोग रोमांच का अनुभव करते हैं, जहां वाशिंगटन एक साल तक छुपे रहे. वहीं से वह विरोधी सेना को देखते थे. वहीं से उन्होंने धावा बोला और निर्णायक जीत हासिल की. वाशिंगटन का व्यक्तित्व ऐसा था, कि उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी टूटी-फूटी, बिखरी सेना को बांधे रखा.
भयानक सर्दियों के बीच भी उनका मनोबल टूटने नहीं दिया. जरूरत पड़ने पर सेना में वह तानाशाह की भूमिका में भी रहे. साहसिक कदम उठाये. चतुर रणनीति अपनाई. पर आम जनता को असुविधा न हो, इसका ध्यान रखा. अंतत: ब्रिटिश कमांडर कार्नवालिस को पराजित कर दिया.
जीत के बाद वाशिंगटन पहाड़ी गांव माउंट वेरमोन लौट गये. 1787 में वह फिलाडेलफिया सम्मेलन में शरीक हुए, जहां नयी अमरीकी सरकार या व्यवस्था की कल्पना की गयी. इस सम्मेलन में वाशिंगटन अध्यक्ष चुने गये.
पर उन्होंने बहस में हिस्सा नहीं लिया.
अमरीका की नयी सरकार या व्यवस्था के मुखिया के रूप में प्रेसिडेंट पद का यहीं सृजन हुआ. 1788 में वाशिंगटन पहले प्रेसिडेंट चुने गये. पुन: 1792 में वह दोबारा चुने गये. राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने अपनी तटस्थता बनाये रखी. तब अमरीकी प्रशासन में दो तरह की धाराएं थी.
ब्रिटेन समर्थक और फ्रांस समर्थक. वाशिंगटन का दूसरा टर्म पूरा हुआ. उन्होंने तीसरे टर्म में प्रेसिडेंट बनने से मना कर दिया. इस तरह 140 वर्षों के लिए उन्होंने एक परंपरा डाल दी कि दो बार से अधिक कोई प्रेसिडेंट न बने. भारत के राजनेताओं को देखिए. पैर कब्र में है, पर चुनाव लड़ना चाहते हैं.
गद्दी पाने को लालायित हैं. लाश बन चुके हैं, पर युवाओं की रहनुमाई की बात करते हैं. इस देश में भी मधु लिमये सरीखे व्यक्तित्व हुए जो राज्यसभा से कभी संसद नहीं गये. एक सीमा बाद चुनावी राजनीति भी छोड़ दी. सिद्धांतों की राजनीति की. चरित्र और मान्यता में फर्क नहीं रहा. साध्य-साधन एक. कथनी-करनी एक.
वाशिंगटन का व्यक्तित्व मर्यादित था. राष्ट्रपति पद छोड़कर वह माउंट वेरमोन गांव लौट गये. सार्वजनिक जीवन से निजी जीवन में. इसी गांव ‘फ्यूचर सुपर पावर’ की नींव डालनेवाले, अमरीका के संस्थापक (प्रतिभा और मर्यादा के डेमोक्रेटिक हीरो कहे जानेवाले) वाशिंगटन का चुपचाप अंत हुआ. थ्रोट इनफेक्शन (गले का रोग) से. वाशिंगटन जब बालक थे, तो उन्होंने अपने पिता के सबसे प्रिय पेड़ को काट डाला. जब उनसे पूछताछ हुई, तो कहा हां, यह मेरा अपराध है.
उनके शब्द थे, मैं झूठ नहीं बोल सकता. और जीवनभर वह इसी रास्ते चले. न देश से झूठ बोला, न जनता से. भारत में हर रोज बयान और स्टैंड बदलनेवाले नेताओं की भीड़ में जनता को चिराग लेकर ढ़ूंढ़ना पड़ेगा कि सच कौन बोलता है? ‘ढ़ूंढ़ते रह जाओगे’ की स्थिति है.
एक नेता जिस पर देश यकीन करे या उसका जनता पर यकीन हो? पर ऐसे नेता यहीं भी हुए है. खूब हुए है. हाल तक लालबहादुर शास्त्री जैसे लोग हुए. रेलमंत्री थे.
दुर्घटना हुई. नैतिक दायित्व लिया. इस्तीफा दे दिया. प्रधानमंत्री भी बने. खाद्यान्न का उत्पादन कम हुआ. नारा दिया. एक दिन उपवास. खुद प्रधानमंत्री का किचेन बंद हो गया. फिर देश भर में एक शाम चूल्हे बंद हो गये. यह है नेतृत्व की नैतिक और चारित्रिक ताकत. 2009 के चुनावों में दूर क्षितिज तक भी ऐसी ताकत झिलमिलाती भी दिखाई नहीं देती.
दिनांक : 05-04-09

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