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कहां हैं मुद्दे, विचार और सपने
– हरिवंश – यह उद्धरण किशन पटनायक की पुस्तक ‘भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि’ (गतिरोध, संभावना और चुनौतियां ) से है. आजादी के बाद महात्मा गांधी के निकटतम सहयोगी सुशीला नैयर ने गांधीजी से पूछा, आजादी मिल गयी है, तो क्या आप राजनीतिक व्यस्तता छोड़ कर पूरा समय रचनात्मक कार्यों में लगायेंगे? गांधीजी का उत्तर […]
– हरिवंश –
यह उद्धरण किशन पटनायक की पुस्तक ‘भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि’ (गतिरोध, संभावना और चुनौतियां ) से है. आजादी के बाद महात्मा गांधी के निकटतम सहयोगी सुशीला नैयर ने गांधीजी से पूछा, आजादी मिल गयी है, तो क्या आप राजनीतिक व्यस्तता छोड़ कर पूरा समय रचनात्मक कार्यों में लगायेंगे?
गांधीजी का उत्तर था, ‘पूरी आजादी मिली कहां है? मैं चाहता हूं कि राजनीति को सुधारने का काम बहुत महत्वपूर्ण है. इसके प्रति ध्यान देना होगा’ (गांधीजी के सचिव प्यारेलाल द्वारा उद्धृत).
राजनीति को नये ढंग से परिभाषित करने, सुधारने या मुद्दों को उठाने का अवसर है, चुनाव. पर भारत की राजनीति बंद तालाब की स्थिति में है. जिसका पानी सड़ रहा है, जिसमें काई, कादो, गंदगी और दुर्गुण भर गये हैं. यह बदबू दे रहा है. पर आज इसे साफ करने का न किसी में साहस है, और न किसी कोने से इसके लिए आवाज ही उठ रही है.
चुनाव राजनीति को मांजने, नया बनाने या लोकोन्मुख बनाने का अवसर है. बहस और सवालों से देश की चुनौतियों से रूबरू होने का है. यह अवसर पांच वर्षों में एक बार आता है. पांच वर्ष नेता डिक्टेटर होते हैं, जनता पराधीन या त्रस्त. चुनाव के दिन जनता (प्रजा) प्रभु की भूमिका में होती है. नेता याचक. इस गणित को भी बदलने की मांग उठी.
जेपी ने चुने हुए प्रतिनिधियों की वापसी की बात की. पर उनके आंदोलन के गर्भ से सत्तारूढ़ हुए लोग यह बुनियादी तथ्य भूल गये कि लोकशाही तभी चरितार्थ होगी, जब नेता जनता के प्रति अधिकाधिक जवाबदेह हों. पांच वर्ष में सिर्फ एक बार नहीं. डॉ लोहिया ने कहा था, लोकतंत्र के तावे पर बार-बार रोटी पलटिए, ताकि वह जले न. यानी चुनाव बार-बार हों. उन्होंने यह भी कहा क्रांतिकारी कौमें पांच वर्ष तक प्रतीक्षा नहीं करती.आज जनता और नेताओं के बीच क्या रिश्ता है? पांच वर्ष बनाम एक दिन (चुनाव का दिन). पांच वर्ष नेताओं के ठाट.
एक दिन (वोट के दिन) जनता की भूमिका. जनता और नेता के इस रिश्ते को बदलना बुनियादी जरूरत है. नेताओं की लगाम या बागडोर लगातार जनता के हाथों हों, लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाने के लिए यह उपाय जरूरी है. क्या ऐसे मौलिक सवाल आज की राजनीति में उठ रहे हैं? क्या भारतीय राजनीति में आज बुनियादी बदलाव की जरूरत नहीं है?
धनतंत्र ने भारतीय राजनीति के मूल स्वरूप को छिन्न-भिन्न कर दिया है. चुनावों में करोड़ों या अरबों रुपये चाहिए. ये पैसे कहां से आते हैं? कौन फंडिंग करता है? यह फंडिंग धर्मार्थ है या बदले में सरकार की नीतियां बदली, बेची जातीं हैं? ब्लैकमनी राजनीति में क्यों निर्णायक होती गयी है? इसका जवाबदेह कोई है?क्या धनतंत्र या ब्लैकमनी के चक्रव्यूह को तोड़ने में हमारी राजनीति या व्यवस्था असफल हो गयी है? अब तो ये सवाल बहस के मुद्दे भी नहीं रह गये.
चाहे 1966-67 का दौर रहा हो या 1977 या 1989 के चुनाव. चुनाव प्रणाली में सुधार, बढ़ते भ्रष्टाचार पर अंकुश की मांग, बड़े घरानों की इजारेदारी, भाषा का सवाल, विषमता का सवाल, आरक्षण, शिक्षा के व्यापक प्रसार वगैरह राजनीति के निर्णायक मुद्दे रहे. ये मुद्दे सिर्फ राजनीति में ही नहीं गूंजते थे, विश्वविद्यालयों से लेकर गांव की गलियों में इन मुद्दों पर चर्चा होती थी. अब राजनीति में विचार या वाद या आदर्श तो रहा नहीं. सारे दल, चेहरे कमोबेश एक जैसे हैं. दलों का ढांचा बदल गया है.
हाइकमान सुप्रीमो होते हैं. दल के अंदर से चुने हुए निर्वाचित अध्यक्ष की परंपरा ही खत्म हो गयी है. न दलों के वार्षिक अधिवेशन होते हैं, न गृह, रक्षा, विदेश या अन्य नीतियों पर दलों के अंदर बात होती है. दल, परिवार तंत्र में बदल गये हैं. हर दल में ईमानदार, समर्पित कार्यकर्ता दुर्दिन में हैं. चापलूस, चारण और बेईमान कार्यकर्ताओं की सोलहों अंगुलियां घी में हैं.
एक करूणानिधि परिवार के 200 से अधिक सगे-संबंधी सत्ता भोग में हैं. इस तरह जमींदारों या राजाओं की जगह एक नया संवेदनहीन वर्ग भारतीय राजनीति में पैदा हो गया है. यह स्थिति लगभग हर दल में है. पर ऐसे बुनियादी सवाल जो हमारे लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती हैं, उन पर चर्चा ही नहीं? आज न्यायालयों में ढाई करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. न्याय पाना कितनी जटिल प्रक्रिया है? 20-30 वर्ष तक दर-दर भटकने के बाद भी न्याय नहीं मिलता. चुनाव लड़नेवाले किस दल या प्रतिनिधि ने भारत के मौजूदा चुनौतियों के अनुरूप अपनी वैकल्पिक नीतियां स्पष्ट की हैं?
संसद के कामकाज का निरंतर क्षय हो रहा है? बिना पढ़े या बहस के बिल पास करना. चीखना-चिल्लाना और अशोभनीय आचरण. क्या देश की रहनुमाई करनेवाले राजनीतिज्ञ अपने इसी चेहरे, विचार, आचरण और अंदाज से देश को आगे ले जा सकेंगे? सार्वजनिक जीवन से नैतिकता की विदाई हो चुकी है?हमारे सार्वजनिक जीवन या राजनीति में दलाल या सूत्रधार इतनी महत्वपूर्ण भूमिका में कैसे हैं?
आज दुनिया के सामने गंभीर अर्थसंकट है. भारत भी इसकी गिरफ्त में है. प्रणब मुखर्जी ने बजट पेश करते हुए फरवरी में कहा कि सामने गंभीर अर्थसंकट है. पर इस अर्थसंकट से निबटने की क्या रणनीति है, विभिन्न दलों और राजनेताओं की? क्या ऐसे सवाल अब राजनीति में नहीं उठते? 1969 में जब कांग्रेस बंटी, तो कांग्रेस के एक गुट ने नयी आर्थिक नीतियों का विकल्प दिया. गरीबी हटाओ का नारा दिया. आज किस दल या नेता के पास आर्थिक ब्लूप्रिंट है?
आतंकवाद, भारत के लिए सबसे गंभीर चुनौती है. यह किसी दल, समूह या वर्ग का मामला नहीं है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मुसलमान आज इन आतंकवादियों से सबसे ज्यादा त्रस्त है पर आतंकवाद से डील करने की दृष्टि या रणनीति किसी दल के पास है? अब तालिबान भारत के दरवाजे पर है. पाकिस्तान की हुकूमत लगभग उनके हाथों में है. अमरीका अंदर से ध्वस्त और जर्जर है. वह अब तालिबानियों से समझौते की बात कर रहा है.
वैसे भी इन तालिबानियों का जन्मदाता अमरीका ही है. अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के दौरान इन आतंकियों को पालने-पोसने का काम अमरीका ने किया. इसलिए अमरीका की सेहत पर इसका असर नहीं पड़नेवाला. भारत के दरवाजे पर यह संकट दस्तक दे रहा है, पर भारत के पास क्या रणनीति है?
लगातार आंतकवादी घटनाएं, विस्फोट, मारे जाते निर्दोष नागरिक और अक्षम व्यवस्था. जनता क्यों कर देती है? क्योंकि राज्य या राष्ट्र के उसके प्रति निश्चित फर्ज हैं. लोकतंत्र को जन्म देनेवाले लोगों में जो चर्चित चिंतक और भाष्यकार हुए, उनमें 17वीं शताब्दी के लाके का नाम सर्वोपरि है. उसने कहा कि जनता ने एक ‘सोशल कांट्रेक्ट’ (सामाजिक करार)के तहत स्टेट (संघ, राष्ट्र या राज्य) को अपनी सुरक्षा और मानवाधिकार की सुरक्षा का दायित्व समर्पित कर दिया है. सामान्य लोग लगातार मारे जायें, उनकी हत्याएं हों और नेता सुरक्षा में घूमें? क्यों राजनीति में ऐसे सवाल नहीं उठते? 1991-92 में हुए मुंबई विस्फोट के बाद तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एक जांच कमिटी बनायी. उस वोरा कमिटी की रिपोर्ट खूब चर्चित हुई.
पर उस पर आज तक कार्रवाई क्या हुई ? वोरा कमिटी की रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, अफसर और अपराधी इस हालात के जिम्मेदार हैं. क्या सुधार के उपाय उठाये गये? क्यों राजनीति इतनी बांझ हो गयी कि अब इन सवालों पर संसद में सार्थक चर्चा तक नहीं होती?
आंतरिक कुशासन- यह देश के लिए आज सबसे बड़ा खतरा है. राष्ट्र, राज्य इस अव्यवस्था और कुशासन के कारण आज अनियंत्रित स्थिति में हैं. आतंकवाद, नक्सली गतिविधियां, अपराधियों का बढ़ता जोर, राजनीति में उतरते अपराधी, भ्रष्ट होती नौकरशाही, प्रशासनिक सुधारों का अभाव.
राज्य नाम की संस्था लगातार कमजोर हो रही है. राज्य का प्रताप लगभग खत्म हो गया है. प्रशासन, भ्रष्टाचार में ही रमा है. देश की समस्याओं के प्रति वह उदासीन है. विचारों में वह दिवालिया है. किशन पटनायक के शब्दों में कहें, तो शासकों का गिरोह अयोग्य, धनलोभी, फिजूलखर्च और गुलाम स्वाभाव का है.
किशनजी को ही याद करें तो राज्य कैसा होना चाहिए? राज्य का बाहुबल और धनबल उसके अंदर के किसी भी व्यक्ति या संगठन की तुलना में अधिक हो. यानी राज्य का कोई भी व्यक्ति का संगठन, हिंसा शक्ति में या धनबल में, राज्य के बराबर न हो. हिंसा और धन हमेशा नियंत्रण में रहें. धन की एक कसौटी यह होगी कि राज्य की प्रतिव्यक्ति आय के दस गुने से अधिक आय किसी की न हो. राज्य के कर्मचारियों का कुल वेतन भत्ता-राजस्व के आधे से अधिक न हो.
मधु लिमये कहा करते थे, आज देश की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के अभाव के कारण अवरूद्ध हो गयी है. शासकों से, राजपुरुषों से साधारण लोग प्रेरणा लेते हैं. पर आज के शासकों के नैतिक आदर्श क्या रह गये हैं? धन के भूखे, पद के भूखे, नाते-रिश्तेदारों के पैरोकार और अहं कार की मूर्ति. क्या ये नेता कोई उम्मीद पैदा करते हैं?
ऐसे अनंत मुद्दे और सवाल हैं, जिनके समाधान के बिना इस देश का भविष्य, धुंधों से घिरा है.क्यों चुनाव से ये मुद्दे गायब हैं? नेता तो इन सवालों से भागते ही हैं, अगर जनता के बीच भी ये सवाल नहीं उठे, तो किसका भविष्य दांव पर होगा? देश या जनता का ही न ?
दिनांक : 16-03-09
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