– हरिवंश –
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आग से आग नहीं बुझती
– हरिवंश – यह पत्र किसी राजनीतिज्ञ, चिंतक, विचारक या बुद्धिजीवी का नहीं. एक सामान्य पत्रकार का है, जिसने अपने कामकाज के दौर में मुंबई, हैदराबाद, पटना, कोलकाता, दिल्ली और रांची में समय गुजारा है. छात्र आंदोलनों से भी संबंध रहा है. जीवन के इन अनुभवों ने मौजूदा स्थिति पर हिंदी पट्टी के छात्रों, खासतौर […]
– हरिवंश –
यह पत्र किसी राजनीतिज्ञ, चिंतक, विचारक या बुद्धिजीवी का नहीं. एक सामान्य पत्रकार का है, जिसने अपने कामकाज के दौर में मुंबई, हैदराबाद, पटना, कोलकाता, दिल्ली और रांची में समय गुजारा है. छात्र आंदोलनों से भी संबंध रहा है. जीवन के इन अनुभवों ने मौजूदा स्थिति पर हिंदी पट्टी के छात्रों, खासतौर से बिहार-झारखंड के छात्रों के नाम यह पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया.
आप छात्रों को शायद अपना इतिहास मालूम हो. आप उदारीकरण के आसपास या बाद की पौध हैं. उदारीकरण के पहले राजनीतिक विचारों, सिद्धांतों और वसूलों से संचालित होती थी. उदारीकरण के बाद की राजनीति, आर्थिक सवालों, प्रगति, विकास और बिजनेस के आसपास घूम रही है. यह विचार की राजनीति के दिनों का नारा है, जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है. इस नारे में आपकी ताकत की कहानी लिखी हुई हैं.
याद करिए, बिहार में ’60 के दशक में पटना में छात्रों पर पहला गोलीकांड हुआ. देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई. महामाया बाबू ने छात्रों को जिगर का टुकड़ा कह आकाश पर पहुंचा दिया. फिर आया ’74 का आंदोलन. इस आंदोलन ने देश की राजनीति की सूरत ही बदल दी. आंदोलन का लंबा सिलसिला है.
फिर भी हिंदी प्रदेश अपनी पीड़ा और बदहाली से मुक्ति नहीं पा सके? इतिहास का सबक यही बताता है कि आपके इस तोड़फोड़ और विरोध आंदोलन से भी कुछ हासिल नहीं होनेवाला?
ऐसा नहीं है कि ’74 के पहले बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता था. 1980 के आसपास महाराष्ट्र के जानेमाने विचारक और संपादक, माधव गडकरी ने तीखे सवाल उठाये थे, जिनका आशय था कि हिंदी भाषी पिछड़े राज्यों के विकास का खर्च अन्य राज्य क्यों उठाएं?
क्यों बंबई या महाराष्ट्र आयकर से अधिक कमायें और सेंट्रल पूल में पैसा दें? क्यों केंद्र से संसाधनों का बंटवारा गरीबी के आधार पर हो? और महाराष्ट्र का कमाया अधिक धन केंद्र के रास्ते हिंदी पीढ़ी के गरीब राज्यों के पास क्यों जाये? यह प्रश्न वैसा ही था जैसे परिवार में एक कमाऊ भाई, दूसरे बेरोजगार या कम कमानेवाले से पूछता है कि आपका बोझ हम कब तक उठाएं? आज राज ठाकरे हैं. कल वहां बाल ठाकरे थे. वह ’60 के दशक में मुंबई से दक्षिण भारतीयों को भगाते थे.
इसी दौर में दत्ता सामंत, यूनियन नेता हुए, जो मराठावाद की ही बात करते थे. पर जब बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीय भगाओ का नारा दिया और वहां उपद्रव हुए, तब दक्षिण के किसी राज्य में प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं हुई? दक्षिण के राज्यों ने क्या किया? इसके बाद दक्षिण के राज्यों ने अपनी ऊर्जा विकास में झोंक दी. सड़कें, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, प्रबंधन के संस्थान और नये-नये उद्योग-धंधे.
आज हालत यह है कि हैदराबाद, बेंगलुरू, चेन्नई वगैरह कई अर्थों में मुंबई से आगे निकल गये हैं. दक्षिण का कम्युनिस्ट केरल, आज देंग शियाओ पेंग के रास्ते पर है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, खुद पूंजीवादी निवेशक की भूमिका में है.
एक कर्नाटक अकेले, आइटी उद्योग से आज 70 हजार करोड़ रुपये अर्जित कर रहा है. दक्षिण सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों की राजधानी बन गया है. दक्षिण के एयरपोर्ट पर सीधे दुनिया के महत्वपूर्ण देशों से विमान उड़ान भरते हैं. एक-एक राज्य में छह-आठ एयरपोर्ट हैं. जहाज से जुड़े हैं. हैदराबाद, बेंगलुरू के हवाई अड्डे विश्व स्तर के हैं. चार लेन- छह लेन की सड़कें हैं. बेहतर सुविधाएं हैं.
बाल ठाकरे की शिवसेना ने मद्रासी भगाओ (सभी दक्षिण भारतीयों को मद्रासी कह कर ही संबोधित करते थे, जैसे सभी हिंदीभाषियों को बिहारी या भैया कह कर संबोधित करते हैं) नारा दिया, तो दक्षिण के राज्यों ने ट्रेन जला कर, अपना नुकसान कर, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार कर जवाब नहीं दिया. क्या बिहार में ट्रेन जलाने, उपद्रव करने, अपना नुकसान करने से राज ठाकरे सुधर जायेंगे? क्या वह ऐसे इंसान हैं, जिनकी आत्मा है? या संवेदनशीलता है? बिहार के आक्रोश की यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है.
यह श्मशान वैराग्य जैसा है. जैसे श्मशान में चिता जलते देख, वैराग्य बोध होता है. संसार छोड़ने का मानस बनता है. पर श्मशान से बाहर होते ही वही प्रपंच, राग-द्वेष. दुनिया की छल-कपट. ऐसा कहा जाता है कि श्मशान वैराग्य भाव, मनुष्य में ठहर जाये तो वह जीवन में संकीर्णताओं से ऊपर उठ जायेगा.
उसका जीवन तर जायेगा. बिहार में हो रही हिंसा, बंद और तोड़फोड़, अंगरेजी में कहें तो, ‘क्रियेटिव रिसपांस आफ द क्राइसिस’ नहीं है. हम बिहारी, झारखंडी या हिंदी भाषी, गंभीर संकट का रचनात्मक जवाब कैसे दे सकते हैं?
अपना नुकसान कर हम अपनी कायरता का परिचय दे रहे हैं. अपनी पौरुषहीनता दिखा रहे हैं. अगर सचमुच हम दुखी, आहत और अपमानित हैं, तो दुख, पीड़ा और अपमान को एक अद्भुत सृजनात्मक ऊर्जा में बदल सकते हैं.
चुनौतियों को स्वीकार करने की पौरुष दृष्टि ही इतिहास बनाती है. इस घटना से सबक लेकर, हम हिंदी भाषी भविष्य का इतिहास बना सकते हैं. जिस तरह दक्षिण ने अपने आर्थिक चमत्कार से दुनिया को स्तब्ध कर दिया है.
बेंगलुरू को संसार में दूसरा सिलिकन वैली कहा जा रहा है. उससे बेहतर चमत्कार और काम, हम कर सकते हैं. क्या आप छात्रों को मालूम है, कि हिंदी भाषी राज्यों के लड़के दक्षिण के इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? हमारे उत्तर के पैसे से दक्षिण के बेहतर अस्पताल, बेहतर इंजीनियरिग कॉलेज, उत्कृष्ट संस्थाएं चल रही हैं.
हजारों करोड़ रुपये प्रतिवर्ष चिकित्सा, शिक्षा के मद में, उत्तर के गरीब राज्यों से देश के संपन्न राज्यों में जा रहे हैं. क्यों? क्योंकि हमारे यहां चिकित्सा, शिक्षा, इंजीनियरिग वगैरह में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस (उत्कृष्ट संस्थाएं) नहीं हैं. क्या हम ऐसी संस्थाओं को बनाने, गढ़ने और नींव रखने की बाढ़ नहीं ला सकते? अभियान नहीं चला सकते? नीतीश सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है.
लॉ, इंजीनियरिग, मैनेजमेंट, कृषि, मेडिकल वगैरह में बड़े पैमाने पर बिहार सरकार ने संस्थाओं को शुरू किया है. इसके चमत्कारी असर कुछ वर्षों बाद दिखाई देंगे. ऐसी संस्थाओं की बाढ़ आ जाये, आप छात्र यह कोशिश नहीं कर सकते? बिहार के तीन नेता, आज देश में प्रभावी हैं. लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार.
आप छात्र बाध्य कर सकते हैं, इस तीनों नेताओं को. कैसे और किसलिए? आप बेचैन छात्र इनसे मिलिए और अनुरोध कीजिए. बिहार को गढ़ने और बनाने के सवाल पर, आप तीनों एक हो जायें. आप तीनों नेता मिल जायें, सिर्फ बिहार बनाने के सवाल पर, तो बिहार संवर जायेगा.
इनसे गुजारिश करें कि आप तीनों के सौजन्य से बिहार में संस्थाओं की बौछार हो. आप छात्र सिर्फ यह एक काम करा दें, तो राज ठाकरे को जवाब मिल जायेगा. अशोक मेहता ने एक सिद्धांत गढ़ा,’पिछड़ी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता’.
इसी सिद्धांत पर आगे चल कर पीएसपी (पीपुल्स सोशलिस्ट पाट) का कांग्रेस में विलय हो गया. हमारे कहने का आशय यह नहीं कि लालूजी, रामविलास जी और नीतीशजी को आप युवा एक पार्टी में जाने को कहें, बल्कि ‘पिछड़ी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता’ के तहत बिहार के हितों के सवाल पर इन तीनों को एक साथ खड़े होने के लिए आप विवश कर सकते हैं.
यह याद रखिए कि कभी पटना मेडिकल कॉलेज, भारत के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेजों में से एक था. देश में जितने एफआरसीएस डॉक्टर थे, उनमें से आधे से अधिक तब सिर्फ पटना मेडिकल कॉलेज में थे. पर आज क्या हालत है, उस संस्था की? साइंस कॉलेज जैसी संस्थाएं थीं.
पर क्या स्थिति है संस्थाओं और अध्यापकों की? रोज नारे, धरने, प्रदर्शन, जुलूस. आप छात्र अगर शिक्षण संस्थाओं को सर्वश्रेष्ठ बनाने का अभियान चलायें और इसके लिए सख्त से सख्त कदम उठाने के लिए सरकार को विवश करें, तो हालात बदल जायेंगे. आज की दुनिया में नौकरियों की कमी नहीं.
योग्य और क्षमतावान युवकों की कमी है. मेरे युवा मित्र, इरफान और कौशल (जो आइआइएम, अहमदाबाद से पढ़े हैं और बड़ी नौकरियों के प्रस्ताव छोड़ कर बिहार में काम कर रहे हैं) कहते हैं, कि अगर दक्ष, पढ़े-लिखे युवा मिलें, तो सैकड़ों नौकरी देने के लिए हम तैयार हैं.
मेरे मित्र संतोष झा, मेकेंजी की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है कि भारतीय शिक्षण संस्थाओं से अनइंप्लायबल यूथ (नौकरी के अयोग्य युवा) निकल रहे हैं. इस फिजां को आप छात्र बदलिए. करोड़ों-अरबों रुपये शिक्षण संस्थाओं पर खर्च हो रहे हैं.
अध्यापकों के वेतन-भत्तों में भारी इजाफा हुआ है, पर क्वालिटी एजुकेशन क्यों खत्म हो गया? अगर जात-पात और पैरवी के व्याकरण से ही आप शिक्षण संस्थाओं को चलाना चाहते हैं, तो याद रखिए, इन संस्थाओं से लाखों अयोग्य, अकर्मण्य और अकुशल पढ़े-लिखे युवा निकलेंगे और वे रोजगार के लिए दर-दर भटकेंगे, याचक के रूप में.
जीवन का एक और सिद्धांत गांठ बांध लीजिए. याचक अपमानित होने के लिए ही होता है. अपने अंदर की प्रतिभा, ईमानदारी, कठोर श्रम, निंवेशक को जगाइए और दाता की भूमिका में आइए. आपको देश ढूंढ़ेगा और पूजेगा. हम कहां-कहां, कब-कब और कितने आंदोलन करेंगे? बिहार बंद करेंगे? ट्रेनें जलायेंगे? इस हकीकत से मुंह मत चुराइए कि आज हिंदी भाषी राज्य लेबर सप्लायर राज्यों के रूप में ही जाने जाते हैं.
मत भूलिए, असम और पूर्वोत्तर में कई बार बिहारियों पर हमले हुए, भगाये गये, वहां कर्फ्यू लगा. शिविरों में रहना प़ड़ा. अपमान, तिरस्कार और भय के बीच. जम्मू-कश्मीर में रेल लाइन बिछाने में सुरंगों में विस्फोट हो या आतंकवादी विस्फोट हो, बिहारी, झारखंडी या हिंदी भाषी मजदूर ही मारे जाते हैं.
पंजाब और हरियाणा के खेतों में या फार्म हाउसों में, कितनी जिल्लत की जिंदगी झारखंडी-बिहारी मजदूर जीते हैं, आप जानते हैं? गुजरात हो या राजस्थान या दक्षिण के राज्य, झारखंडी-बिहारी मजदूरों की दुर्दशा आप देख सकते हैं. याद करिए, दो साल पहले का दिल्ली का वह दृश्य.
छठ के अवसर पर बिहार आ रहे थे. स्टेशन पर भगदड़ हुई. दर्जनों बिहारी मर गये. दब-कुचल कर. भगदड़ में. हाल में असम में जो उत्पात हुआ, उसमें झारखंड से गये लोगों के साथ क्या सुलूक हुआ? अपमान, तिरस्कार का एक लंबा विवरण है. क्या-क्या गिनायें? पर तोड़फोड़, आगजनी, उत्पात सबसे आसान हैं. सबसे कठिन है, सृजन और निर्माण. अपने राजनेताओं को बाध्य करिए कि वे सृजन और निर्माण के कामों में राजनीति न करें. सरकार चाहे जिसकी हो, पर अगर वह शिक्षा संस्थाओं को दुरुस्त करने, सड़क बनाने, बिजली ठीक करने जैसे बुनियादी कामों में कठोर कदम उठाती है, तो उस पर राजनीति बंद कराइए.
अगर इन संस्थानों में कमियां हैं, तो सरकार के कठोर कदमों के पक्ष में खड़े होइए. अनावश्यक यूनियनबाजी, नेतागीरी और हर चीज में राजनीतिक पेंच लगाने की बिहारी संस्कृति के खिलाफ विद्रोह करिए. क्यों एक बिहारी बाहर जाकर अपने काम, उपलब्धि और श्रम के लिए गौरव पाता है, पर बिहार में वही फिसड्डी हो जाता है. क्योंकि बिहार की कार्यशैली, प्रवृत्ति और चिंतन में कहीं गंभीर त्रुटि है. इस त्रुटि को दूर करना अपमान की आग में झुलस रहे युवाओं की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.
बिहार में वह माहौल, कार्यसंस्कृति बनाइए कि हम बिहारी होने पर गर्व करें. बिना रिजवशन के ट्रेन में घुसना, टिकट न लेना, मारपीट करना, परीक्षा केंद्रों पर हजारों की संख्या में पहुंच कर चीट कराना, ऐसी आदतों को छोड़ने का हम सामूहिक संकल्प लें, क्योंकि इनसे मुक्ति के बाद ही बिहार के लिए नया अध्याय शुरू होगा. स्मरण करिए, बिहार के इतिहास को.
कई हजार वर्षों पहले जब सूचना क्रांति नहीं हुई थी, चंद्रगुप्त मौर्य ने आधुनिक भारत की नींव रखी. सबसे बड़ा साम्राज्य खड़ा किया. अफगानिस्तान तक. चाणक्य दुनिया के गौरव के विषय बने. अशोक के करुणा के गीत आज भी गाये जाते हैं. नालंदा की सुगंध आज भी दुनिया में है. तब के बिहार से हम अगर आज प्रेरित हों, तो दुनिया में हमारी सुगंध फैलेगी.
आप बिहारी और झारखंडी विद्यार्थियों से एक और निवेदन! याद रखिए देश के जिस किसी हिस्से में बिहारियों-झारखंडियों के साथ अपमान हुआ, वहां उनसे जाति नहीं पूछी गयी? बल्कि पहचान का एक ही फार्मूला है, बिहारी होना या झारखंडी होना या हिंदी पट्टी का होना. तो आप ऐसा ही माहौल बनाइए. यादव, भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, पासवान, आदिवासी, गैरआदिवासी या अन्य होने का नहीं? छात्रावासों में जातिगत मोरचे तोड़ दीजिए. जाति के आधार पर अध्यापकों और नेताओं का समर्थन बंद करिए.
काम करनेवाले और राज्य को आगे ले जानेवाले नेताओं के साथ खड़े रहिए. जो नेता, विधायक इस बिहारीपन-झारखंडीपन के बीच बाधा बनें, उनके खिलाफ अभियान चलाइए. बिहार की राजनीति बिहार के लिए, झारखंड की राजनीति, झारखंड के लिए. कुछ ऐसी फिजां बनाइए, तब शायद बात बने.
विचारों की राजनीति के दौर में भाषा के प्रति प्रबल आग्रह था. उन दिनों के लिए वह नारा भी ठीक था, हिंदी में सब कुछ. पर आज उदारीकरण के बाद की दुनिया में यह नारा बेमानी है. अंगरेजी पढ़िए.
चीन से सीखिए. आप जानते हैं, गुजरे चार-पांच वर्षों में चीन में सबसे लंबी लाइन किन दुकानों पर लगती थी? 2001 के बाद चीन में अंगरेजी सीखने की भूख पैदा हुई और किताब की उन दुकानों पर मीलों लंबी कतारें लगने लगीं, जहां ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित अंगरेजी-चीनी शब्दकोश उपलब्ध था. चीन ने यह प्रेरणा भारत से ली.
2000 के आसपास चीन के प्रधानमंत्री ने भारत आकर देखा. सॉफ्टवेयर उद्योग में भारत दुनिया में क्यों अग्रणी है? तब उन्हें बेंगलुरू देख कर लगा कि भारतीय युवा अंगरेजी जानते हैं. इस कारण भारत सॉफ्टवेयर में चीन से आगे है. चीन ने भारत से सबक लेकर अपनी कमी को पहचान कर सृजनात्मक अभियान चलाया, अंगरेजी सीखने का, ताकि चीन विश्व-शक्ति बन सके.
क्या हम बिहारी- झारखंडी या हिंदी पट्टी के लोग चीन के इस प्रसंग से सबक ले सकते हैं? अपने नेताओं और राजनीतिज्ञों को बाध्य करिए कि वे शिक्षा में अंगरेजी को महत्व दिलायें, उत्कृष्ट संस्थाओं को आमंत्रित करें. मेरे एक मित्र हैं, संजयजी. देशकाल संस्था के सचिव. इस संस्था ने मुसहरों-दलितों के लिए उल्लेखनीय काम किया है. वह कहते हैं, मुसहर लोग जो खुद पढ़े नहीं हैं, शिक्षा के तीन प्रतीक बताते हैं.
(1) शहर (2) टेक्नोलॉजी और (3) इंग्लिश. उन्होंने जेएनयू विश्वविद्यालय दिल्ली की एक दलित छात्रा का अनुभव बताया. उसने कहा मोबाइल (टेक्नोलॉजी), अंगरेजी, वैश्विक दृष्टि (ग्लोबलाइजेशन) और शहर (अरबनाइजेशन) का असर नहीं होता, तो मैं दलित लड़की जेएनयू नहीं पहुंचती. दलित चिंतक चंद्रभान बार-बार कह-लिख रहे हैं, अंगरेजी, पूंजीवाद और शहरीकरण (अरबनाइजेशन) ही दलितों के उद्धार मार्ग हैं. इसलिए हिंदी पीढ़ी की शिक्षा में अंगरेजी अनिवार्य हो. दूसरा मसला, शहरीकरण (अरबनाइजेशन) का है. हाल में सिंगापुर में एक आयोजन हुआ भारत को लेकर, मिनी प्रवासी भारतीय दिवस.
इसमें सिंगापुर के ‘मेंटर’ ली क्यान यू (दो-दो बार प्रधानमंत्री रहे और विश्व के चर्चित श्रेष्ठ नेताओं में से एक) थे. उन्होंने कहा, भारत तेजी से प्रगति कर सकता है, पर उसे कठोर कदम उठाने पड़ेंगे. उन्होंने कहा, चीन आज एक करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष गांवों से शहरों में ले जा रहा है.
शहरीकरण की प्रक्रिया तेज कर गांवों को शहर बना रहा है. उनके अनुसार, अगर भारत सुपर हाइवे, सुपरफास्ट ट्रेनें, बड़े-बड़े हवाई अड्डे और बड़े निर्माण नहीं करता, तो वह इस दौर में पीछे छूट जायेगा. फिर उसके भाग्य होगा, खोये अवसरों की कहानी.
ली ने सभा में भीड़ से पूछा कि सुकरात और ग्रीक के बुद्धिजीवी गांवों में या शहरों में रहते थे? गांव के स्कूलों को बेहतर बनाइए. देश के शिक्षण संस्थाओं को श्रेष्ठ बनाइए. ली की दृष्टि में भारत इसी रास्ते महान और बड़ा बन सकता है. ली ने दो हिस्से में अपनी आत्मकथा लिखी है. इसमें नेहरू के जमाने के भारत का अद्भुत वर्णन है. भारत ने कैसे अवसर खोये, इसका वृत्तांत है.
ली, जीते जी किंवदंती बन गये हैं. उनकी आत्मकथा को, उन भारतीयों को जरूर पढ़ना चाहिए, जो भारत को बनाना चाहते हैं. यहां महाराष्ट्र के ही मधु लिमये को उद्धृत करना चाहूंगा. चरित्र, सच्चाई, कार्यक्षमता और उद्यमशीलता के अभाव में आप कैसे सफल हो सकते हैं? आलस्य, समय की पाबंदी, अच्छी नीयत, जिम्मेदार नागरिक के लिए आवश्यक सदगुणों का संपोषण आदि के बिना आधुनिक तकनीक के पीछे भागना मूर्खता है.
मधु जी कहते हैं, बेईमानी, भ्रष्ट आचरण, आलस्य, अनास्था, इन दुर्गुणों की दवा कंप्यूटर नहीं है. यह उन्होंने राजीव राज के दौरान लिखा था. अगर हम सचमुच हिंदी पट्टी के राज्यों का कायापलट करना चाहते हैं, तो क्या हम इन चीजों से प्रेरणा लेंगे?
युवा मित्रों, जीवन में कोई शार्टकट नहीं होता. परिश्रम, ईमानदारी, तप और त्याग का विकल्प, धूर्तता, बेईमानी, आलस्य और कामचोरी नहीं. यह दर्शन अपने इलाके के घर-घर तक पहुंचाइए. कहावत है, ‘सूर्य अस्त, झारखंड मस्त’, इस दारू, शराब और मुफ्तखोरी की संस्कृति के खिलाफ, आप युवा ही अभियान चला सकते हैं. इतिहास पलटिए और देखिए, बंगाल और महाराष्ट्र में आजादी के पहले पुनर्जागरण (रेनेसां) आंदोलन चले. समाज सुधार आंदोलन.
हिंदी पट्टी में आज ऐसे समाज सुधार के आंदोलन चाहिए. रेनेसां की तलाश में है, हिंदी पीढ़ी. आप युवा ही इस ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं. बिना श्रम किये, जीवन में कुछ न स्वीकारें. यह दर्शन आप युवा ही हिंदी पीढ़ी के समाज से मनवा सकते हैं. बेंजामिन फ्रेंकलिन का एक उद्धरण याद रखिए.
एक युवा के जीवन में सबसे अंधकार का क्षण या दौर वह होता है, जब वह अपार धन की कामना करता है, बिना श्रम किये, बिना अर्जित किये. आज की राजनीति क्या सीख देती है? सत्ता, रुतबा और पैसा कमाना. इस शार्टकट से हिंदी समाज को निकाले बिना बात नहीं बनेगी.
आप हालात समझिए. पहला तथ्य. राज ठाकरे को हीरो मत बनाइए. कांग्रेस और शरद पवार की पार्टी, एनसीपी ने एक उद्देश्य के तहत राज ठाकरे को आगे बढ़ाया है. उसी तरह जैसे संजय गांधी ने भिंडरावाले को बढ़ाया था.
कांग्रेस की चाल है कि आगामी चुनावों में भाजपा एवं बाल ठाकरे की शिव सेना को अपदस्थ कर दें. इसलिए उन्होंने राज ठाकरे को आगे ब़ढ़ाया. अपने स्वार्थ और वोट के लिए पार्टियां देश बेचने पर उतारू हैं. पहले नेता होते थे. अब दलाल और बिचौलिये नेता बनते हैं. उनके सामने देश की एकता, अखंडता का सपना नहीं है. पैसा लूटना वे अपना धर्म समझते हैं.
और इस काम के लिए उन्हें गद्दी चाहिए. गद्दी के लिए वे कोई भी षडयंत्र-तिकड़म कर सकते हैं. महाराष्ट्र में यही षडयंत्र हुआ है. क्या उस आग में आप युवा भी घी डालेंगे? आपकी जानकारी के लिए कुछ और सूचनाएं. केंद्र में कांग्रेस चाहती तो नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट के तहत राज ठाकरे को गिरफ्तार कर सकती थी. यह कदम उठाने में गृह मंत्रालय सक्षम है.
एक आदमी जिसके पिछले एक साल के बयानों से लगातार उपद्रव हो रहे हैं, दंगे हो रहे हैं, करोड़ों का नुकसान हो रहा है, जानें जा रही हैं, देश में विषाक्त माहौल बन रहा है, क्या उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी? फिर क्यों हैं, सरकारें? क्यों हैं एनएसए एक्ट? इस राज ठाकरे नाम के आदमी का सबसे गंभीर अपराध है, देश की एकता, अखंडता पर सीधे प्रहार. भयहीन आचरण.
पर उसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. इससे केंद्र सरकार की मंशा स्पष्ट है. महाराष्ट्र सरकार का गणित समझिए. वहां के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं. कांग्रेस का एक गुट, उन्हें हटाना चाहता है. वह चाहते हैं कि यह मुद्दा जीवित रहे, ताकि उनकी कुरसी बची रहे.
महाराष्ट्र की पुलिस कभी स्कॉटलैंड की पुलिस की तरह सक्षम और चुस्त-दुरुस्त मानी जाती थी. पर राज ठाकरे प्रकरण ने साबित कर दिया कि राजनीति ने कैसे एक बेहतर पुलिस संस्था को अक्षम और पंगु बना दिया. वरना महाराष्ट्र में मकोका लागू है.
क्या राज ठाकरे उसके तहत गिरफ्तार नहीं किये जा सकते थे? सबसे स्तब्धकारी घटना और गवर्नेस के खत्म हो जाने का सबूत एक और है. महाराष्ट्र पुलिस ने राज ठाकरे जैसे देशतोड़क के खिलाफ सारी जमानती धाराएं लगायीं? क्यों? इससे सरकार का इंटेंशन (इरादा) साफ होता है.
राज ठाकरे के समर्थक उत्पाती पहले पकड़ लिये गये होते तो हालात भिन्न होते. कोर्ट में उनकी पेशी के वक्त पुलिस पहले सजग होती, धारा 144 होती, तो हिंसा नहीं होती. पर वोट और सत्ता की राजनीति तो खून की प्यासी है.
इस खूनी राजनीति के खिलाफ अपना खून बहा कर आप क्या कर लेंगे? आप युवा इस तरह के षडयंत्र की राजनीति का मर्म समझिए और ऐसी राजनीति के खिलाफ उतरिए. रचनात्मक ढंग से. ऐसी ताकतों को चुनावों में पाठ पढ़ाने की दृष्टि से. राष्ट्रीय नेतृत्व ने महाराष्ट्र में जो कुछ हिंदीभाषियों के साथ हुआ या हो रहा है, उस पर स्तब्धकारी आचरण किया है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पीड़ा पहुंचानेवाली है. बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ आती है, तब भी बिहार के लोगों को केंद्र के नेताओं को कुंभकरण की नींद से जगाना पड़ता है. मुंबई में एक बारिश होती है, तो राहत के लिए प्रधानमंत्री तीन-चार हजार करोड़ रुपये दे देते हैं.
पर बिहार की विनाशकारी बाढ़ पर केंद्र तब उदार होता है, जब राज्य की आवाज उठती है और केंद्र में बैठे बिहार के नेता ध्यान दिलाते हैं. मुंबई में हुई घटना असाधारण है. देश के भविष्य की दृष्टि से भी. पर इसके लिए विशेष कैबिनेट की बैठक नहीं. विशेष प्रस्ताव नहीं. तत्काल आग बुझाने के लिए अलग प्रयास नहीं. केंद्र की कोई उच्चस्तरीय टीम मुंबई नहीं गयी.
देश को एक रखने का दायित्व जिस केंद्र पर है, उसका यह आचरण? पिछले 60 वर्षों में बिहार और झारखंड ने खनिज के मामले में देश को कितना दिया है, क्या इसका हिसाब कोई देगा? फ्रेट इक्वलाइजेशन के मामले में लाखों करोड़ों का भेदभाव बिहार-झारखंड से हुआ होगा. बिहार और झारखंड से निकले सस्ते श्रम और बहमूल्य खनिज से देश के विभिन्न हिस्सों में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया से संपन्नता आयी. क्या बिहार और झारखंड की इस कीमत को कोई चुकायेगा? आज जब नीतीश कुमार बिहार के साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव के सवाल उठाते हैं, तो बिहार के सभी दल एवं जनता एक स्वर में बोले, तब इस अंधेरी सुरंग से बिहार के लिए एक राह निकलेगी.
यह सही है कि हिंदी भाषी राज्य विकास के बस से छूट गये हैं. अगर देश ऐसे पीछे छूटे राज्यों के प्रति सदाशयता का परिचय नहीं देगा, तो क्षेत्रीय विस्फोट की इस आग को रोक पाना कठिन होगा. यह कैसे संभव है कि देश के कुछ हिस्से या राज्य, संपन्नता के टापू बन जायेंगे और अन्य राज्य भूख और गरीबी से तबाह होकर मूकदर्शक बने रहेंगे. क्षेत्रीय विषमता की यह आग देश को ले डूबेगी.
1995 के आसपास पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बढ़ती क्षेत्रीय विषमता पर एक लंबा (लगभग 30-40 पेजों का) लेख लिखा था और आगाह किया था कि हम देश को किधर ले जा रहे हैं? अंतत: क्षेत्रीय विषमता जैसे गंभीर सवालों को कौन एड्रेस (सुलझाना) करेगा? केंद्र सरकार ही न या संसद? केंद्र सरकार, संसद, योजना आयोग और राजनीतिक पार्टियां ही न? पर कहां पहुंच गयी है हमारी संसद? क्या इन विषयों पर सचमुच कोई डिबेट हो रहा है?
क्या आचरण रह गया है हमारे सांसदों, राजनीतिक दलों और सरकारों का? अगर आप हिंदी पीढ़ी के युवा सचमुच इस देश को और अपने राज्यों को विकास के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, खुद आत्सम्मान के साथ जीना चाहते हैं, निजी जीवन में प्रगति और विकास चाहते हैं तो आपको सुनिश्चित करना होगा कि राजनीति की चाल, चरित्र और चेहरा बदले. ऐसा माहौल बनाइए कि केंद्र की राजनीति (चाहे सरकार किसी पक्ष की हो) भारत के पिछड़े राज्यों और क्षेत्रीय असंतुलन के सवालों पर अलग नीति बनाये. आप युवा राजनीति की धारा बदल सकते हैं.
1974 में हुए छात्र आंदोलन के एक तथ्य से आप परिचित होंगे. 1972 के आसपास गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुआ. जेपी को इस छात्र आंदोलन में एक नयी रोशनी दिखाई दी. वह गुजरात गये. फिर इस आंदोलन पर एक लंबा लेख लिखा. आप छात्र जानते हैं, यह आंदोलन गुजरात के मोरवी इंजीनियरिग कॉलेज के एक मेस से शुरू हुआ.
उस छात्रावास में रह रहे छात्रों को लगा, मेस में खाने का मासिक शुल्क अचानक बढ़ गया है और इस कीमत बढ़ोतरी के पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार है. छात्रों में आक्रोश पैदा हुआ और एक छात्रावास के मेस से निकली इस आग की लपटों में अंतत: पहली बार केंद्र से कांग्रेस का सफाया हो गया. आप बिहारी और झारखंडी छात्रों में अगर सचमुच आग है, तो अपने राज्य के नवनिर्माण के सृजन के लिए उस आग की आंच को इस्तेमाल करिए.
लोकसभा के चुनाव जल्द ही होनेवाले हैं. सारे राजनीतिक दलों को बाध्य करिए कि चुनाव के पहले आपके राज्य के विकास का एजेंडा लेकर वे जनता के पास आयें. मांग करिए कि राज्य में उद्योग लगाने के लिए टैक्स होलीडे के तहत पैकेज दिया जाये.
एजुकेशन हब की परिकल्पना लेकर दल चुनाव में उतरे. बिहार पंजाब से भी ज्यादा उपजाऊ है, पर कृषि आधारित उद्योगों के विकास का प्रयास नहीं हआ? इसके ब्ल्यूप्रिंट की मांग करिए. 40 जिलों में 40 बेहतरीन अलग-अलग शिक्षा के उत्कृष्ट इंस्टीट्यूशन की परिकल्पना करिए.
चौड़ी और बेहतर सड़कों के लिए अभियान चलाइए. अपने बीच से नये उद्यमियों को गढ़िए. कानून और व्यवस्था के अनुसार सभ्य समाज गढ़ने का अभियान चलाइए. यही रास्ता बिहार और झारखंड को फिर शिखर पर ले जा सकता है.
लगभग 40 वर्षों पहले प्रो गुन्नार मिर्डल ने एशियन ड्रामा पुस्तक लिखी, जिस पर उन्हें अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला. तब उन्होंने कहा था कि करप्शन ने भारत को तबाह कर दिया है. आप छात्र गौर करिए, भ्रष्टाचार ने बिहार और झारखंड को कहां पहुंचा दिया.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार देश के भ्रष्ट राज्यों में से एक. कांग्रेस राज्य में यह परंपरा शुरू हई. लोग सड़क चुराने लगे, बांध चुराने लगे और यह परंपरा चलती रही. भ्रष्टाचार के खिलाफ चौतरफा हमले करिए. आज बिहार सरकार भ्रष्टाचारियों को धर-पकड़ रही है. ऐसा माहौल बनाइए कि भ्रष्टाचारी पकड़े जायें. दंडित हों.
पर इतना ही काफी नहीं है. भ्रष्टाचार नियंत्रण अब अकेले सिर्फ सरकार के बूते की बात नहीं है. भ्रष्ट लोगों के खिलाफ समाज में एक नफरत और घृणा का माहौल पैदा करिए. भ्रष्टाचारी समाज में पूज्य न बनें.
आप में अगर सचमुच आग है, पौरुष है, तो राजनीतिज्ञों को एकाउंटेबल बनाने के अभियान में लगिए. राजनीति में मूल्य और आदर्श स्थापित करने के अभियान में जुटिए. आप जानते हैं डॉ वर्गीज कुरियन को? केरल के एक आदर्शवादी युवा ने दूध उत्पादन और को-ऑपरेटिव के क्षेत्र में गुजरात को दुनिया के शिखर पर पहुंचा दिया. उनके जीवन का निचोड़ याद रखिए. हम जो कुछ सही करते हैं, वही नैतिकता है.
पर जो चीज हमारे सोचने की प्रक्रिया को संचालित करती है, वह इथिक्स (मूल्य) है. हम जैसे जीते हैं, वह नैतिकता है. जैसा सोचते हैं और अपना बचाव करते हैं, वही इथिक्स है. हिंदी पट्टी के समाज और राजनीति को आप युवा ही मॉरल और इथिकल बना सकते हैं.
आप युवाओं ने नाम सुना होगा, पीटर ड्रकर का. आधुनिक प्रबंधन में दुनिया के सबसे बड़े नामों में से एक. पहले जैसे पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, आकर्षण और विचार के केंद्र थे, उसी तरह ग्लोबल दुनिया में, इक्कीसवीं सदी के दौर में कंप्यूटर क्रांति और सूचना क्रांति के इस दौर में, प्रबंधन सबसे आकर्षक और नया वाद बन गया है.
राजनीति हो या उद्योग धंधा या विकास, श्रेष्ठ प्रबंधन कला ही किसी इंसान, समाज और व्यवस्था को शिखर पर ले जा सकती है. इसी प्रबंधनवाद के मार्क्स कहे जाते है, पीटर ड्रकर. एक जगह उन्होंने कहा है कि चीन को, भारत पछाड़ सकता है, अगर वह टेक्नोलॉजी में आगे रहे, उच्च शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ संस्थान बनाये और वर्ल्ड क्लास प्राइवेट सेक्टर विकसित करे. बिहार के शिक्षण संस्थानों में बौद्धिक श्रेष्ठता का माहौल नहीं रह गया है.
क्या इसे हम दोबारा वापस कर पायेंगे? यह आप छात्र करा सकते हैं. सरकारें नहीं करा सकती. शिक्षा में यूनियनबाजी, नेतागीरी, चापलूसी, पैरवी, जातिवाद और संकीर्ण माहौल में आग लगा दीजिए और इस अग्नि-परीक्षा से एक नया बिहार और झारखंड निकलेगा.
दुनिया के प्रख्यात कंसलटेंसी मेकेंजी एंड कंपनी की रिपोर्ट है कि इस बदलती दुनिया में रिटेल व्यवसाय, रेस्टूरेंटों और होटलों, हेल्थ सर्विस में बड़े पैमाने पर अवसर पैदा होनेवाले हैं. क्या हम हिंदी पट्टी के लोग अपने यहां ऐसे संस्थान बना सकते हैं, जहां से ऐसे कुशल और प्रशिक्षित युवा निकलें, जिनकी दुनिया में मांग हो. आज अरब के देशों में बड़े पैमाने पर प्लंबर, राज मिस्त्री वगैरह की मांग है, सीखिए दुबई और खाड़ी के देशों से. वहां मुसलिम शासक हैं.
पर हर धर्म, देश और राष्ट्रीयता के कुशल लोगों को छूट है कि वे आकर काम करें. आजादी से रहें. और उनकी इसी रणनीति ने खाड़ी देशों को कितना आगे पहुंचा दिया. प्रकृति ने हिंदी पट्टी के इलाकों को उपजाऊ बनाया. जैसा मौसम दिया, वैसा शायद अन्यत्र न मिले. पर क्या हम इसका उपयोग कर पाते हैं? थॉमस एल फ्रीडमैन ने 2005 में संसार प्रसिद्ध पुस्तक लिखी, द वर्ल्ड इज फ्लैट.
पुस्तक की भूमिका में उन्होंने एक फ्रेज (मुहावरे) का इस्तेमाल किया है, जो भारत देख कर उन्हें लगा, ‘न्यू वर्ल्ड, द ओल्ड वर्ल्ड आर द नेक्स्ट वर्ल्ड’ (नया संसार, पुराना संसार या भविष्य का संसार). आप हिंदी पट्टी के छात्र भविष्य का संसार गढ़िए. दुनिया आपके कदमों पर होगी. अक्सर बिहार के कुछ दृश्य मेरे जेहन में उभरते हैं. पेड़ों के नीचे बैठ कर ताश खेलते लोग. गप मारते लोग. परनिंदा में व्यस्त.
10वीं-12वीं की परीक्षा में चोरी कराने में बड़े पैमाने पर परीक्षा केंद्रों पर उपस्थित भीड़? क्या आप छात्र, इन प्रवृत्तियों के खिलाफ कुछ कर सकते हैं? जिस दिन हमारी यह श्रमशक्ति अपनी ताकत पहचान लेगी, बिहार का कायाकल्प हो जायेगा.
इतिहास की एक घटना से हम सीख ले सकते हैं. रूस ने स्पुतनिक उपग्रह छोड़ा था और अंतरिक्ष में रूसी यात्री यूरी गैगरिन गये थे. अमेरिका रूस की इस प्रगति से स्तब्ध और आहत था.
आहत अपनी स्थिति को लेकर. यह ’60 के दशक की बात है. कैनेडी राष्ट्रपति बने थे. 25 मई 1961 को उन्होंने संसद (कांग्रेस) की बैठक बुलायी. बातचीत का विषय था, आवश्यक राष्ट्रीय सवाल. उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया. कहा, मेरी बातें स्पष्ट हैं. मैं संसद (कांग्रेस) और देश से गुजारिश कर रहा हं. एक दृढ़प्रतिबद्धता की.
एक नये कार्यक्रमों के प्रति. एक नया अध्याय शुरू करने के प्रति, जिसमें भारी खर्च होंगे और जो वर्षों चलेगा… यह निर्णय हमारी इस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से जुड़ा है कि हम वैज्ञानिक और तकनीक संपन्न मैनपावर पैदा करें. उसे सारी भौतिक और अन्य सुविधाएं दें…. इस संदर्भ में उन्होंने प्रतिबद्धता, सांगठनिक कुशलता और अनुशासन की बात की. उन्होंने कहा, मैं कांग्रेस को बता रहा हूं, हजारों लाखों की संख्या में लोगों को प्रशिक्षित, पुन:प्रशिक्षित करने का ट्रेनिंग प्रोग्राम (प्रशिक्षण प्रोग्राम) शुरू करें और मैनपावर डेवलपमेंट (मानव संपदा विकास) करें.
क्या हम इतिहास के इस पाठ से शिक्षा ले सकते हैं? हमारे दिल में अगर सचमुच राज ठाकरे के व्यवहार से जलन और आग है, तो हम इस जलन और आग को एक नये समाज गढ़ने के अभियान में ईंधन बना सकते हैं. चीन पहले अफीमचीयों का देश माना जाता था. बिल गेट्स ने चीन के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही है. आज वह दुनिया की महाशक्ति है. कैसे और क्यों? उसमें क्या हुनर है? बिल गेट्स के अनुसार, चीनी खतरे उठाते हैं. संकटों से जूझते हैं.
कठिन श्रम करते है. अच्छी पढ़ाई करते हैं. बिल गेट्स के अनुसार जब किसी चीनी राजनीतिज्ञ से मिलते हैं, तो पाते हैं कि वे वैज्ञानिक हैं. इंजीनियर हैं. उनके साथ आप अनंत सवालों पर बहस कर सकते हैं. लगता है आप एक इंटेलीजेंट ब्यूरोक्रेसी से मिल रहे हैं.
दुनिया के युवाओं के आदर्श और प्रेरक ताकत बिल गेट्स भी हैं, जो एक गैरेज से काम शुरू कर दुनिया के शिखर तक पहुंचे. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के एक प्रोफेसर गर स्टरनर ने एक जगह कहा है, किसी संस्था में बदलाव, संकट या आपात स्थिति में ही शुरू होता है. वह कहते हैं कि किसी भी संस्था में तब तक कोई मौलिक बदलाव नहीं होता, जब तक उसे यह एहसास न हो कि वह अत्यंत खतरे (डीप ट्रबल) में है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसे कुछ नया, ठोस और अनोखा प्रयास करना होगा.
आज बिहार या झारखंड को छात्र बदलना चाहते हैं, तो इससे प्रेरक वाक्य नहीं हो सकता. इस अपमान को सम्मान में बदल देने के रास्ते पर चलिए, आप इतिहास बनायेंगे. इतिहास बनानेवालों से ही सबक लीजिए. ऐसे ही एक इतिहास नायक चर्चिल ने कहा था, किसी चीज के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है. इसके पीछे वर्षों का श्रम और साधना होती है.
पर इसको नष्ट करने का विचारहीन काम एक दिन में हो सकता है. राष्ट्र की इस संपदा (रेलवे वगैरह) को बनाने में भारी श्रम और पूंजी लगे हैं. यह देश की संपत्ति है, बिहार की संपत्ति है. राज ठाकरे की नहीं. यह आपके और हमारे करों से बनी सार्वजनिक चीज है. हम अपमानित भी हों और अपनी ही दुनिया में आग लगायें, ऐसा काम दुनिया में शायद कहीं और नहीं होता.
आप युवा हैं. युवाओं में ही कुछ नया करने की कल्पनाशीलता होती है. सपनों के पंख होते हैं. उत्साह होता है. महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, कल्पनाशीलता ज्ञान से ज्यादा महत्चपूर्ण है. क्या आप युवा अपनी कल्पनाशीलता की ताकत को अपने राज्य को गढ़ने में नहीं लगा सकते?
आप युवाओं ने दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी (जीइसी) का नाम सुना होगा. उसके करिश्माई चेयरमैन हुए, जैक वालेशा. उन्होंने भारत के बारे में कहा है, मैं भारत को एक बड़ा खिलाड़ी मानता हूं. आधुनिक दुनिया में. 100 करोड़ से अधिक की जनसंख्यावाला यह देश तेजस्वी लोगों का मुल्क है.
यह लगातार बढ़ेगा और बड़ा होगा और दुनिया के अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण रोल होगा. नैस्कॅाम (नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज) के अनुसार भारतीय तकनीकी कंपनियां, अमेरिका, यूरोप, जापान की बड़ी-बड़ी कंपनियों को सेवाएं दे रही हैं. विदेशी, इन कंपनियों को इंडियन टाइगर्स कहते हैं. भविष्य में इन कंपनियों की मांग और बढ़नेवाली है. यह मंदी, वर्ष-डेढ़ वर्ष में कम होगी.
आज एक लाख बीस हजार छात्र सूचना तकनीक में भारतीय कॉलेजों से स्नातक की डिग्री पा रहे हैं. 30 लाख विद्यार्थी अंडर ग्रेजुएट डिग्री ले रहे हैं. (सभी आंकड़े नैस्कॉम रिपोर्ट 2007 के अनुसार). इन भारतीय युवाओं को पश्चिम के देशों में जो वेतन मिलते हैं, उसका महज 20 फीसदी ही मिलता है, वह भी भारत में घर बैठे. इसके लिए एक बड़ा रोचक फार्मूला है-
क्यों हमारे हिंदी पट्टी के प्रतिभाशाली विद्यार्थी, इस मौके का लाभ नहीं उठा सकते? इसके लिए बड़े कल-कारखाने नहीं चाहिए. बड़ी पूंजी नहीं चाहिए. बस चाहिए, सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान, जहां से निकलें प्रतिभाशाली छात्र अच्छी तरह कामकाज करना जानें. लिखना-पढ़ना जानें.
फर्राटेदार अंगरेजी बोलना जानें. अच्छी सड़कें हों, बेहतर कानून-व्यवस्था हो, तो अपने आप आइटी उद्योग आपके यहां खिंचा चला आयेगा. वैसे भी अब आइटी उद्योग या अन्य कंपनियां बड़े शहरों से दूसरे दरजे के शहरों की ओर रुख कर रही हैं.
लागत खर्च कम करने की दृष्टि से. यह सुनहरा मौका है बिहार, झारखंड और हिंदी पीढ़ी के राज्यों के लिए. पहले भारत सांप-सपेरों, जादूगरों, साधुओं और तंत्र-मंत्र का देश जाना जाता था. दुनिया में. पर भारत के युवकों ने यह छवि बदल दी है. क्या बिहार, झारखंड या हिंदी पीढ़ी के छात्र अपना पुरुषार्थ नहीं दिखा सकते?
बीबीसी के जाने-माने पत्रकार, डेनियल लैक ने भारत पर दो किताबें लिखी हैं. एक मंत्राज ऑफ चेंज (वर्ष 2005). उनकी ताजा पुस्तक आयी है, इंडिया एक्सप्रेस (2008). अपनी पुस्तक मंत्राज ऑफ चेंज में उन्होंने हिंदी राज्यों के बारे में लिखा है. उन्होंने भारत के सबसे बड़े डेमोग्राफर इन चीफ प्रो आशीष बोस से मुलाकात की.
प्रो बोस अपनी बौद्धिक कामों के लिए दुनिया में जाने जाते हैं. पहली बार ’80 के दशक में, उन्होंने बीमारु राज्यों की अवधारणा को स्पष्ट किया. बीमारु राज्य यानी जो बीमार हैं, पिछड़े हैं. बीमारु शब्द में ये राज्य हैं- बिहार, राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश. सन 2000 के आसपास योजना आयोग ने माना कि राजस्थान और मध्यप्रदेश, बीमारु राज्यों की अवधारणा से निकल आये हैं.
इस तरह बीमार राज्यों में दो ही राज्य बचे, बिहार और यूपी. वर्ष 2000 के अंत में ये दोनों राज्य बंट कर चार राज्य हो गये – बिहार, झारखंड, यूपी और उत्तरांचल.
इस तरह ये चारों राज्य भारत के बीमार राज्य माने जाते हैं. इन राज्यों के कामकाज को लेकर विकास की दौड़ में शामिल अन्य राज्य टीका-टिप्पणी भी करते हैं. वर्ष 2000 के आसपास नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कई गंभीर सवाल उठाये.
उन्होंने कहा कि हमारे आंध्रप्रदेश जैसे राज्य या अन्य, जो प्रगति और विकास कर रहे हैं, अपनी बेहतर व्यवस्था, गुड गवर्नेंस, बेहतर आर्थिक प्रबंध वगैरह के कारण, वे पैसे कमा कर केंद्र को देते हैं और केंद्र का वित्त आयोग हमारे कमाये पैसे को गरीब राज्यों के विकास के लिए दे देता है.
इससे हमें निराशा होती है. क्या कुशल राज्य संचालन, प्रबंधन का यही पुरस्कार है? उन्होंने साफ-साफ कहा कि हिंदी पट्टी के राज्य न अपनी जनसंख्या घटाते हैं, न आर्थिक विकास दर बढ़ाते हैं, न बेहतर गवर्नेंस करते हैं, न उनकी दिलचस्पी अपने राज्य के विकास में है, तो उनकी अव्यवस्था, अराजकता, अकुशलता का बोझ हम क्यों उठायें? इस सवाल के मूल्यांकन की भी दो दृष्टि है. पहली, यह देश एक है, इसलिए गरीबों का बोझ संपन्न राज्यों को उठाना चाहिए. 1980 तक लगभग यही मानस पूरे देश में था, क्योंकि आजादी के समय के नेता जीवित थे.
पर आज यह भावना खत्म हो गयी है. हर राज्य अपने विकास में सिमट गया है. इस दृष्टि से चंद्रबाबू नायडू के सवाल जायज एवं सही हैं. क्यों हिंदी पीढ़ी के राज्य अपनी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं कर सकते? विकास दर नहीं बढ़ा सकते? सुशासन नहीं ला सकते?
आप युवा विद्यार्थी बीमारी की इस जड़ को समझिए और ऐसी राजनीति और नेता को प्रश्रय दीजिए, जो इन मोरचों पर इन पिछड़े राज्यों को आगे ले जा सके. अपनी ताजा पुस्तक में डेनियल लैक कहते हैं कि बीमारु राज्यों के बावजूद भारत बीकमिंग एशियाज अमेरिका (भारत, एशिया का अमेरिका बन रहा है).
ऐसी स्थिति में क्यों हिंदी पट्टी के राज्य पिछड़े और दरिद्र बने रहे? डेनियल एक जगह नारायण मूर्ति को उद्धृत करते हैं. नारायण मूर्ति पहले साम्यवादी थे. साम्यवाद से अपने अनुभव के बाद इंफोसिस कंपनी बनायी, जिसने दुनिया में भारत को प्रतिष्ठित किया. उन्होंने एक बड़ा वाजिब सवाल उठाया. आप सीमित धन गरीबों में बांट कर, गरीबी दूर नहीं कर सकते. बल्कि अधिक से अधिक संपत्ति का सृजन कर ही गरीबों की गरीबी दूर की जा सकती है.
आज क्या कारण है कि अमेरिका के राष्ट्रपति हों या चीन के प्रधानमंत्री या दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष, पहले बेंगलुरू, हैदराबाद, चेन्नई वगैरह जाते हैं. दिल्ली बाद में पहुंचते हैं. मुंबई तो शायद जाते भी नहीं. क्या हम हिंदी पट्टी के लोग एक बेंगलुरू, एक हैदराबाद, एक चेन्नई, एक त्रिवेंद्रम, मनीपाल वगैरह भी खड़ा नहीं कर सकते?
दुनिया के प्रतिष्ठित फाइनेंसियल टाइम्स अखबार के जाने-माने पत्रकार एडवर्ड लूस ने 2006 में एक किताब लिखी, इंस्पाइट ऑफ द गॉड्स. उसमें एक जगह लिखा है, व्यंग्य के तौर पर ही. इटली के संदर्भ में. ‘रात में आर्थिक प्रगति होती है, जब सरकार सो रही होती है.’ दरअसल भारत के पावर हाउस के रूप में उभरे नये शहरों में कामकाज रात में ही होता है, जब दुनिया की अर्थव्यवस्था और कंपनियों को भारत के युवा भारत में बैठे नियंत्रित करते हैं.
आप युवाओं को अपनी दृष्टि बदलनी होगी, सोचने का तरीका बदलना होगा. आप खुद को समस्या न मानिए. न समस्या बनिए. बल्कि आप इस संकट के समाधान के कारगर यंत्र बनिए. हिंदी पट्टी की आबादी बहुत बड़ी है और यह बाजार बहुत बड़ा है. यह हमारी ताकत है. हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए.
टेक्नोलॉजी अपनाने में अग्रिम मोरचे पर रहिए. कंप्यूटर, इंटरनेट, नयी खोज, नयी चीजें, इन सबको जीवन में पहले उतारिए. इनके विरोधी मत बनिए. इतिहास से सीखिए. जो टेक्नोलॉजी में पिछड़ गया, वह गुलाम बनने के लिए अभिशप्त है. औद्योगिक क्रांति का अगुआ था ब्रिटेन. उसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था.
भारत उसका गुलाम बन गया. अमेरिका का वर्चस्व अपनी टेक्नोलॉजी के कारण है. दक्षिण के राज्य हमसे क्यों आगे हैं? क्योंकि अच्छी शिक्षण संस्थाएं, इंफ्रास्ट्रक्चर वगैरह बना कर वह सूचना क्रांति के केंद्र बन गये हैं.
रॉबर्ट फ्रास्ट की एक मशहूर कविता है, जिसका आशय है –
आज से हजारों हजार वर्ष बाद
भले भाव में यह कहूंगा
जंगल में दो रास्ते थे
मैं उस पर चला
जिस पर लोग यात्रा नहीं करते थे
और इसी प्रयास ने सारे द्वार खोल दिये
आप युवा घटिया राजनीति के पात्र न बनें. यह राजनीति देश को तोड़ने की ओर ले जायेगी. 1960 में सेलिग एस हैरिसन ने बहुचर्चित किताब लिखी थी ‘इंडिया : द मोस्ट डेंजरस डिकेड’. जो चीजें आज के भारत में हो रही हैं, उसका उल्लेख है, इस पुस्तक में.
कैसे राज ठाकरे जैसे लोग देश को तोड़ने की ओर ले जा रहे हैं? क्या आप भी राज ठाकरे के सपने को पूरा करना चाहते हैं? इस देश के लाखों-करोड़ों युवाओं ने आजादी के लिए कुर्बानी दी है. गर्व की बात है कि आजादी की लड़ाई में हिंदी इलाके अग्रिम मोरचे पर थे.
लगभग 2500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में भारत में स्थिर केंद्रीय शासन के चार संक्षिप्त दौर हैं. मौर्य काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल और आजादी के बाद के 60 वर्ष. इनमें पहला और अंतिम शासन देश की धरती से निकले थे.
तीसरा पूरी तरह विदेशी था. दूसरा शुरू में विदेशी था, तीन पीढ़ियों बाद देशी बनने लगा. भारत की इस एका को किसी कीमत पर आप युवा खंडित न होने दें. महाराष्ट्र की परंपरा आज युवा नहीं जानते.
यह राज ठाकरे का राज्य नहीं रहा है. यह लोकमान्य तिलक, दादा भाई नौरोजी से लेकर साने गुरुजी, अच्युत पटवर्धन, मधु लिमये, मधु दंडवते, एसएम जोशी, एनजी गोरे, मृणाल गोरे जैसे देशभक्तों का राज्य है. बाल ठाकरे और राज ठाकरे अपवाद और इस समाज की विकृतियां हैं. यह महाराष्ट्र की मुख्य धारा नहीं है. दरअसल मधु लिमये के लेख से राजनीति के बारे में एक अंश उद्धृत कर रहा हूं.
वही मधु लिमये जिन्हें बिहार ने बार-बार लोकसभा में भेजा और गौरवान्वित महसूस किया. अमेरिका के एक लेखक जॉन एस सलोमा का वह हवाला देते हैं कि आज राजनीति, राजनेता, राजनीतिज्ञ और दलीय, ये सब शब्द लोगों में तिरस्कार की भावना पैदा करते हैं.
इनमें संकीर्ण स्वार्थवादिता की बू आती है. आप बिहार के युवा एक क्रांतिकारी परंपरा के वाहक हैं. क्या आप इस सड़ी राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं? एक कविता की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए.
कई बार मरने से जीना बुरा है
कि गुस्से को हर बार पीना बुरा है…
भले वो न चेते हमें चेत होगा
हमारा नया घर, नया रेत होगा…
मुक्तिबोध की यह पंक्ति भी याद रखिए एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पड़ती हैं
इस लेख को तैयार करने में निम्न पुस्तकों से मदद ली गयी है. मेरा आग्रह है कि आप इन सभी पुस्तकों को पढ़ें. पढ़ने-पढ़ाने का अभियान चलायें, ताकि आपके शासक (शासन चलानेवाले, राजनीति करने वाले) इन्हें पढ़ें और जानें कि दुनिया कहां चली गयी है. भारत के अन्य राज्य कहां पहुंच गये हैं और हम हिंदी इलाके कहां हैं.
पहले यह कहावत थी, इग्नोरेंस इज ब्लिस (अज्ञानता वरदान है). पर ग्लोबल विलेज के इस दौर की बुनियादी शर्त है, इनफॉरमेशन इज पावर (सूचना ही ताकत है). इसे नॉलेज एरा कहा जाता है.
क्या इन पुस्तकों को पढ़ कर, इनके निचोड़ निकाल कर, आप छात्र बिहार के गांव-गांव, स्कूलों और संस्थाओं में इसके मर्म बताने का अभियान चला सकते हैं? इससे लोग बदलती दुनिया की हकीकत समझेंगे और तथ्य जान कर बिहारियों-झारखंडियों में आकांक्षाएं पैदा होंगी, जिनसे नया राज्य बनेगा.
दिनांक : 26-10-08
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