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फर्क नेता और कुरसीधारकों में!
– हरिवंश – मौलाना की बातें पढ़कर लगता है वो भविष्यद्रष्टा थे. इस बातचीत के मर्म या संदेश क्या इस महाद्वीप में हम आज भी समझने को तैयार हैं? यह सवाल सिर्फ भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बारे में ही नहीं है? बल्कि दोनों देशों के नेता जिस तरह से मूल सवालों को छोड़ रहे हैं, उन्माद, […]
– हरिवंश –
मौलाना की बातें पढ़कर लगता है वो भविष्यद्रष्टा थे. इस बातचीत के मर्म या संदेश क्या इस महाद्वीप में हम आज भी समझने को तैयार हैं? यह सवाल सिर्फ भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बारे में ही नहीं है? बल्कि दोनों देशों के नेता जिस तरह से मूल सवालों को छोड़ रहे हैं, उन्माद, कालाधन, भ्रष्टाचार के ईद-गिर्द देश की राजनीति को ले जा रहे हैं, उसका हस्र भी ऐसा ही होगा.
पाकिस्तान ही नहीं, भारत भी अगर धर्म और जाति के रास्ते पर चला, तो उसका रूप कुछ ऐसा ही होगा. पर उतना ही खतरनाक है, किसी भी धर्म या जाति के लोगों को वोट बैंक बनाना. सत्ता को सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए. किसी भी कौम या करपंथी ताकत के आगे न झुकें.
एक मित्र अनिंद्य सेनगुप्ता से जानकारी मिली. जयंतराव चौधरी ने इसे लिखा है. प्रसंग है, कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद का एक इंटरव्यू. उन्होंने यह बातचीत लाहौर से प्रकाशित उर्दू पत्रिका छत्तन में की थी. अप्रैल 1946 में.
यह वह समय था, जब ब्रिटेन से आया कैबिनेट मिशन दिल्ली और शिमला में भारत का भविष्य तय कर रहा था. शोरिश कश्मीरी ने बाद में यह बातचीत अपनी पुस्तक में छापा. पुस्तक का नाम था- अबुल कलाम आजाद. यह किताब सिर्फ एक बार छपी, लाहौर स्थित मतबूत छत्तन लाहौर पब्लिशिंग हाउस से. अब यह बंद है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खां ने काफी खोज के बाद इस पुस्तक को ढूंढ़ निकाला. कई वर्षों के प्रयास के बाद यह मिली. फिर इस बातचीत का अनुवाद हुआ, इसका एक अंश एम जे अकबर की हाल में प्रकाशित पुस्तक पाकिस्तान टिंडरबॉक्स में है.
मौलाना अबुल कलाम आजाद की बातचीत से लगता है कि उनमें और उनकी पीढ़ी के नेताओं में क्या दृष्टि थी? क्या विजन था? वे लोग कैसे सत्ता व कुरसी से बहुत आगे की देख पाते थे? क्योंकि वे स्वार्थ से नहीं बंधे थे. पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत के बारे में 1946 में कही बातें, शत-प्रतिशत सही हुई. वे भविष्य साफ-साफ देख रहे थे. आज पाकिस्तान जिस हाल में है, उसके बारे में उन्होंने कितनी सटीक बातें कहीं, यह समझिए. कैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश जो धर्म के नाम पर बने, उनके हालात बिगड़े. एक खास धर्म का जोर बढ़ा, दूसरे धर्मों के लोग हाशिए पर चले गये.
अब आगे पाकिस्तान का क्या होगा, इस पर भी सटीक बातें मौलाना ने कही हैं. आज उनके इस इंटरव्यू के बारे में जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम समझ सकें कि धर्म आधारित राजनीति का अंत क्या होता है? करपंथी ताकतें देश और समाज को किस स्थिति में पहुंचा देते हैं.
मौलाना आजाद से शोरिश का सवाल था कि पाकिस्तान एक हकीकत में बदल जाये, तो इसमें क्या गलती है? फिर मौलाना का जवाब था-यदि पाकिस्तान का बनना मुसलमानों के लिए सही होता, तो मैं इसका समर्थन जरूर करता. लेकिन मैं साफ-साफ इस मांग में छिपे खतरे को देख रहा हूं.
मैं यह अपेक्षा भी नहीं करता कि लोग मेरी बात सुनें, पर मेरे लिए यह संभव नहीं कि मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज के विरुद्ध जाऊं. लोग इसलिए सहमत होते हैं क्योंकि उन पर दबाव बनाया जाता है या फिर वे अपने अनुभवों से ऐसा करते हैं. मुसलमान पाकिस्तान के विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहेंगे, जब तक कि वे इसका अनुभव न कर सकें. आज वे उजले को भी काला कह सकते हैं, पर वे पाकिस्तान को नहीं छोड़ेंगे. केवल एक ही रास्ता है, जब या तो सरकार न झुके या फिर जिन्ना स्वयं किसी नये प्रस्ताव पर सहमत हो जायें. कार्यसमिति में मेरे अपने ही साथियों का जो एटिट्यूड है, उससे भारत का बंटवारा निश्चित दिखता है.
लेकिन मैं यह चेतावनी देना चाहता हूं कि विभाजन की बुराइयों से अकेले केवल भारत ही प्रभावित नहीं होगा, बल्कि पाकिस्तान भी उसी तरह शिकार होगा. विभाजन का आधार जनसंख्या का धर्म होगा, न कि कोई प्राकृतिक बाधक जैसे पहाड़, नदी या फिर कोई मरुस्थल. एक रेखा खींची जायेगी, पर यह कहना कठिन है कि यह कितनी टिकाऊ होगी? हमें यह चीज याद रखनी होगी कि नफरत की बुनियाद पर रखी कोई चीज तब तक बनी रहती है, जब तक कि नफरत रहती है. यह नफरत भारत और पाकिस्तान के रिश्ते को बिगाड़ कर रख देगी. इस स्थिति में भारत और पाकिस्तान के लिए संभव नहीं होगा कि वो मित्र बनें और शांतिपूर्ण रहें.
यह तभी हो सकता है, जब कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं सामने आयें. विभाजन की जो राजनीति है, वही इन दोनों देशों के बीच सबसे बड़ी बाधक बनेगी. प्रभावशाली मुसलमान, जो मुसलिम लीग के समर्थक हैं, वे पाकिस्तान जायेंगे. उद्योग और व्यवसाय पर धनी मुसलमानों का कब्जा हो जायेगा और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था उनकी मुट्ठी में आ जायेगी. लेकिन 3 करोड़ से अधिक मुसलमान भारत में ही रह जायेंगे.
पाकिस्तान इनसे कैसा वायदा कर सकता है? पाकिस्तान से हिंदुओं और सिखों के निकलने के बाद जो स्थिति उत्पन्न होगी, वो उनके लिए फिर भी खतरनाक होगी. पाकिस्तान खुद भी कई तरह की गंभीर समस्याओं से घिर जायेगा. जो सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न होगा, वह अंतरराष्ट्रीय शक्तियों द्वारा पेश किया जायेगा. वो इस नये देश पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहेंगे और जैसे-जैसे वक्त गुजरता जायेगा, वैसे-वैसे उनका शिकंजा भी कसता जायेगा. भारत को इस तरह की बाहरी शक्तियों से कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि वह पाकिस्तान से ही खतरा होने की बात करेगा.
जो दूसरी महत्वपूर्ण बात है, वो बंगाल के संदर्भ में है, जिस पर जिन्ना ने ध्यान नहीं दिया है. वह नहीं जानते कि बंगाल में बाहरी राजनीतिक नेतृत्व नहीं स्वीकार किया जाता और बहुत जल्द ही वे इसे अस्वीकार कर देंगे. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय फजलुल हक ने जिन्ना के खिलाफ बगावत किया था और उसके बाद उन्हें मुसलिम लीग से निकाल दिया गया था.
एचएस सुहरावर्दी का जिन्ना के प्रति बहुत समर्पण भी नहीं था. केवल मुसलिम लीग को ही क्यों, कांग्रेस के इतिहास को देखिए. सुभाषचंद्र बोस की बगावत को सभी कोई जानते हैं. गांधीजी बोस के अध्यक्ष चुने जाने से खुश नहीं थे और इसलिए उनके खिलाफ राजकोट में आमरण अनशन पर जाकर उन्होंने अपने विरोध को जताया था. सुभाषचंद्र बोस गांधीजी के खिलाफ उठ खड़े हुए और कांग्रेस से भी अपना नाता तोड़ लिया.
बंगाल का वातावरण ही कुछ ऐसा है कि यह बाहर के नेतृत्व से अपनी असहमति जताता है और जब उसे लगता है कि उसके अधिकारों और हितों पर खतरा उत्पन्न होने वाला है, तो वह इसके विरोध में भी उठ खड़ा होता है. जब तक जिन्ना और लियाकत अली जीवित हैं, तब तक पूर्वी पाकिस्तान का आत्मविश्वास नहीं डोलेगा. लेकिन उनके बाद कोई भी छोटी सी घटना असंतुष्टि और विरोध को हवा दे सकती है. मैं ऐसा महसूस करता हूं कि यह संभव नहीं हो पायेगा कि पूर्वी पाकिस्तान किसी लंबे समय तक पश्चिम पाकिस्तान के साथ जुड़ा रहे.
इन दोनों क्षेत्रों के बीच कुछ भी कॉमन नहीं है, सिवाय इसके कि वे सब मुसलमान हैं. तथ्य यह है कि दुनिया में कहीं भी मुसलमानों में राजनीतिक एकता लंबे समय तक स्थायी नहीं रही है. अरब देशों का उदाहरण हमारे सामने है. उनका धर्म एक है, एक ही सभ्यता-संस्कृति और एक ही भाषा बोलते हैं. सच पूछिए तो क्षेत्रीय एकता भी प्रदर्शित करते हैं. पर इसके बावजूद उनके बीच में कोई राजनीतिक एकता नहीं है.
उनके सरकार चलाने की व्यवस्था अलग-अलग है और वे प्राय: एक दूसरे से उलझने में ही अपना समय गंवाते हैं. दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की भाषा, उनके रस्म-रिवाज व उनकी जीवनशैली पश्चिम पाकिस्तान से बिल्कुल अलग है. पाकिस्तान बनने का जो उत्साह है, वह जब ठंड़ा पड़ेगा, तब कई तरह के विरोधाभास खड़े होंगे और फिर तब आवाज उठने लगेगी. अंतरराष्ट्रीय शक्तियां अपने हितों के कारण इस विरोध को और हवा देंगी और तब दोनों धड़े अलग हो जायेंगे. एक बार पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने पर, जब भी ऐसा होता है, पश्चिम पाकिस्तान क्षेत्रीय विवादों और विरोधाभासों की रणभूमि में बदल जायेगा.
जिस तरह पंजाब, सिंध, फ्रंटियर और बलूचिस्तान को उपराष्ट्र के रूप में पहचान देने की कोशिश की जा रही है, वह बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप को आमंत्रण देगा. बलकान और अरब मुल्कों को जिस तरह तोड़ा गया, उसी तरह इस देश को तोड़ने में अंतरराष्ट्रीय शक्तियां पीछे नहीं रहेंगी. वे पाकिस्तानी राजनीतिक नेतृत्व का पूरा इस्तेमाल करेंगी. हो सकता है, इस स्टेज पर पहुंच कर हम यह सोचे कि हमने क्या पाया है और क्या खोया है.
असली मुद्दा धर्म नहीं है. असली मुद्दा है आर्थिक विकास और प्रगति. मुसलिम व्यापारियों को अपनी योग्यता और प्रतियोगिता करने की भावना पर ही संदेह है. उनका इस तरह राजनीतिक इस्तेमाल किया जाता है कि वे इस नयी आजादी को भी भय के रूप में देखते हैं.
दो राष्ट्रों के सिद्धांत का वे इसलिए वकालत करते हैं, ताकि उनका भय कुछ कम हो. वे इसलिए एक मुसलिम राज्य चाहते हैं, जहां कोई प्रतियोगिता न हो और न उन्हें चुनौती मिले. वे पूरी अर्थव्यवस्था पर अपना प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं. यह जानना रोचक होगा कि कितने लंबे समय तक वो इस बात पर कायम रह पाते हैं. मैं ऐसा महसूस करता हूं कि अपने निर्माण के बाद से ही पाकिस्तान कुछ गंभीर समस्याओं से जूझ रहा होगा. ये समस्याएं हो सकती हैं-
1. अक्षम राजनीतिक नेतृत्व सैनिक तानाशाही के लिए रास्ता तैयार करेगी, जैसा कि अरब मुल्कों में हुआ है.
2. विदेशी कर्ज बढ़ेगा.
3. पड़ोसियों के साथ दोस्ताना व्यवहार में कमी आयेगी, सैन्य झड़प बढ़ेगा.
4. आंतरिक अशांति और क्षेत्रीय विवाद बढ़ेगा.
5. पाकिस्तान के नये धनी और उद्योगपतियों द्वारा राष्ट्रीय संपत्ति की लूट
6. नये धनी वर्ग के शोषण के कारण वर्ग संघर्ष
7. धर्म से युवाओं का मोहभंग और पाकिस्तान की पूरी संकल्पना ही ढहेगी.
8. पाकिस्तान को नियंत्रित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की साजिश
इस स्थिति में पाकिस्तान की स्थिरता को खतरा उत्पन्न होगा और मुसलिम देश इस स्थिति में नहीं होंगे कि वे उसकी सहायता कर सकें. दूसरों स्रोतों से जो भी सहायता मिलेगी, वह उनके स्वार्थ से मुक्त नहीं होगी और इसके लिए इन्हें अपने विचारों और साथ ही क्षेत्रीय संप्रभुता से भी समझौता करना पड़ेगा.
मौलाना की बातें पढ़कर लगता है वो भविष्यद्रष्टा थे. इस बातचीत के मर्म या संदेश क्या इस महाद्वीप में हम आज भी समझने को तैयार हैं? यह सवाल सिर्फ भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बारे में ही नहीं है? बल्कि दोनों देशों के नेता जिस तरह से मूल सवालों को छोड़ रहे हैं, उन्माद, कालाधन, भ्रष्टाचार के ईद-गिर्द देश की राजनीति को ले जा रहे हैं, उसका हस्र भी ऐसा ही होगा.
पाकिस्तान ही नहीं, भारत भी अगर धर्म और जाति के रास्ते पर चला, तो उसका रूप कुछ ऐसा ही होगा. पर उतना ही खतरनाक है, किसी भी धर्म या जाति के लोगों को वोट बैंक बनाना. सत्ता को सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए. किसी भी कौम या कट्टरपंथी ताकत के आगे न झुकें. शाहबानो का मामला आया, तो खुश करने के लिए अयोध्या का मामला उठा, शासक दलों द्वारा. फिर एक विपक्षी दल को लगा कि अयोध्या मुद्दे से हम सत्ता की सीढ़ी चढ़ सकते हैं, तो देश की राजनीति भावना में भटक गयी. देश ने बहुमूल्य समय, ऊर्जा और संसाधन खोये.
उसी तरह जातीयता, विदेशों में रखा भारतीय धन, बेलगाम होता भ्रष्टाचार, शासकों का अमर्यादित और अहंकारी आचरण, वे बिंदु हैं, जो लोगों का दिल तोड़ते हैं या जोड़ते हैं. क्या कभी इन मुद्दों पर देश की राजनीति सोचेगी? मौलाना जैसे नेता आज क्यों नहीं?
क्योंकि हर दल में कुरसी के लिए कोई भी समझौता करने के लिए लोग तैयार हैं. अपनी अंतरात्मा और विवेक को गिरवी रखकर. तप, सेवा और साधना को छोड़कर राजनीति को परिवार, निजी स्वार्थ और जाति-धर्म के लिए एक माध्यम बनाया गया, इसलिए आज ऐसा नेता नहीं निकल रहे हैं. मौलाना जैसे लोग साधक थे. वह समाज के लिए सोचते थे. इसलिए उन्हें विजन या दृष्टि मिली थी.
दिनांक 19.06.2011
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